श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (55) – कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
सागर की कहानी (55) – कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
नंगा रूक्ख की शुरुआत कुछ इस प्रकार होती है- ”वह कोई शिव नहीं था। वह एक रचनाकार था। परन्तु उसे भी विष पीना पड़ा।“ सुरों एवं असुरों द्वारा किये समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से सब परिचित हैं। सब जानते हैं जगत कल्याण हेतु समुद्र में से निकलने वाले विष को शिव ने अपने कण्ठ में धारण किया था। परन्तु क्या रचनाकार को भी विष पीना पड़ता है। नंगा रूक्ख इसी प्रश्न का उत्तर देता प्रतीत होता है।
समुद्र मंथन में से विष और अमृत दोनों निकले थे परन्तु नगर मंथन में से दुख, पीड़ा, वेदना, आघात, धुखन, विलाप और किरचों के सिवाए कुछ भी निकलता नज़र नहीं आता। नगर मंथन में से निकलने वाली बस्तुओं का विवरण उपन्यासकार ने कुछ इस प्रकार दिया है। - ”आंखों में सूरज की किरणों की लौ के स्थान पर लोभ और काम की धुखन, मुँह में मीठी जुबान के स्थान पर दो धारी बरछियां, बोलों के स्थान पर किरचें, हाथों के स्थान पर बेलचे और टांगों के स्थान पर स्वार्थ की बैसाखियां।”
अब उपन्यास के अन्तिम वाक्य को देखिये- ”दोनों चल पड़े उस सड़क पर जो सब की थी पर जिस का कोई नहीं था। जो सब को मिलाती थी परन्तु स्वयं अकेली थी।” सूक्ष्मता से सोचा जाये तो उपन्यास का अन्तिम वाक्य भी नगर के, नगर की सड़क के दर्द को उजागर करता है।
नंगा रूक्ख उपन्यास में सारथी जी ने नगर रूपी मुख्य पात्र की पीड़ा, वेदना, उस के शोषण और नगर तथा नगरबासयिों के उत्पीड़न एवं नगर रूपी मुक्ख पात्र के रोने, चिल्लाने तथा विलाप के स्वर को ही शब्द दिये हैं। पाठक को लगता है वह अपने ही नगर के शोषण एवं उत्पीड़न की एक चित्र प्रदर्शनी देख रहा है। इस चित्र प्रदर्शनी को देख पाठक को एक झटका सा लगता है और उस के भीतर एक विद्रोही मानव जन्म लेने लगता है।
नंगा रूक्ख का लेखक समाज के यथार्थ की ऐसी तस्बीर पेश करता है जिसे देख कर पाठक उत्तेजित हो समाज को बदल देना चाहता है पर समाधान के तौर पर सारथी जी सर्वप्रथम स्वयं के परिवर्तन की बात करते हैं। पाठक को लगा आघात आत्ममंथन एवं आत्मविश्लेषण में बदल जाता है।
उपन्यासकार ने उपन्यास में किसी भी पात्र को व्यक्ति वाचक संज्ञा नहीं दी है। किसी भी पात्र का कोई विशेष चरित्र चित्रण नहीं है। सभी पात्र प्रवृति के प्रतीक मात्र हैं। यही बात उन पात्रों को सार्वभौमिक बनाती है और लेखक उन बेनाम पात्रों के माध्यम से सभी के सांझे दुखों और तकलीफों को शब्द देता जाता है।
सारथी जी मिथक, प्रतीक और संकेतों का प्रयोग कर नंगे हो चुके नगर के प्रति हमारी सोई संवेदना को जगाते हैं। जनमानस नगर के दुख दर्द को समझे तथा उसे दूर करने हेतु पहले अपने आप को ठीक करे तथा फिर नगर के दुख दर्द को देर करने के लिए कमर कसे यही सारथी जी का ध्येय है।
जब राजनेता समाज को व्यवस्थित करने के स्थान पर अव्यवस्था फैला अपनी जेबें भरने लगें, जब धार्मिक संस्थान अनैतिक प्रवृतियों को बढ़ावा देने लगें, जब लोगों की समस्या के समाधान के स्थान पर हमारे मार्गदर्शक उन्हें खेल तमाशों में उलझाये रखें उस समय संवेदनशील लेखक व्यंग्य के अस्त्र द्वारा इन विकृतियों की चीर-फाड़ करता है, वह व्यंग्य और प्रतीकों की सहायता से वही दर्द पाठक में जगाता है जो वह स्वयं महसूस कर रहा होता है। ‘नंगा रुक्ख’ के लेखक ने अपने नगर के, जनसमूह के, इसी दर्द को अभिव्यक्त किया है।
जो पठन-पाठन को समय व्यतीत करने का साधन मानते हैं, उन के ध्येय की सिद्धी श्री सारथी जी की रचनाओं के द्वारा नहीं हो सकती। तिलस्मी, जासूसी, प्रेमपरक उपन्यासों के रसिकों के लिए भी उन का साहित्य नहीं बना। जो साहित्य को सब के हित का साधन मानते हैं, जो साहित्य के माध्यम से सामाजिक विकृतियों के मूल कारण को जानना चाहते हैं, जो एक मंच पर चढ़ कर अपने ही समाज का यथार्थ जानना चाहते हैं, आत्मविष्लेशण के पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं श्री सारथी जी का साहित्य उन्हीं लोगों के लिए हैं। संक्षेप में सजग एवं चिन्तनशील व्यक्तियों के लिए ही उन का साहित्य है।
समुद्र मंथन में से विष और अमृत दोनों निकले थे परन्तु नगर मंथन में से दुख, पीड़ा, वेदना, आघात, धुखन, विलाप और किरचों के सिवाए कुछ भी निकलता नज़र नहीं आता। नगर मंथन में से निकलने वाली बस्तुओं का विवरण उपन्यासकार ने कुछ इस प्रकार दिया है। - ”आंखों में सूरज की किरणों की लौ के स्थान पर लोभ और काम की धुखन, मुँह में मीठी जुबान के स्थान पर दो धारी बरछियां, बोलों के स्थान पर किरचें, हाथों के स्थान पर बेलचे और टांगों के स्थान पर स्वार्थ की बैसाखियां।”
अब उपन्यास के अन्तिम वाक्य को देखिये- ”दोनों चल पड़े उस सड़क पर जो सब की थी पर जिस का कोई नहीं था। जो सब को मिलाती थी परन्तु स्वयं अकेली थी।” सूक्ष्मता से सोचा जाये तो उपन्यास का अन्तिम वाक्य भी नगर के, नगर की सड़क के दर्द को उजागर करता है।
नंगा रूक्ख उपन्यास में सारथी जी ने नगर रूपी मुख्य पात्र की पीड़ा, वेदना, उस के शोषण और नगर तथा नगरबासयिों के उत्पीड़न एवं नगर रूपी मुक्ख पात्र के रोने, चिल्लाने तथा विलाप के स्वर को ही शब्द दिये हैं। पाठक को लगता है वह अपने ही नगर के शोषण एवं उत्पीड़न की एक चित्र प्रदर्शनी देख रहा है। इस चित्र प्रदर्शनी को देख पाठक को एक झटका सा लगता है और उस के भीतर एक विद्रोही मानव जन्म लेने लगता है।
नंगा रूक्ख का लेखक समाज के यथार्थ की ऐसी तस्बीर पेश करता है जिसे देख कर पाठक उत्तेजित हो समाज को बदल देना चाहता है पर समाधान के तौर पर सारथी जी सर्वप्रथम स्वयं के परिवर्तन की बात करते हैं। पाठक को लगा आघात आत्ममंथन एवं आत्मविश्लेषण में बदल जाता है।
उपन्यासकार ने उपन्यास में किसी भी पात्र को व्यक्ति वाचक संज्ञा नहीं दी है। किसी भी पात्र का कोई विशेष चरित्र चित्रण नहीं है। सभी पात्र प्रवृति के प्रतीक मात्र हैं। यही बात उन पात्रों को सार्वभौमिक बनाती है और लेखक उन बेनाम पात्रों के माध्यम से सभी के सांझे दुखों और तकलीफों को शब्द देता जाता है।
सारथी जी मिथक, प्रतीक और संकेतों का प्रयोग कर नंगे हो चुके नगर के प्रति हमारी सोई संवेदना को जगाते हैं। जनमानस नगर के दुख दर्द को समझे तथा उसे दूर करने हेतु पहले अपने आप को ठीक करे तथा फिर नगर के दुख दर्द को देर करने के लिए कमर कसे यही सारथी जी का ध्येय है।
जब राजनेता समाज को व्यवस्थित करने के स्थान पर अव्यवस्था फैला अपनी जेबें भरने लगें, जब धार्मिक संस्थान अनैतिक प्रवृतियों को बढ़ावा देने लगें, जब लोगों की समस्या के समाधान के स्थान पर हमारे मार्गदर्शक उन्हें खेल तमाशों में उलझाये रखें उस समय संवेदनशील लेखक व्यंग्य के अस्त्र द्वारा इन विकृतियों की चीर-फाड़ करता है, वह व्यंग्य और प्रतीकों की सहायता से वही दर्द पाठक में जगाता है जो वह स्वयं महसूस कर रहा होता है। ‘नंगा रुक्ख’ के लेखक ने अपने नगर के, जनसमूह के, इसी दर्द को अभिव्यक्त किया है।
जो पठन-पाठन को समय व्यतीत करने का साधन मानते हैं, उन के ध्येय की सिद्धी श्री सारथी जी की रचनाओं के द्वारा नहीं हो सकती। तिलस्मी, जासूसी, प्रेमपरक उपन्यासों के रसिकों के लिए भी उन का साहित्य नहीं बना। जो साहित्य को सब के हित का साधन मानते हैं, जो साहित्य के माध्यम से सामाजिक विकृतियों के मूल कारण को जानना चाहते हैं, जो एक मंच पर चढ़ कर अपने ही समाज का यथार्थ जानना चाहते हैं, आत्मविष्लेशण के पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं श्री सारथी जी का साहित्य उन्हीं लोगों के लिए हैं। संक्षेप में सजग एवं चिन्तनशील व्यक्तियों के लिए ही उन का साहित्य है।
........क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध