Sunday, 29 June 2014
गुरुदेव के काव्य संग्रह मरुस्थल से उदृत एक कविता
यह भी लगा था एक बार
हर काम का चेहरा बट गया है
हर खोपड़ी का बोझ छट गया है
हर टांग का बोझ हट गया है
जो कुछ जैसे होना है हो रहा है
परन्तु लोगों की यात्रा की आँखों ने देखा
सौंदर्य से लबालव भरे हाथ पाँव द्वारा
भयानक बनते चेहरे कामों के
और देखा सड़क की खुली आँखों ने भी
भयानक हाथ पाँव और चेहरों द्वारा
सौंदर्य से लबालव भरे काम
तुम्हारे समीप
सुन्दर हाथ पाँव टांग का होना
रहा है सुन्दर कार्य का प्रतीक
मेरे समीप
हाथ पाँव टांग और श्रम
चरम सीमा रहे हैं स्वयं में सौंदर्य की
यही क्रम रहा है
यही भ्रम रहा है
निर्णय नहीं किया हम ने
रौशनी और अँधेरे का
वरना मुझे बोध है
कभी कभी सभी कुछ गुम करता हुआ अँधेरा
रौशनी से बहुत आगे का कार्य कर
रौशनी से बहुत आगे हो जाता है
यह भी है मुझे एहसास
रौशनी बहुत पीछे हट कर
अँधेरे के साथ सट कर
दूर तक पीछे का अँधेरा बन जाती है
(गुरुदेव 'सारथी' जी के काव्य संग्रह 'मरुस्थल' से उदृत )
हर काम का चेहरा बट गया है
हर खोपड़ी का बोझ छट गया है
हर टांग का बोझ हट गया है
जो कुछ जैसे होना है हो रहा है
परन्तु लोगों की यात्रा की आँखों ने देखा
सौंदर्य से लबालव भरे हाथ पाँव द्वारा
भयानक बनते चेहरे कामों के
और देखा सड़क की खुली आँखों ने भी
भयानक हाथ पाँव और चेहरों द्वारा
सौंदर्य से लबालव भरे काम
तुम्हारे समीप
सुन्दर हाथ पाँव टांग का होना
रहा है सुन्दर कार्य का प्रतीक
मेरे समीप
हाथ पाँव टांग और श्रम
चरम सीमा रहे हैं स्वयं में सौंदर्य की
यही क्रम रहा है
यही भ्रम रहा है
निर्णय नहीं किया हम ने
रौशनी और अँधेरे का
वरना मुझे बोध है
कभी कभी सभी कुछ गुम करता हुआ अँधेरा
रौशनी से बहुत आगे का कार्य कर
रौशनी से बहुत आगे हो जाता है
यह भी है मुझे एहसास
रौशनी बहुत पीछे हट कर
अँधेरे के साथ सट कर
दूर तक पीछे का अँधेरा बन जाती है
(गुरुदेव 'सारथी' जी के काव्य संग्रह 'मरुस्थल' से उदृत )
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