Wednesday, 13 February 2013
Monday, 4 February 2013
Pratiuttar- a story by Gurudev
प्रत्युत्तर (कहानी)
ओ पी शर्मा "सारथी"
एक संध्या जब वह अपने प्रश्नों से घिरा, अपनी दहलीज पर खड़ा था कि तत्क्षण ही वह बवंडर जैसा आदमी उस के सामने आ खड़ा हुआ और सहानुभूति जताते हुए कहने लगा - "मुझे मालूम है, आदमी हांड-मांस का नहीं,प्रश्नों का बना हुआ है। बरबस प्रश्नों में से प्रश्न निकालता जाता है और प्रश्नों का अम्बार बना कर मर जाता है । परन्तु मैं अब ऐसा नहीं करता । मेरे प्रश्न समाप्त हो गए हैं ।"
" तुम ऐसा नहीं करते । तुम्हारे प्रश्न समाप्त ? आश्चर्य है । कैसे हुआ यह ?"
" मैं एक औरत से प्रेम करता था । ऐसा प्रेम कि मैं धड़ था और वह औरत मेरा सिर। अनंत प्रश्नों का भोझ जब मेरे सिर का हो कर धड़ दुखने लगा तो औरत ने मेरे तमाम प्रश्नों के उत्तर दे दिए !"
उत्तर सुन कर वह चकित रह गया । पूछा -"औरत ने उत्तर दे दिए?" तब वह बवंडर सा आदमी हँसा- " अरे नहीं । औरत ने उत्तर नहीं दिए । औरत ने उत्तर प्राप्त करने की तरकीब बता दी।" बात सुन कर वह उतावला हो गया और शीघ्र विधि बताने के लिए कहा - " मैं बहुत परेशान हूँ । मुझे भी तरकीब बताओ । औरत ने तुम्हे जो तरकीब बताई ! क्या तरकीब बताई थी ?"
उस ने बताया था, कुएं उत्तर देते हैं । हर प्रश्न का उत्तर मिल सकता है । बस कुआँ ढूँढना पड़ता है !"
पहले तो वह मज़ाक समझा । यह कहीं आत्घात की ओर इशारा तो नहीं कर रहा है । फिर गंभीर स्वर में उस ने पूछा- " तुम ने कुआँ ढूँढा ? तुम्हे मिला ? उत्तर भी मिले ?"
"हाँ । सब कुछ मिला । तभी तो अब बिलकुल खाली और बेफिक्र हो कर घूम रहा हूँ । तुम भी मुझे गले तक सवालों से भरे दिखाई देते हो । कुआँ तलाश करो । उत्तर पाओ और शांत हो जाओ ।" कह कर वह आदमी यह जा और वह जा ! उसे जब ध्यान आया तो कुछ ग्लानि सी हुई कि उस आदमी से बहुत कुछ पूछा जा सकता था । परन्तु उस ने एक अजीब सी बात की कि वह विमूढ़ सा, ठगा सा रह गया । उस के जाने के पश्चात उसे लगा कि जाते जाते वह आदमी से के ज़हन में एक फाँस सी अटका गया है कि कहीं कुएं होते हैं और वो प्रश्नों के उत्तर देते हैं । वो कुएं कहाँ होते हैं ? फिर उसे औरत का ध्यान भी आया कि उसे तो औरत ने रास्ता बताया था । शीघ्र ही उस ने इरादा कर लिया कि वह कुआँ तलाश करेगा और अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करेगा ?
उस ने अपने तिकोने पेट वाला सीलन भरा कमरा बंद किया और बलिश्त भर आँगन पर एक दृष्टि डाली और आँगन में एक और लगे मलबे के ढेर को भी देखा और बहार निकल गया।
अब वह गली-गली, गाँव-गाँव, बस्ती- बस्ती और द्वार- द्वार पूछता फिरा । ढूंढता फिरा । आगे आ जाने वाले हर शख्स से पूछा कि कुएं कहाँ हैं ? कुएं कहाँ होते हैं ? ऐसे कुएं कहाँ होते हैं जो आदमी के सभी सवालों के जवाब देते हैं ? जब कहीं पता न चला तो वह गुस्से से भरा बापिस आ गया और यह सोच कर अपने नाख़ून बढ़ाने लगा कि एक बार वह आदमी उसे मिल जाए तो वह उस का वध कर दे जिस ने उस से इतन बड़ा मज़ाक किया? उस के नाख़ून काफ़ी बढ़ गए परन्तु वह बवंडर आदमी नहीं मिला।
आदमी के साथ अक्सर एक दुखांत होता है । वह नाख़ून किसी और काम के लिए बढ़ाता है परन्तु उन से काम कुछ और ही करने पड़ते हैं । एक दिन वह उन्हीं नाखूनों से दीवार के पलस्तर को खरोंच रहा था कि अप्रत्याशित ही उस आदमी को सामने पा कर वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा रह गया । उसे सोचना पड़ा कि मारने का इरादा कर लेना कितना आसान है और सच ही मारना कितना कठिन । वह सोच ही रहा था कि उस बवंडर से आदमी ने हँसते हुए कहा -" बहुत दरबदर हुए हो ? कुआँ नहीं मिला ना? यही होना था । कहाँ मिलता। कुएं को तुम बाहर तलाश रहे थे और कुआँ तुम्हारे ही भीतर था। तुम्हारे समीप । तुम्हारे आँगन में ।"
वह लट्टू कि तरह घूम गया । बहुत तेज निगाह से इधर उधर देखा । ज़हन में शब्द बजने लगे-समीप ? आँगन में ? परन्तु कहाँ ? फिर उस ने खीझ के स्वर में पूछा -" कहाँ है आँगन में कुआँ ? तुम फिर एक झूठ मुझ से बोल रहे हो ।"
उस ने कमरे में से बहुत जल्दी बेलचा उठाया और मलबे के ढ़ेर के पास जा कर एक ओर से मलबा हटाने लगा और बवंडर आदमी देखने लगा । कुछ ही देर में वह कुएं कि मुंडेर देख कर हैरान रह गया ।
" तुम अब हैरानी छोड़ो और मलबा हटाओ । मुझे विश्वास है कि यही कुआँ है जो तुम्हारे सारे सवालों के जवाब तुम्हे दे देगा ।"
वह मलबा हटाने में इतना व्यस्त हो गया कि उसे पता ही न चला कि कब वह बगोलानुमा आदमी वहां से चला गया था ।
वह मलबा हटाने लगा और ग्लानि से भरने लगा । आँगन में मलबा बिखरने लगा । कितना कुछ टूटा फूटा था । फूटे जंगआलूद टीन, कनस्तर,फूटे जर्जर होते पहनने के कपड़े, वास्कट के बटनों कि पट्टी, जूते के तस्मे, चप्लियों के स्ट्रैप, धागों की खाली रीलें, मूंज की गली-सड़ी रस्सियाँ, मग - कप, टूटी कित्लियाँ और असंख्य बर्तनों और स्टोवों के अवशेष । उसे मलबा हटते हुए लग रहा था, वे सब वस्तुएं नई हो कर उस के सामने आ रही हैं । एक एक वस्तु एक लम्बी दास्तान, एक लम्बा इतिहास अपने पीछे लिए हुए थीं । अब मलबा खुश्क न रहा था और धूल कम थी । कुछ कुछ नमीं आती जा रही थी और मलबे में से पदार्थ तत्व और वस्तुएं निकालने में आनंद आ रहा था ।
अब वह दिन भर मलबा हटाता और रात को मलबा हटाने के बारे में सोचता । कहीं आँख लग जाती तो हड़बड़ा कर उठ पड़ता । किसी किसी समय बड़े विचित्र से प्रश्न मस्तिष्क में आ घुसते और उसे परेशान करते । कभी कभी उसे एक औरत की आवाज़ सुनाई देती - " आदमी बड़ा विचित्र प्राणी है । अच्छे भले जवाबों को प्रश्न बनाता है फिर परेशान होता है । वरना जीवन में प्रश्न तो हैं ही नहीं । जीवन में प्रेम है । जीवन प्रेम है परन्तु प्रेम तो उत्तर है प्रश्न नहीं ? और वह सोचता हुआ सर को झटक देता और भीतर भीतर ही जवाब दे डालता-" आँखें बंद कर लेने से पर्वत आगे से नहीं हट जाता।प्रश्न तो हैं । बहुत हैं । परन्तु लोग मानते नहीं । प्रश्न को स्वीकार नहीं करते ।वह भी नहीं करता था । यदि आदमी प्रश्न को स्वीकार कर ले तो वह एक दायित्व अपने अपर ले लेता है ।
अब कुआँ कुछ गहरा हो चला था । उस ने बांस की पकड़ बाँध कर, मजबूत रस्सी की सीढ़ी बना ली और एक एक पोरी कुएं में छोडता जाता था । अब उसे और भी सतर्क रहने और संभलने की चिंता थी । अब बहुत कुछ अजीब सा कुएं के मलबे से निकल रहा था । पुस्तकें मिल रही थीं । जिस की जिल्दों को नमीं नष्ट कर चुकी थी । आस पास के पन्ने भी तबाह हो चुके थे, होते जा रहे थे । लिखाबट बहुत सुंदर थी। परन्तु एक भाषा नहीं थी, कई एक भाषाएँ लगती थीं । कुछ एक भाषाओँ को वह जानता था और वह कह सकता था कि वह किताबें उस के पुरखों की थीं। बुजुर्गों की थीं । उस के अपने बड़े लोगों की पुस्तकें । कहीं आधा, कहीं एक तिहाई और कहीं पुस्तक और ग्रन्थ का एक एक कोना कहता था कि लिखने वाले त्रिकालदर्शी और सौंदर्य ज्ञान विज्ञान के ज्ञाता थे। कहीं किताबों के पन्नों पर अति सुंदर हाशिये, फुलकारी और मानव चित्र थे । पुस्तकों में भी कहीं सूर्य के धुंधले आकार, कहीं चन्द्र के मिटते आकार और उन्हें देख कर लगता था, फरिश्तों के चित्र हो सकते हैं ।
वह सभी कुछ झाड पोंछ कर और कुछ सुखा कर कमरे में रखने लगा था । उसे पुराने ग्रंथों और जीर्ण शीर्ण पुस्तकों से अव्यवस्थित तौर पर सजे कमरे को देख कर हैरानगी भी होती थे और प्रसन्नता भी । हैरानगी इस बात पर की उस ने ऐसे अनुपम पुस्तकें और ग्रन्थ मलबे में कैसे फेंक दिए ? क्यों फ़ेंक दिए ? और प्रसन्नता यूं होती की सारे ग्रन्थ और किताबें उसी के थे ।
ज्यों ज्यों कुआँ गहरा होता जाता था, वह नीचे उतरता जाता था, त्यों त्यों ही अनुपम और अति सुंदर पुरानी वस्तुएं हाथ आती जा रही थीं । कुछ पत्र थे जिन पर, दायें से बाएं कुछ लिखा था । कुछ एक पर बाएं से दायें और ऊपर से नीचे लिखा था । और वह हैरान था की कहीं कहीं किसी किसी फटते हुए पत्र पर अक्षरों के स्थल पर मानवाकार थे । जो भिन्न भिन्न संकेतों और चिन्हों को दर्शा रहे थे और उन से भी अधिक रुचिकर उसे लगे वाद्ययंत्र । टूटे फूटे जंग और नमीं से तवाह होते, जर्जर और क्षीण होते फूँक वाले वाद्ययंत्र । और विचित्र प्रकार से पीटे जाने वाले यंत्र ।
अब उस का छोटा सा शून्य, काटने को दौड़ता खाली कमरा भरने लगा था और वह अलग अलग विधा, आकार और स्वरुप की वस्तु को स्थान विशेष बना कर रख रहा था । मलबे में से जो सडे गले और जर्जर होते चित्र मिले, वह मिट रहे और समाप्त होते हुए चित्र भी मोहक और आकर्षक थे । परन्तु उन के तल, रंग और चौखटे भयंकर विधि से विनष्ट हो चुके थे । परन्तु फिर भी लगता था की चित्र अमूल्य होंगे और फिर, और भीतर से चेहरे मिले । धातु और काष्ठ के मुखौटे। फरिश्तों और देवतायों के जीर्ण शीर्ण मुखौटे । भगवन और शैतान के चेहरे । मुखौटे । कुछ भयानक, कुछ आकर्षक । राक्षस के, भय के, करुणा के. प्रेम और वीरता और श्रृंगार को दर्शाते फटे जीर्ण शीर्ण मुखौटे । किसी का मुकुट गल सड़ चुका था । किसी में नख शिख तबाह हो चुके थे । कहीं एक आँख नहीं थी तो कहीं दूसरा कान गायब था । एक दांत टूटा हुआ और दूसरा भयंकर । गले में अस्थियों की माला भी और रत्न, हीरा, पन्ना और लाल मोतियों की मालाएं भी ।
उसे न जाने क्यों, अनुभव हो रहा था की वह सारे चेहरे कभी पहन चुका है और चेहरे जो कुछ भी दर्शा रहे हैं वह सब कुछ भोग चुका है , बैसी ही अवधि काट चुका है । उसे लग रहा था कि समय तो कुछ है ही नहीं । वह स्वयं ही मलबा है. चित्र है, चेहरा और मुखौटा है । वाद्ययंत्र है । स्वयं ही बाँसुरी और शहनाई और बीन है । मृदंग भी वह स्वयं है और सभी जानी अनजानी भाषाओँ के समस्त ग्रन्थ वह स्वयं ही है । वह स्वयं कई बार हार चुका है और असंख्य बार जीत चुका है । वह जी चुका है और मर चुका है । कमरे में रखी जब भी किसी वस्तु को वह देखता तो लगता कि वह वस्तुनुमा मनुष्य है और मनुष्यनुमा वस्तु है ।
अब वह काफी भीतर था । नमीं और ठंडक और ख़ामोशी बढती जा रही थी । उस की आशा और आकांक्षा और प्रश्न सभी कुछ वृहत रूप धारण करते जा रहे थे । उसे अब कुएं में से मलबा हटाना संघर्ष जैसा नहीं लग रहा था । उसे लग रहा था कि कुएं में वह स्वयं गुम है और वह तलाश हो रहा है । उसी की खोज हो रही है और कमरे में जो कुछ भी उस ने संचयित किया है वह सब कुछ उस से गहरे से संबधित है ।
फिर उसे मूर्तियाँ मिलीं । छोटी बड़ी मूर्तियाँ । कांस्य कि मूर्तियाँ । तांबे और पीतल की सप्तधातु की मूर्तियाँ । मूर्तियाँ बहुत आकर्षक और कला का अत्युत्तम प्रदर्शन थीं ।
कुछ एक मूर्तियों को वह बहुत ध्यान से देखता रहा । सौंदर्य का सागर सी मूर्ति । सिर पर मुकुट। मुकुट पर म्यूर पंख । हाथ में, होंठ से लगी बाँसुरी । चैतन्य मुद्रा में । फिर सिर पर जटा का मुकुट । हाथ में धनुष बाण । कहीं नाग की शैय्या बना कर अर्द्धशयन मुद्रा में कोई अलौकिक देह । रण के लिए कटिबद्ध वीर और अश्वों को साधे सारथी । एक मूर्ति बहुत ही विचित्र लगी उसे । जटाजूट, भस्म अंग और चन्द्रभाल और साथ में नंदीगण पर स्वार कोमलांगी । बिलकुल लगता थी महारानी मातेश्वरी और चमत्कारी हाथी की सूंड वाला बालक गोद में । फिर आगे असंख्य मूर्तियाँ, भंगिमाएं, मुद्राएँ, क्रॉस पर कीलों से लटका एक महामानव । वृक्ष से बंधा तीर खाता और अपने पाँव के आबलों को देखता एक उन्मादी । एक सुंदर स्त्री । हाथ में वीणा । कँवल का आसन और म्यूर का श्रवण ।
इधर उस का कमरा लगभग भर गया । नए नए चमत्कारपूर्ण पदार्थों वस्तुयों से । सिक्कों से । जंगआलूद और जर्जर अस्त्र शस्त्रों, खड्गों, भालों, शमशीरों, तेगों तवरों और घोड़ों की मूर्तियों से और अब वह सो नहीं सकता था । रात को रखवाली और दिन को कुआँ । अब नमीं अत्याधिक हो रही थी । पानी ही निकल आने वाला था । दो ही चार दिनों में जब पानी ही पानी कुएं में हो कर फैल कर भरने लगा तो उस के अंतस की ख़ुशी की सीमा न रही । अब लक्ष्य समीप था । वह किसी भी समय प्रश्न पूछ सकता था और बगोलानुमा आदमी के कहने के अनुसार उसे प्रश्नों के उत्तर मिल सकते थे । इस सोच की ख़ुशी में वह स्वयं में एक उन्माद का अनुभव कर रहा था ।
परन्तु! जब उस ने सीढ़ी की पोर पानी तक गिराई और अंजुरी भर पानी लेना चाहा तो पानी में जाल था । जाल की तहें थीं जो पानी को उछलने और छलकने नहीं देती थीं । यह एक और विकट समस्या आ कर सामने खड़ी हो गयी थी । वह जाल को हटाना चाहता था । परन्तु कैसा भ्रम था कि जल का जाल था कि जाल ही जल बना हुआ था । एक बार तो वह हतोत्साहित हो गया और आशा की डोरी काटने को हो गया । परन्तु उस ने फिर सोचा, उस ने बहुत कुछ किया है । इतना संघर्ष और उपलब्धि भी कम नहीं है और अब यह अंतिम जाल । एक बार तो उसे अनुभव हुआ कि वह जाल उसे लक्ष्य से हटाने के लिए ही कुएं में फेंका गया है और वह उस के लक्ष्य के प्रति आंशिक विश्वास का भ्रम जाल है । यदि वह पूर्णरुपेन कुएं और उत्तर को समर्पित हो जाए तो यह जाल हट सकता है । परन्तु जाल, इतना विशालकाय, व्यापक जाल हते कैसे? फटे कैसे ? कटे कैसे ? उसे लगा उस जाल का काटना, फाड़ना और हटाना उस कि सामर्थ्य में नहीं है । वह केवल उसे निकाल कर आँगन और मुंडेर पर ड़ाल सकता है ।
अब वह जाल बाहर निकालने लगा और थकने लगा । परिश्रम और उत्साह जवाब देने लगे और जब उसे यह मानना पड़ गया कि उस जाल को हटाना उस के परिश्रम, उद्यम, संघर्ष और पौरुष के वश में नहीं है तो उस ने देखा कि जाल पूर्ण रुपेन बाहर आ चूका है और स्वच्छ, निर्मल, दर्पण सा उसे उस का रूप दिखा रहा है ।
और एक प्रात: वह कुएं कि मुंडेर पर खड़ा हुआ और यह परखने के लिए कि कुआँ बोलता है कि नहीं, उस ने ऊँचे स्वर में कहा -'मैं' । कुएं ने कहा 'मैं' । उस ने पांच सात बात 'मैं' कहा । कुएं ने 'मैं' को उछाल कर बाहर फ़ेंक दिया । कुएं पर काम करते हुए उसे प्रश्न कुछ भूल चुके थे । कुछ गुम हो चुके थे । उसे एक प्रश्न याद आया और वही वह कुएं से पूछना चाहता था । उस ने कुएं से धीरे से पुछा - " मैं कौन हूँ" ? कुएं ने धीरे से उत्तर दिया -" मैं कौन हूँ "? वह चिल्लाया -" मैं पूछ रहा हूँ मैं कौन हूँ " । कुआँ चिल्लाया - " मैं पूछ रहा हूँ मैं कौन हूँ " ।
वह कुएं कि मुंडेर पर बैठ गया और अपना चेहरा पानी में देखने लगा और उसे लगा कि उस के सभी प्रश्नों का उत्तर उसे मिल गया है ।
( डोगरी से लेखक द्वारा अनूदित- समकालीन भारतीय साहित्य वर्ष 11 अंक ४२ अक्टूबर -दिसम्बर १९९० में प्रकाशित )
ओ पी शर्मा "सारथी"
एक संध्या जब वह अपने प्रश्नों से घिरा, अपनी दहलीज पर खड़ा था कि तत्क्षण ही वह बवंडर जैसा आदमी उस के सामने आ खड़ा हुआ और सहानुभूति जताते हुए कहने लगा - "मुझे मालूम है, आदमी हांड-मांस का नहीं,प्रश्नों का बना हुआ है। बरबस प्रश्नों में से प्रश्न निकालता जाता है और प्रश्नों का अम्बार बना कर मर जाता है । परन्तु मैं अब ऐसा नहीं करता । मेरे प्रश्न समाप्त हो गए हैं ।"
" तुम ऐसा नहीं करते । तुम्हारे प्रश्न समाप्त ? आश्चर्य है । कैसे हुआ यह ?"
" मैं एक औरत से प्रेम करता था । ऐसा प्रेम कि मैं धड़ था और वह औरत मेरा सिर। अनंत प्रश्नों का भोझ जब मेरे सिर का हो कर धड़ दुखने लगा तो औरत ने मेरे तमाम प्रश्नों के उत्तर दे दिए !"
उत्तर सुन कर वह चकित रह गया । पूछा -"औरत ने उत्तर दे दिए?" तब वह बवंडर सा आदमी हँसा- " अरे नहीं । औरत ने उत्तर नहीं दिए । औरत ने उत्तर प्राप्त करने की तरकीब बता दी।" बात सुन कर वह उतावला हो गया और शीघ्र विधि बताने के लिए कहा - " मैं बहुत परेशान हूँ । मुझे भी तरकीब बताओ । औरत ने तुम्हे जो तरकीब बताई ! क्या तरकीब बताई थी ?"
उस ने बताया था, कुएं उत्तर देते हैं । हर प्रश्न का उत्तर मिल सकता है । बस कुआँ ढूँढना पड़ता है !"
पहले तो वह मज़ाक समझा । यह कहीं आत्घात की ओर इशारा तो नहीं कर रहा है । फिर गंभीर स्वर में उस ने पूछा- " तुम ने कुआँ ढूँढा ? तुम्हे मिला ? उत्तर भी मिले ?"
"हाँ । सब कुछ मिला । तभी तो अब बिलकुल खाली और बेफिक्र हो कर घूम रहा हूँ । तुम भी मुझे गले तक सवालों से भरे दिखाई देते हो । कुआँ तलाश करो । उत्तर पाओ और शांत हो जाओ ।" कह कर वह आदमी यह जा और वह जा ! उसे जब ध्यान आया तो कुछ ग्लानि सी हुई कि उस आदमी से बहुत कुछ पूछा जा सकता था । परन्तु उस ने एक अजीब सी बात की कि वह विमूढ़ सा, ठगा सा रह गया । उस के जाने के पश्चात उसे लगा कि जाते जाते वह आदमी से के ज़हन में एक फाँस सी अटका गया है कि कहीं कुएं होते हैं और वो प्रश्नों के उत्तर देते हैं । वो कुएं कहाँ होते हैं ? फिर उसे औरत का ध्यान भी आया कि उसे तो औरत ने रास्ता बताया था । शीघ्र ही उस ने इरादा कर लिया कि वह कुआँ तलाश करेगा और अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करेगा ?
उस ने अपने तिकोने पेट वाला सीलन भरा कमरा बंद किया और बलिश्त भर आँगन पर एक दृष्टि डाली और आँगन में एक और लगे मलबे के ढेर को भी देखा और बहार निकल गया।
अब वह गली-गली, गाँव-गाँव, बस्ती- बस्ती और द्वार- द्वार पूछता फिरा । ढूंढता फिरा । आगे आ जाने वाले हर शख्स से पूछा कि कुएं कहाँ हैं ? कुएं कहाँ होते हैं ? ऐसे कुएं कहाँ होते हैं जो आदमी के सभी सवालों के जवाब देते हैं ? जब कहीं पता न चला तो वह गुस्से से भरा बापिस आ गया और यह सोच कर अपने नाख़ून बढ़ाने लगा कि एक बार वह आदमी उसे मिल जाए तो वह उस का वध कर दे जिस ने उस से इतन बड़ा मज़ाक किया? उस के नाख़ून काफ़ी बढ़ गए परन्तु वह बवंडर आदमी नहीं मिला।
आदमी के साथ अक्सर एक दुखांत होता है । वह नाख़ून किसी और काम के लिए बढ़ाता है परन्तु उन से काम कुछ और ही करने पड़ते हैं । एक दिन वह उन्हीं नाखूनों से दीवार के पलस्तर को खरोंच रहा था कि अप्रत्याशित ही उस आदमी को सामने पा कर वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा रह गया । उसे सोचना पड़ा कि मारने का इरादा कर लेना कितना आसान है और सच ही मारना कितना कठिन । वह सोच ही रहा था कि उस बवंडर से आदमी ने हँसते हुए कहा -" बहुत दरबदर हुए हो ? कुआँ नहीं मिला ना? यही होना था । कहाँ मिलता। कुएं को तुम बाहर तलाश रहे थे और कुआँ तुम्हारे ही भीतर था। तुम्हारे समीप । तुम्हारे आँगन में ।"
वह लट्टू कि तरह घूम गया । बहुत तेज निगाह से इधर उधर देखा । ज़हन में शब्द बजने लगे-समीप ? आँगन में ? परन्तु कहाँ ? फिर उस ने खीझ के स्वर में पूछा -" कहाँ है आँगन में कुआँ ? तुम फिर एक झूठ मुझ से बोल रहे हो ।"
