श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (57) – कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
सागर की कहानी (57) – कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
.....काल चक्र घूमा और छोटे जीजा श्री को निरंतर रहने वाली पेट दर्द के चलते दिल्ली ले जाया गया, वहाँ यह दुखद सूचना मिली कि जीजाश्री को आंत का कैंसर हो गया है, तथा यह कि अब उन के पास अधिक समय नहीं । ... मेरे लिए यह सब असहनीय था परंतु मुझे उन का ज़रूरी सामान जम्मू से ले कर पुन दिल्ली लौटना था। घर में सब का यह कह कर हौसला बढ़ाता रहा कि चिंता कि कोई बात नहीं, उपचार में कुछ समय लगेगा। वहाँ तो झूठ सच बोल सब को चिंता मुक्त कर दिया परंतु स्वयं अपार चिंता और शौक से ग्रस्त हो गया। उसी दिन सितार की झंकार सी वह कुछ चिर परिचित सी हंसी फिर गूंजी । इस बार पिता जी के साथ सारथी जी को देख एक अजीब सी शांति का एहसास हुआ। वे आते ही पूछने लगे, आप ठीक तो हो ना? मैंने चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए कहा - जी बिलकुल ठीक हूँ। परंतु लगा मेरे इस उत्तर से सारथी जी सहमत नहीं हुए हैं। भोजनोपरांत वे टहलते हुए मुझे ढलान की ओर जाती सड़क किनारे पेड़ों के झुरमुट के बीच ले गए । वहाँ घास पर बैठ कर मुझे भी वहाँ बैठने का इशारा करते हुए कहते हैं – अपना दुख मुझ से बाँट लो शायद कुछ उपचार हो सके। मैंने फिर दोहराया – जी, ऐसी तो कोई बात नहीं। उन्होने मेरे सिर को अपने लंबे हाथों की लंबी उँगलियों से सहलाते हुए कहा - मुझे तुम्हारे लिए यहाँ ईश्वर ने भेजा है। तुम्हारे लिए सिर्फ तुम्हारे लिए । इस बार मैं स्वयं को रोक न सका और ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। जब कुछ संभला तो सारा वृतांत कह सुनाया। कुछ पल मौन रहने के उपरांत सारथी जी कहने लगे ...इस समय तुम्हें सारे कार्य छोड़ कर अपने जीजा की सेवा करनी चाहिए। तुम्हें महामंत्र दे रहा हूं, यह तुम्हें बहुत शक्ति देगा। उन के सानिध्य में कुछ घंटे गुजारने और उन से मंत्र दीक्षा लेने के उपरांत मैं नए संकल्प और नई ऊर्जा से भर गया तथा अपना नया दायित्व स्वीकारने के लिए पूर्णता तैयार था।
सारथी जी कहा करते-आदमी तब तक जीवन में और इस के विभिन्न पहलुओं में प्रवेश नहीं कर सकता और न ही जीवन की कला और पेचीदगियों का ज्ञान उसे हो सकता है, जब तक उस के सिर पर कोई वृहद् हाथ न हो, कोई गुरु न हो, गुरु कृपा न हो। उन के मतानुसार - गुरु के बिना व्यकित कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। वे जीवन में चित्रकला के गुरु को, साहित्य के गुरु को और आध्यात्मिक गुरु को परमात्मा का दर्जा देते हुए कहते-
गुरु गोबिन्द दोनों खड़े काके लागो पाय।
बलिहारी गुरु आपनो जिन गोबिन्द दियो बताय।।
वे कहा करते- मैं पशु समान था। परमपूज्य रामानन्द जी ने मुझे एक उच्चतम दृष्टि वाला, उच्चतम क्रियाकलापों वाला महामानव बना दिया।
