ग़ज़ल (गुरुदेव 'सारथी' जी )
किस को अवसर है समेटे मुझे आ कर कोई
मैं हूँ हारा हुआ बिखरा हुआ लश्कर कोई
मैं आकारण ही यहाँ फैल गया हूँ कैसा
मुझ को आकाश संभाले न समंदर कोई
मैं तो इक ग्रन्थ पुराना हूँ बुझे शब्दों का
मैं भी जागूँ जो उभारे मेरे अक्षर कोई
स्वप्न के खेत हैं और नींद के नगमों की फसील
आये इस शहर में किस ओर से दिनकर कोई
देखते देखते इस शहर का क्या हश्र हुआ
दूर तक धड़ है धड़ों पर नहीं है सर कोई
यूं हकारत से न देखो मैं नहीं कोई खुदा
प्यार की भूख हूँ भर दे मुझे घर घर कोई
'सारथी' कान खड़े हैं यहाँ दीवारों के
बात कहने के लिए ढूँढ लो अवसर कोई