सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Tuesday, 28 June 2016

ग़ज़ल (गुरुदेव सारथी जी)

दर बदर जिस के लिए था मेरे अंदर निकला
मैं तो क़तरा जिसे समझा था समंदर निकला
दाग इन्साफ के चेहरे से मैं धोता कैसे
एक इक ज़ख्म था गहरा के समंदर निकला
वो परेशान हुए दर्द का दामां कर के
नाचता झूमता जब दर्द का लश्कर निकला
मैं तो समझा था जिन्हें दोस्त मसीहा निकले
कद जो एक का था एक से बढ़ कर निकला
जान देने के लिए जान पे बन आई थी
ज़िक्र मकतल का हुआ और वह सज कर निकला