सारथी जी कहा करते-आदमी तब तक जीवन में और इस के विभिन्न पहलुओं में प्रवेश नहीं कर सकता और न ही जीवन की कला और पेचीदगियों का ज्ञान उसे हो सकता है, जब तक उस के सिर पर कोई वृहद् हाथ न हो, कोई गुरु न हो, गुरु कृपा न हो। उन के मतानुसार - गुरु के बिना व्यकित कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। वे जीवन में चित्रकला के गुरु को, साहित्य के गुरु को और आध्यात्मिक गुरु को परमात्मा का दर्जा देते हुए कहते-
गुरु गोबिन्द दोनों खड़े काके लागो पाय।
बलिहारी गुरु आपनो जिन गोबिन्द दियो बताय।।
वे कहा करते- मैं पशु समान था। परमपूज्य रामानन्द जी ने मुझे एक उच्चतम दृष्टि वाला, उच्चतम क्रियाकलापों वाला महामानव बना दिया।
साधना के आरिम्भक दौर में अपने अंतर्द्वन्द्व को स्प्ष्ट करते हुए वे लिखते हैं - एक कठिनाई थी महामंत्र, जो टीचर ने दिया था, उसमें कुछ शब्द-अक्षर यूं थे कि उच्चारण ही कठिन था। टीचर ने कहा था यह मंत्र तुम्हें स्वयं ही बाहर से सुनाई न दे और इसके लिये ज़रूरी था कि मैं मंत्र का मुंह बंद करके उच्चारण करता और कंठस्थ करता। परन्तु इस कार्य के लिये तो एक कठिनाई और पैदा हो गई। मुंह बंद करके अर्थात औंठ बंद करके तो श्रृ, र, आदि अक्षर तो बन ही नहीं पाते थे। मैं जब मुंह के भीतर ही जीभ की सहायता से बोलने लगता तो ऋृ का उच्चारण ”नृ’’ और ”र’’ का उच्चारण ”ल’’ जैसा होता और ”श“ और ”ष“ का उच्चारण ”स“ अथवा ”श“ हो जाता। मैं टीचर को अपनी कठिनाई बताता। परन्तु वह कान ही न धरते। कभी-कभार मौज में आकर कह देते - हो जायेगा। सब ठीक हो जाएगा। करते जाओ, रूको नहीं, संदेह ही रोकता है। इसी पड़ाव का सबसे पहले अबूर करना पड़ता है। बस लगे रहो।
उच्चारण ठीक से नहीं कर पा रहा था और उस के बिना ध्यान के लिये बैठना मात्र व्यर्थ ही समय गवाना था। मंत्र का जाप करते हुए बहुत समय तक मुंह में पानी भर आता। जीभ थकती और कभी दांतों में बहुत निशक्तता और थकावट लगती। मैं फिर भी निरंतर करता चला जाता। होते-होते मंत्र का उच्चारण करने अथवा श्रवण के भीतर अथवा बाहर सुनने की आवश्यकता ही समाप्त हो गई। अब मात्र मंत्र का ध्यान था। मंत्र नहीं, मंत्र का ध्यान। एक संस्कार की भांति मंत्र-अन्तस चेतन में उतर गया।
........क्रमशः .............कपिल अनिरुद्ध
उच्चारण ठीक से नहीं कर पा रहा था और उस के बिना ध्यान के लिये बैठना मात्र व्यर्थ ही समय गवाना था। मंत्र का जाप करते हुए बहुत समय तक मुंह में पानी भर आता। जीभ थकती और कभी दांतों में बहुत निशक्तता और थकावट लगती। मैं फिर भी निरंतर करता चला जाता। होते-होते मंत्र का उच्चारण करने अथवा श्रवण के भीतर अथवा बाहर सुनने की आवश्यकता ही समाप्त हो गई। अब मात्र मंत्र का ध्यान था। मंत्र नहीं, मंत्र का ध्यान। एक संस्कार की भांति मंत्र-अन्तस चेतन में उतर गया।
........क्रमशः .............कपिल अनिरुद्ध