सारथी कला निकेतन (सकलानि)
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Saturday, 24 November 2012
ग़ज़ल (गुरुदेव 'सारथी' जी )
किस को अवसर है समेटे मुझे आ कर कोई
मैं हूँ हारा हुआ बिखरा हुआ लश्कर कोई
किस को अवसर है समेटे मुझे आ कर कोई
मैं हूँ हारा हुआ बिखरा हुआ लश्कर कोई
मैं आकारण ही यहाँ फैल गया हूँ कैसा
मुझ को आकाश संभाले न समंदर कोई
मैं तो इक ग्रन्थ पुराना हूँ बुझे शब्दों का
मैं भी जागूँ जो उभारे मेरे अक्षर कोई
स्वप्न के खेत हैं और नींद के नगमों की फसील
आये इस शहर में किस ओर से दिनकर कोई
देखते देखते इस शहर का क्या हश्र हुआ
दूर तक धड़ है धड़ों पर नहीं है सर कोई
यूं हकारत से न देखो मैं नहीं कोई खुदा
प्यार की भूख हूँ भर दे मुझे घर घर कोई
'सारथी' कान खड़े हैं यहाँ दीवारों के
बात कहने के लिए ढूँढ लो अवसर कोई
मुझ को आकाश संभाले न समंदर कोई
मैं तो इक ग्रन्थ पुराना हूँ बुझे शब्दों का
मैं भी जागूँ जो उभारे मेरे अक्षर कोई
स्वप्न के खेत हैं और नींद के नगमों की फसील
आये इस शहर में किस ओर से दिनकर कोई
देखते देखते इस शहर का क्या हश्र हुआ
दूर तक धड़ है धड़ों पर नहीं है सर कोई
यूं हकारत से न देखो मैं नहीं कोई खुदा
प्यार की भूख हूँ भर दे मुझे घर घर कोई
'सारथी' कान खड़े हैं यहाँ दीवारों के
बात कहने के लिए ढूँढ लो अवसर कोई
Saturday, 10 November 2012
ग़ज़ल (गुरुदेव 'सारथी' जी )
शौक़ कश्ती है मेरी दर्द समंदर मेरा
देखता हूँ कि गिरेगा कहाँ लंगर मेरा
आयें किस तौर मुझे रास यहाँ के मौसम
ज़हन शीशे का है और जिस्म है पत्थर मेरा
तेरे दर तक की रसाई का अभी ज़िक्र नहीं
ढूंढता हूँ कहीं मिल जाये मुझे दर मेरा
वो दिखाई जो नहीं देता वही तो मैं हूँ
जिस्म सूखा है मगर लफ्ज़ हर इक तर मेरा
गुम हुआ जाता हूँ इस भीड़ में आये कोई
थाम ले हाथ जो इस शहर में बढ़ कर मेरा
सारथी मुझ में हैं रूपोश सदी के पैकर
सुर है मीरास मेरी रंग है रहबर मेरा
ज़हन शीशे का है और जिस्म है पत्थर मेरा
तेरे दर तक की रसाई का अभी ज़िक्र नहीं
ढूंढता हूँ कहीं मिल जाये मुझे दर मेरा
वो दिखाई जो नहीं देता वही तो मैं हूँ
जिस्म सूखा है मगर लफ्ज़ हर इक तर मेरा
गुम हुआ जाता हूँ इस भीड़ में आये कोई
थाम ले हाथ जो इस शहर में बढ़ कर मेरा
सारथी मुझ में हैं रूपोश सदी के पैकर
सुर है मीरास मेरी रंग है रहबर मेरा