उस ने कमरे में से बहुत जल्दी बेलचा उठाया और मलबे के ढ़ेर के पास जा कर एक ओर से मलबा हटाने लगा और बवंडर आदमी देखने लगा । कुछ ही देर में वह कुएं कि मुंडेर देख कर हैरान रह गया ।
" तुम अब हैरानी छोड़ो और मलबा हटाओ । मुझे विश्वास है कि यही कुआँ है जो तुम्हारे सारे सवालों के जवाब तुम्हे दे देगा ।"
वह मलबा हटाने में इतना व्यस्त हो गया कि उसे पता ही न चला कि कब वह बगोलानुमा आदमी वहां से चला गया था ।
वह मलबा हटाने लगा और ग्लानि से भरने लगा । आँगन में मलबा बिखरने लगा । कितना कुछ टूटा फूटा था । फूटे जंगआलूद टीन, कनस्तर,फूटे जर्जर होते पहनने के कपड़े, वास्कट के बटनों कि पट्टी, जूते के तस्मे, चप्लियों के स्ट्रैप, धागों की खाली रीलें, मूंज की गली-सड़ी रस्सियाँ, मग - कप, टूटी कित्लियाँ और असंख्य बर्तनों और स्टोवों के अवशेष । उसे मलबा हटते हुए लग रहा था, वे सब वस्तुएं नई हो कर उस के सामने आ रही हैं । एक एक वस्तु एक लम्बी दास्तान, एक लम्बा इतिहास अपने पीछे लिए हुए थीं । अब मलबा खुश्क न रहा था और धूल कम थी । कुछ कुछ नमीं आती जा रही थी और मलबे में से पदार्थ तत्व और वस्तुएं निकालने में आनंद आ रहा था ।
अब वह दिन भर मलबा हटाता और रात को मलबा हटाने के बारे में सोचता । कहीं आँख लग जाती तो हड़बड़ा कर उठ पड़ता । किसी किसी समय बड़े विचित्र से प्रश्न मस्तिष्क में आ घुसते और उसे परेशान करते । कभी कभी उसे एक औरत की आवाज़ सुनाई देती - " आदमी बड़ा विचित्र प्राणी है । अच्छे भले जवाबों को प्रश्न बनाता है फिर परेशान होता है । वरना जीवन में प्रश्न तो हैं ही नहीं । जीवन में प्रेम है । जीवन प्रेम है परन्तु प्रेम तो उत्तर है प्रश्न नहीं ? और वह सोचता हुआ सर को झटक देता और भीतर भीतर ही जवाब दे डालता-" आँखें बंद कर लेने से पर्वत आगे से नहीं हट जाता।प्रश्न तो हैं । बहुत हैं । परन्तु लोग मानते नहीं । प्रश्न को स्वीकार नहीं करते ।वह भी नहीं करता था । यदि आदमी प्रश्न को स्वीकार कर ले तो वह एक दायित्व अपने अपर ले लेता है ।
अब कुआँ कुछ गहरा हो चला था । उस ने बांस की पकड़ बाँध कर, मजबूत रस्सी की सीढ़ी बना ली और एक एक पोरी कुएं में छोडता जाता था । अब उसे और भी सतर्क रहने और संभलने की चिंता थी । अब बहुत कुछ अजीब सा कुएं के मलबे से निकल रहा था । पुस्तकें मिल रही थीं । जिस की जिल्दों को नमीं नष्ट कर चुकी थी । आस पास के पन्ने भी तबाह हो चुके थे, होते जा रहे थे । लिखाबट बहुत सुंदर थी। परन्तु एक भाषा नहीं थी, कई एक भाषाएँ लगती थीं । कुछ एक भाषाओँ को वह जानता था और वह कह सकता था कि वह किताबें उस के पुरखों की थीं। बुजुर्गों की थीं । उस के अपने बड़े लोगों की पुस्तकें । कहीं आधा, कहीं एक तिहाई और कहीं पुस्तक और ग्रन्थ का एक एक कोना कहता था कि लिखने वाले त्रिकालदर्शी और सौंदर्य ज्ञान विज्ञान के ज्ञाता थे। कहीं किताबों के पन्नों पर अति सुंदर हाशिये, फुलकारी और मानव चित्र थे । पुस्तकों में भी कहीं सूर्य के धुंधले आकार, कहीं चन्द्र के मिटते आकार और उन्हें देख कर लगता था, फरिश्तों के चित्र हो सकते हैं ।
वह सभी कुछ झाड पोंछ कर और कुछ सुखा कर कमरे में रखने लगा था । उसे पुराने ग्रंथों और जीर्ण शीर्ण पुस्तकों से अव्यवस्थित तौर पर सजे कमरे को देख कर हैरानगी भी होती थे और प्रसन्नता भी । हैरानगी इस बात पर की उस ने ऐसे अनुपम पुस्तकें और ग्रन्थ मलबे में कैसे फेंक दिए ? क्यों फ़ेंक दिए ? और प्रसन्नता यूं होती की सारे ग्रन्थ और किताबें उसी के थे ।
ज्यों ज्यों कुआँ गहरा होता जाता था, वह नीचे उतरता जाता था, त्यों त्यों ही अनुपम और अति सुंदर पुरानी वस्तुएं हाथ आती जा रही थीं । कुछ पत्र थे जिन पर, दायें से बाएं कुछ लिखा था । कुछ एक पर बाएं से दायें और ऊपर से नीचे लिखा था । और वह हैरान था की कहीं कहीं किसी किसी फटते हुए पत्र पर अक्षरों के स्थल पर मानवाकार थे । जो भिन्न भिन्न संकेतों और चिन्हों को दर्शा रहे थे और उन से भी अधिक रुचिकर उसे लगे वाद्ययंत्र । टूटे फूटे जंग और नमीं से तवाह होते, जर्जर और क्षीण होते फूँक वाले वाद्ययंत्र । और विचित्र प्रकार से पीटे जाने वाले यंत्र ।
अब उस का छोटा सा शून्य, काटने को दौड़ता खाली कमरा भरने लगा था और वह अलग अलग विधा, आकार और स्वरुप की वस्तु को स्थान विशेष बना कर रख रहा था । मलबे में से जो सडे गले और जर्जर होते चित्र मिले, वह मिट रहे और समाप्त होते हुए चित्र भी मोहक और आकर्षक थे । परन्तु उन के तल, रंग और चौखटे भयंकर विधि से विनष्ट हो चुके थे । परन्तु फिर भी लगता था की चित्र अमूल्य होंगे और फिर, और भीतर से चेहरे मिले । धातु और काष्ठ के मुखौटे। फरिश्तों और देवतायों के जीर्ण शीर्ण मुखौटे । भगवन और शैतान के चेहरे । मुखौटे । कुछ भयानक, कुछ आकर्षक । राक्षस के, भय के, करुणा के. प्रेम और वीरता और श्रृंगार को दर्शाते फटे जीर्ण शीर्ण मुखौटे । किसी का मुकुट गल सड़ चुका था । किसी में नख शिख तबाह हो चुके थे । कहीं एक आँख नहीं थी तो कहीं दूसरा कान गायब था । एक दांत टूटा हुआ और दूसरा भयंकर । गले में अस्थियों की माला भी और रत्न, हीरा, पन्ना और लाल मोतियों की मालाएं भी ।
उसे न जाने क्यों, अनुभव हो रहा था की वह सारे चेहरे कभी पहन चुका है और चेहरे जो कुछ भी दर्शा रहे हैं वह सब कुछ भोग चुका है , बैसी ही अवधि काट चुका है । उसे लग रहा था कि समय तो कुछ है ही नहीं । वह स्वयं ही मलबा है. चित्र है, चेहरा और मुखौटा है । वाद्ययंत्र है । स्वयं ही बाँसुरी और शहनाई और बीन है । मृदंग भी वह स्वयं है और सभी जानी अनजानी भाषाओँ के समस्त ग्रन्थ वह स्वयं ही है । वह स्वयं कई बार हार चुका है और असंख्य बार जीत चुका है । वह जी चुका है और मर चुका है । कमरे में रखी जब भी किसी वस्तु को वह देखता तो लगता कि वह वस्तुनुमा मनुष्य है और मनुष्यनुमा वस्तु है ।
अब वह काफी भीतर था । नमीं और ठंडक और ख़ामोशी बढती जा रही थी । उस की आशा और आकांक्षा और प्रश्न सभी कुछ वृहत रूप धारण करते जा रहे थे । उसे अब कुएं में से मलबा हटाना संघर्ष जैसा नहीं लग रहा था । उसे लग रहा था कि कुएं में वह स्वयं गुम है और वह तलाश हो रहा है । उसी की खोज हो रही है और कमरे में जो कुछ भी उस ने संचयित किया है वह सब कुछ उस से गहरे से संबधित है ।
फिर उसे मूर्तियाँ मिलीं । छोटी बड़ी मूर्तियाँ । कांस्य कि मूर्तियाँ । तांबे और पीतल की सप्तधातु की मूर्तियाँ । मूर्तियाँ बहुत आकर्षक और कला का अत्युत्तम प्रदर्शन थीं ।
कुछ एक मूर्तियों को वह बहुत ध्यान से देखता रहा । सौंदर्य का सागर सी मूर्ति । सिर पर मुकुट। मुकुट पर म्यूर पंख । हाथ में, होंठ से लगी बाँसुरी । चैतन्य मुद्रा में । फिर सिर पर जटा का मुकुट । हाथ में धनुष बाण । कहीं नाग की शैय्या बना कर अर्द्धशयन मुद्रा में कोई अलौकिक देह । रण के लिए कटिबद्ध वीर और अश्वों को साधे सारथी । एक मूर्ति बहुत ही विचित्र लगी उसे । जटाजूट, भस्म अंग और चन्द्रभाल और साथ में नंदीगण पर स्वार कोमलांगी । बिलकुल लगता थी महारानी मातेश्वरी और चमत्कारी हाथी की सूंड वाला बालक गोद में । फिर आगे असंख्य मूर्तियाँ, भंगिमाएं, मुद्राएँ, क्रॉस पर कीलों से लटका एक महामानव । वृक्ष से बंधा तीर खाता और अपने पाँव के आबलों को देखता एक उन्मादी । एक सुंदर स्त्री । हाथ में वीणा । कँवल का आसन और म्यूर का श्रवण ।
