Sunday, 17 March 2013
Wednesday, 13 March 2013
भय (कहानी )
श्री ओ पी शर्मा सारथी
मैं उसका किराएदार था और वह मेरा मकान मालिक । कहने भर के लिए वह मकान था
परन्तु देखने और रहने के लिए किसी खोली से भी गया गुज़रा । मैं वहां शायद
एक दिन भी नहीं काट सकता था परन्तु उस को देखते हुए मुझे खुद पर रश्क आया
। सोचा मकान मालिक की यह हालत है तो मेरी तो इस से बेह्तर है । मैं दिन
काटने और रातें गुज़ारने लगा । मुहे खुद पर बड़ी हैरानी होती जब कभी वह
तिकोना सा सीलन भरा कमरा मुझे बड़ा शांत, सुखमय और गनीमत महसूस होता पर कभी
लगता अभी इसी क्षण खड़े खड़े ही कमरे का त्याग कर दूं ।
दो बराबर
के सांझी दीवारों वाले कमरे थे । एक में वह स्वयं सिर छुपा कर रह रहा था
और दुसरे में मैं टिका हुआ था । सामने एक कमरा था । उस के कथनानुसार वह
कमरा भी उस के पूर्वजों की विरासत थी । मैं बहुत बार महसूस करता की वह आते
जाते उस कमरे को, उस के द्वार को, द्वार पर जड़े ताले को ज़रूर रुक कर
देखता था ।
बहुत बार मेरे भीतर यह उम्मीद जागी कि वह उस द्वार को
खोल देगा पर यह चमत्कार कभी नहीं घटा । मैं तो यह चाहता था कि वह सामने
वाला कमरा खोल कर मुझे कहे यहाँ रहो । मैं कहने को भी हुआ कि खोल दे ।
स्वभाव का अधिक कर्कश होने के कारण उस के माथे पर पड़ी सिलबटें कुछ गहरी
होती गयी थी । मैंने उसी मुस्कुराते हुए कभी नहीं देखा था । कभी गुनगुनाते
हुए, कुछ बजाते हुए, कुछ बुदबुदाते हुए कभी नहीं सुना था । शायद इसीलिए घर
के लिए वह भय पैदा करने वाला पात्र बन गया था ।
एक रोज़ यूं ही
गुज़रते हुए उस ने हाल चाल पूछा। ठीक चल रहा है मैंने संक्षिप्त सा उत्तर
दिया । उस ने बातों में कुछ नम्रता लाते हुए कहा- यह तुम्हारे लिए एक
आश्चर्य जनक बात है कि मेरी घरवाली कहती है कि वह तुम्हे नहीं जानती । मैं
बहुत डर गया सोचा कहीं कोई भूल चूक तो नहीं हो गयी । आदमी सख्त है । मैंने
फिर संक्षिप्त सा उत्तर दिया - मुझे मात्र दिन काटने से वास्ता है । और
किसी के साथ कुछ नहीं ।
उस के होंठों पर बिजली सी मुस्कान दिखी,
साथ ही माथे की सिलबटें और घनी हो गयीं । मैंने उसे कहा- स्वामीजी, मेरा
मतलब है मालिक जी, आप के कहने के मुताबिक यह सामने वाला कमरा भी आप का है,
इसे खोलें । उस ने बिना समय गवाए बात काटी - क्या सोच रहे हो कि खोलूं ।
पर तुम्हारे होते नहीं खोलूँगा । मुझे बताया गया है कि कमरें में बहुत माल
भत्ता है ।
आप कमरा खोलें । मैं अभी इसी पल आप का यह महल छोड़े
जाता हूँ । और साथ ही मैं अर्ज़ करूँ कि मैं चोर अचक्का नहीं हूँ । .....
