सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Tuesday, 28 June 2016

ग़ज़ल (गुरुदेव सारथी जी)

दर बदर जिस के लिए था मेरे अंदर निकला
मैं तो क़तरा जिसे समझा था समंदर निकला
दाग इन्साफ के चेहरे से मैं धोता कैसे
एक इक ज़ख्म था गहरा के समंदर निकला
वो परेशान हुए दर्द का दामां कर के
नाचता झूमता जब दर्द का लश्कर निकला
मैं तो समझा था जिन्हें दोस्त मसीहा निकले
कद जो एक का था एक से बढ़ कर निकला
जान देने के लिए जान पे बन आई थी
ज़िक्र मकतल का हुआ और वह सज कर निकला

Friday, 11 March 2016

---धरती का गीत ---रचनाकार --- गुरुदेव (डा.) ओ. पी .शर्मा "सारथी"
अगर तुम ज़मीं को ही माँ मानते हो
तभी जिंदा रहने की सूरत बनेगी
अगर सर की कीमत है मालूम तुम को
तभी शान से तुम सभी जी सकोगे
नहीं आदमी कोई बेबस खिलौना
नहीं ज़िन्दगी कोई सपना या जादू
अगर दिल की फितरत हो आज़ाद रहना
तभी सब की आज़ाद मूरत बनेगी
अगर तुम ज़मीं को..........................
जो तुम चाहते हो कि ईश्वर को पांएँ
जो तुम चाहते हो कि मुक्ति को पांएँ
संवारो सभी मिल के धरती की किस्मत
जो धरती बनेगी तो किस्मत बनेगी
अगर तुम ज़मीं को..........................
ज़मीं पर ही ज़न्नत है अब मान लो तुम
वतन ज़िन्दगी है यह अब जान लो तुम
ज़मीन को बचालो वतन को संभालो
तो सब के लिए एक दौलत बनेगी
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