इधर उस का कमरा लगभग भर गया । नए नए चमत्कारपूर्ण पदार्थों वस्तुयों से । सिक्कों से । जंगआलूद और जर्जर अस्त्र शस्त्रों, खड्गों, भालों, शमशीरों, तेगों तवरों और घोड़ों की मूर्तियों से और अब वह सो नहीं सकता था । रात को रखवाली और दिन को कुआँ । अब नमीं अत्याधिक हो रही थी । पानी ही निकल आने वाला था । दो ही चार दिनों में जब पानी ही पानी कुएं में हो कर फैल कर भरने लगा तो उस के अंतस की ख़ुशी की सीमा न रही । अब लक्ष्य समीप था । वह किसी भी समय प्रश्न पूछ सकता था और बगोलानुमा आदमी के कहने के अनुसार उसे प्रश्नों के उत्तर मिल सकते थे । इस सोच की ख़ुशी में वह स्वयं में एक उन्माद का अनुभव कर रहा था ।
परन्तु! जब उस ने सीढ़ी की पोर पानी तक गिराई और अंजुरी भर पानी लेना चाहा तो पानी में जाल था । जाल की तहें थीं जो पानी को उछलने और छलकने नहीं देती थीं । यह एक और विकट समस्या आ कर सामने खड़ी हो गयी थी । वह जाल को हटाना चाहता था । परन्तु कैसा भ्रम था कि जल का जाल था कि जाल ही जल बना हुआ था । एक बार तो वह हतोत्साहित हो गया और आशा की डोरी काटने को हो गया । परन्तु उस ने फिर सोचा, उस ने बहुत कुछ किया है । इतना संघर्ष और उपलब्धि भी कम नहीं है और अब यह अंतिम जाल । एक बार तो उसे अनुभव हुआ कि वह जाल उसे लक्ष्य से हटाने के लिए ही कुएं में फेंका गया है और वह उस के लक्ष्य के प्रति आंशिक विश्वास का भ्रम जाल है । यदि वह पूर्णरुपेन कुएं और उत्तर को समर्पित हो जाए तो यह जाल हट सकता है । परन्तु जाल, इतना विशालकाय, व्यापक जाल हते कैसे? फटे कैसे ? कटे कैसे ? उसे लगा उस जाल का काटना, फाड़ना और हटाना उस कि सामर्थ्य में नहीं है । वह केवल उसे निकाल कर आँगन और मुंडेर पर ड़ाल सकता है ।
अब वह जाल बाहर निकालने लगा और थकने लगा । परिश्रम और उत्साह जवाब देने लगे और जब उसे यह मानना पड़ गया कि उस जाल को हटाना उस के परिश्रम, उद्यम, संघर्ष और पौरुष के वश में नहीं है तो उस ने देखा कि जाल पूर्ण रुपेन बाहर आ चूका है और स्वच्छ, निर्मल, दर्पण सा उसे उस का रूप दिखा रहा है ।
और एक प्रात: वह कुएं कि मुंडेर पर खड़ा हुआ और यह परखने के लिए कि कुआँ बोलता है कि नहीं, उस ने ऊँचे स्वर में कहा -'मैं' । कुएं ने कहा 'मैं' । उस ने पांच सात बात 'मैं' कहा । कुएं ने 'मैं' को उछाल कर बाहर फ़ेंक दिया । कुएं पर काम करते हुए उसे प्रश्न कुछ भूल चुके थे । कुछ गुम हो चुके थे । उसे एक प्रश्न याद आया और वही वह कुएं से पूछना चाहता था । उस ने कुएं से धीरे से पुछा - " मैं कौन हूँ" ? कुएं ने धीरे से उत्तर दिया -" मैं कौन हूँ "? वह चिल्लाया -" मैं पूछ रहा हूँ मैं कौन हूँ " । कुआँ चिल्लाया - " मैं पूछ रहा हूँ मैं कौन हूँ " ।
वह कुएं कि मुंडेर पर बैठ गया और अपना चेहरा पानी में देखने लगा और उसे लगा कि उस के सभी प्रश्नों का उत्तर उसे मिल गया है ।
( डोगरी से लेखक द्वारा अनूदित- समकालीन भारतीय साहित्य वर्ष 11 अंक ४२ अक्टूबर -दिसम्बर १९९० में प्रकाशित )
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