मैं...... मैं एक साधू आदमी हूँ ।
उस के चेहरे पर भाव कौन से कैसे
थे, मैं कभी भी पढ़ नहीं था सका । न ही उस समय पढ़े जा सके । मैंने जोर दे
कर कहा - हिम्मत करो और खोल दो इसे।
-खोल दूं? उस ने पूछा ।
-करो
कोशिश । दोनों सुखी हो जायेंगे- मैंने कहा ।
बड़े रौब दाब के साथ वह
अपने टूटे फूटे कमरे में गया । मुझे लगा की चाबी लाने गया है । मैं इंतज़ार
कर रहा था कि उस के भीतर से आक्रोश भरे स्वर में भला बुरा कहने कि आवाज़
आने लगी । एक आवाज़ उस के भीतर से साफ़ सुनाई दे रही थी कि चाबी गुम नहीं
हुई। लापरबाही से गुम कर दी गई है । रोज़ हो सोच आती थी कि एक दिन खोलूँगा
जो कुछ निकलेगा वह पहले जैसा तो नहीं होगा । आज किरायेदार ने जोर भरा तो
प्रण किया कि खोल दूंगा तो चाबी गायब । कुछ ही पलों में वह चुपचाप बाहर चला
गया । हाथ में जंग लगी पुरानी घिसी सी चाबी ले कर मुझे उस ने बड़े नर्म
लहजे में पुछा - मित्र तुम ने साहस बंधाया है पर चाबी ही नहीं मिल रही । एक
पुराने संदूक के नीचे चिपकी हुई थी, मिल गई है । तुम भी मेरे साथ आयो तो
देखें ताले को ।
मैं हैरान भी हुआ । उस का स्वभाव एकदम इतना बदल
कैसा गया है। उस ने ताले को चाबी लगाई। पहले तो चाबी लगी ही नहीं । चाबी
जैसे ही ताले के अन्दर घुसी तो उसे राहत मिली । उस ने चाबी बाहर खींच ली और
मुझे मिन्नत भरे स्वर में कहने लगा - यार हिम्मत नहीं हो रही । खोलते हुए
डर लग रहा है ।
मैं सुन कर सुन्न सा हो गया - यह आदमी अक्रामक हाव भाव
और माथे कि सिलवटों से लदा हुआ, क्या कह रहा है - कह रहा है, डर लगता है ।
- मालिक जी आप का कमरा, आप की चाबी,आप का माल भत्ता - डर कैसा ? मैंने बड़े
गंभीर लहजे में कहा, बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोक कर ।
-यार क्या खाक
मालिक जी ।-- मेरा तो रोम रोम काँप रहा है । जाने अन्दर क्या हो ? क्या
निकले ? क्या न निकले ? कुछ मिले न मिले? बैसे बंद है तो भ्रम बना हुआ है ।
कहते भी हैं कि बंद मुट्ठी का भ्रम अच्छा ।
अपने भीतर मुझे धूप और हवा
इकट्ठे महसूस हुए । यह आदमी तो मिट्टी का माधो निकला । गोबर का मकान ।
भालू की दीवार और दिखावा फौलादी किले सा । फिर अचानक मुझे अपने दिन याद हो
आये । मैं भी सूरमा होता था, दिखाबटी सूरमा ।
अक्षण मुझे एक फार्मूला
मिला । जिस का सूरमापन भंग करना हो उसे कहना चाहिए कमरा खोले । एक दम
मैंने वर्तमान में आ कर उसे कहा -आप ने या आप की किसी पीढ़ी ने यह स्थान
खोलना और उस पर आधिपत्य जमाना है । होना यह चाहिए था कि यह पहले से खुला
होता ।
नहीं, मैं समझ गया । बिना खोले ही यदि काम चलता है तो फिर
क्यों मुसीबत मौल ली जाए । चाबी संभाले रखो, बस । खाओ पीओ और चलते बनो ।
सभी ने शायद यही किया हो । उस ने खुद को आश्वासन देते हुए कहा ।
मालिक
जी, ताला खोलो, मैंने कहा । तो झट ही उस ने शर्त बाँधी - पहले तुम्हे आगे
होना पड़ेगा ।
विचित्र बात है । अन्दर आप का , मालिक आप आगे मैं चलूँगा ?
चलो यदि मैं चला भी तो आप को यदि व्यौरा दूंगा या सुनाऊंगा, तो आप झूट
मानोगे । इस लिए आप ही आगे चलो -मैंने कहा ।
नहीं, तुम जो कुछ कहोगे
मैं मान लूँगा, पर पहले तुम। मुझे डर लगता है ।
जो कुछ अन्दर है मालिक
जी वह मैं आप को अब भी सुना सकता हूँ ।
-सुनाता क्यों नहीं कि इस कमरे
में क्या है । उस ने कुछ जोर से कहा।
-आप ने और डर जाना है, आप खुद
ही देखो ।
- आखिर मालिक साहिब ने जोर लगाया । ताले को बहुत जंग लगा हुआ
था । खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था । मालिक ने चाबी को बुरा भला कहा और
चाबी को दूर दे मारा।
-यार, ताला तोड़ते हैं ।
-ज़रूर तोड़ो
स्वामीजी, मैंने कहा।
उस ने पत्थर नीचे रखा और उप्पर से पत्थर दे मारा ।
ताले के तीन हिस्से दूर जा पड़े । .. हाँ पत्थर ही गुरु है बिगड़े हुओं का ।
उस ने कहा और सांकल खोली ।
दरवाज़े को जोर लगाया । द्वार चिल्लाया । और
जोर लगाया तो द्वार में बनी दरार से अजीब सी गंध आई । मैंने मालिक
साहिब के किरायेदार के नाते मदद की। एक द्वार पूरी तरह से खुल गया है वे
देखते रह गये। आवाक हो गए । उन के मुंह से निकला- इतना अँधेरा । इतना
अन्धकार । हे मालिक! इतना अन्धकार । फिर उन्हें अहसास हुआ की मैं भी पास
खड़ा हूँ । उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया -यार इतना अँधेरा ।
- काला
स्याह । अन्दर क्यों और कैसे जाना ।
-जाना है, ज़रूर जाना है । अन्दर
साफ़ करना है । पर एक फार्मूला मैं बताता हूँ । हम रोज़ अधिकतर लौ देखते हैं ।
लौ में रहते हैं । लौ को प्रयोग में लाते हैं । लौ को इस्तेमाल करते हैं।
इसलिए हमारी नज़र बाहर की लौ पर सीमित हो गई है । अँधेरे को किसी विशेष
सीमा तक ही देखती है । यह अँधेरा लौ का अँधेरा नहीं है, नज़र का अँधेरा है ।
सब्र करो ।
उन्होंने द्वार बंद कर दिए और गर्दन नीचे झुकाए पुराने
कमरे में आ गए । मुझे पहली बार अन्दर बिठाया । और कुछ ठहर कर ऐसे नज़रें
मिलाई जैसे मैं उन के सामने ही पैदा हो रहा था । फिर उन्होंने बड़े धन्यबादी
ढंग से कहा - अन्दर क्या है, मैं ज़रूर देखता हूँ ।
रात को मुझे आहट
सुनाई दी । मैं उठा, अँधेरे में मालिक की परछाई मैंने पहचान ली । उन्होंने
कहा- मैं दो कदम अन्दर गया, कितना कुछ पैरों से टकराया । मैं गिरते गिरते
बड़ी मुश्किल से संभला । पर तुम्हारा कहना शायद ठीक है । आदमी अभ्यास करे तो
अन्दर के अँधेरे में देख सकता है ।
मालिक जी को नई बात मिल गई कि
अँधेरे में दिखाई देता है । उस कमरे में रात दिन एक सा अँधेरा रहता था ।
मालिक जी शायद दिन रात कोशिश करने लगे । दिन रात अपने कमरे के अन्दर जा उसे
तलाशने लगे । फिर उन्होंने अन्दर के द्वार बंद कर लिए ।
एक रोज़ उन कि
घरवाली मेरे पास आई और बोली कई दिनों से वे अन्दर बंद हैं । कभी डर जाते
हैं । कभी हँसते हैं । कभी लौ लौ कह कर चिल्लाते हैं । कभी उन्हें आवाजें
सुनाई देतीं हैं । आज उन्होंने जोर से कहा - किरायेदार को रखने कि कोई
ज़रूरत नहीं है । वह किरायेदार नहीं है । उसे निकालो । मकान से निकालो । अब
तुम मकान छोड़ो और चलते बनो ।
( डोगरी कहानी संग्रह "यात्रा "
में प्रकशित गुरुदेव सारथी जी की डोगरी कहानी "त्राह" का हिंदी अनुवाद,
अनुवादक - कपिल अनिरुद्ध )
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