सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 16 January 2019

सागर की कहानी (56)

सागर की कहानी (56) – कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते हैं- ‘मेरी मुलाकात अचानक रामानंद गिरी जी ( मेरे अध्यात्मिक टीचर) से हुई। रामानंद जी निराकार के उपासक तथा ज्ञान वेदान्त मार्गी क्षेत्र में सूर्य समान हैं। जीवन का एक और पक्ष प्रकाशित हुआ। एक और आसमान नज़र आया। वे कटड़े हुआ करते थे। उन्होंने मुझे महामन्त्र करने को दिया जिसे मैने असंख्य किया। फिर यह मेरा अस्तित्व ही हो गया। इस समय यह शरीर में रक्त की भान्ति है तथा कभी किसी भाग में बजता हुआ महसूस होता है।‘
यहां श्री सारथी जी से हुई पहली दो मुलाकातों का जिक्र अवश्य करना चाहूँगा। उनसे पहली मुलाकात पिताजी के माध्यम से हुई। वर्ष 1992 की बात है मैं Msc physics के दौरान अपने मित्र अश्विनी गुप्ता के साथ घर में मौजूद था तभी पिताजी के ठहाकों का स्वर सुनाई दिया। प्रवेश द्वार के बाहर से आ रहे इन उन्मुक्त ठहाकों में सितार की झंकार सा हास्य का एक और स्वर भी मिश्रित था। द्वार खुला पिताजी के साथ एक लंबे कद के व्यक्ति ने प्रवेश किया। वे हलके पीले रंग के लंबे कुर्ते के साथ मटमैले रंग की पैंट पहने हुए थे। कांधे पे थैला, लंबी भुजाएँ, बड़ी बड़ी आंखें, आँखों पे चश्मा, कलात्मक दाढ़ी और दिव्य सी मुस्कान। पिताजी ने उनका परिचय करवाते हुए कहा- आप सारथी साहिब हैं, बहुत बड़े वैज्ञानिक एवं विद्वान हैं आप। एक बार फिर उन्मुक्त हंसी से सारा घर झंकृत हो उठा। इस से पूर्व कि कोई कुछ कहे सारथी जी कहते हैं – शर्मा जी पता नहीं मेरे बारे में कौन सा भ्रम पाले हुए हैं, मैं तो इन का अदना सा दोस्त हूँ, इन की विनम्रता और प्रेम देख कर आप सब से मिलने की इच्छा हुई तो यहाँ चला आया। ऐसे शालीन और विनम्र लोग मैंने पहले तो कभी नहीं देखे। पता नहीं किस देव लोक के बासी हो आप सब। इतना कह उन्होने घर में उपस्थित सभी लोगों का दोनों हाथ जोड़ और झुककर अभिवादन किया। सब की आँखों में उन के प्रति श्रद्धा झलक रही थी और सब ने उसी प्रकार दोनों हाथ जोड़ कर एवं झुक कर उन का सत्कार किया परंतु मैंने मात्र हल्की सी गर्दन हिला कर इस पहली मुलाक़ात को अपने स्वीकारोक्ति देने के साथ साथ परिवार का युवराज होने की अप्रतक्ष्य घोषणा भी की । सारथी जी ने मुझे देखा और इस बार झुके तो अपना हाथ मेरे पाँव की और बड़ा दिया। मैं एकदम पीछे हटा और अब की बार अपने अहम को झटक कर उन के चरणों का स्पर्श कर लिया । एक बार फिर सितार की झंकार सी हंसी कमरे में गूंज गई । घर के सारे सदस्य जिज्ञासा वश सारथी जी को निहार रहे थे परंतु वे अभी मुझ से ही संबोधित थे। कहने लगे आप ने अपने मित्र का परिचय नहीं करवाया - मैंने कहा जी यह मेरा मित्र अश्विनी गुप्ता है। वे मुस्कुराते हुए कहने लगे यह आपका मित्र है या आप भी इन के मित्र हैं। संकोच वश मैं मात्र इतना ही कह पाया – जी मैं भी इन का मित्र हूँ। सारथी जी मुसकुराते हुए फिर पूछते हैं - आप दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हो या एक दूसरे के प्रति श्रद्धा रखते हो। हम दोनों के पास उनके इस प्रश्न का कोई उत्तर ना था। कुछ देर मौन रहने के उपरांत वे बोले - यदि प्रेम करते हो तो कभी ईर्ष्या-द्वेष भी करोगे परंतु यदि एक दूसरे के प्रति श्रद्धा रखते हो तो यह भाव कभी बदलेगा नहीं। प्रेम और ईर्ष्या-द्वेष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं परंतु श्रद्धा का कोई विकल्प नहीं, श्रद्धा हर हाल में श्रद्धा ही रहती है। उन की यह बात पूरी तरह से समझ तो नहीं आई परंतु उनके चले जाने के उपरांत भी कई दिनों तक यह बात मेरे अंतस में गूंजती रही।
.......क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध