सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Tuesday, 28 April 2020

Sagar ki kahani-65 by kapil anirudh

सागर की कहानी - (65)
चिंतक, कला मर्मज्ञ, प्रयोगधर्मी साहित्यकार/ ऋषि श्री ओ० पी० शर्मा ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
सारथी जी के लिए धार्मिक होने का अर्थ सब के प्रति संवेदनशील होना होता। कई बार उन की बात हैरान कर देती जब वे कहते कि अपने पंथ, संप्रदाय, धर्म को दूसरे के पंथ, संप्रदाय अथवा धर्म से छोटा समझो। फिर इस वक्तव्य का अर्थ समझाते हुए वे कहते- यदि तुम्हारी धारणा के अनुसार, दूसरे का पंथ तुम्हारे पंथ से बढ़िया है तभी तुम उस का अध्ययन करोगे। बैसे भी बिना अध्ययन एवं अभ्यास के अपने मार्ग को बड़ा घोषित कर देना, सारे उपद्रवों की जड़ है। हाँ यदि अध्ययन के उपरांत तुम किसी भी निर्णय पर पहुँचते हो तो वह निर्णय अवश्य ही तुम्हारा निर्माण करेगा और तुम्हें निर्वाण कि ओर ले जायेगा।
गर्मियों के दिन हैं। शाम 6:00 - 7:00 के बीच का समय। कमरे में कुछ अंधेरा होने के कारण ट्यूब लाइट जल रही है। ट्यूब लाइट का दूधिया प्रकाश कमरे में फैल रहा है। कमरे की एक तरफ दो तीन कंबलों की तह पर थोड़ा झुक कर बैठे सारथी साहब कनवास पर रंगों का जादू बिखेर हैं। उन्हें घेर कर बैठे 3-4 जिज्ञासु आवाक से बैठे हैं। कोई हिलजुल नहीं मानों वे सब पत्थर की मूर्तियाँ हों। कुछ देर के बाद एक महिला और दो पुरुषों का अगुआ बन कर आए सुभाष जी कमरे में प्रवेश करते हैं और थोड़ा आगे बढ़कर कमरे का मौन भंग करते हुए कहते हैं - गुरु जी कान्वेंट स्कूल की प्रिंसिपल रोजलीमा जी आज फिर आप से मिलने आई हैं। स्कूल का प्रिंसिपल तथा एक और अध्यापक भी आए हैं। कनवास पर घूमता ब्रश रुक जाता है। पैलेट के रंग कनवास पर लगने के इंतजार में ही रह जाते हैं। कनवास पर दृष्टि जमाये जिज्ञासुओं का भी ध्यान भंग हो जाता है। सारथी जी खड़े होकर सारे मेहमानों का स्वागत करते हैं और फिर अतिथि देवो भव का परिचय मेहमानों को चाय बिस्कुट इत्यादि पेश कर दिया जाता है। रोजलीमा जी कुछ झिझकते हुए कहती हैं - पिछली बार आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। फिर पूछती हैं - क्या मैं भी आप को गुरुजी कह सकती हूँ। और फिर बिना उत्तर का इंतजार और बिना किसी अनुमोदन के कहती हैं - गुरु जी मैं आज यह निवेदन करने आई हूँ कि आप हमें जीसस क्राइस्ट के जीवन पर आधारित एक opera लिख दें। फिर पूछती हैं - आप को लिखने में कोई एतराज तो नहीं। सारथी जी एक हल्का सा ठहाका लगते हैं और कहते हैं - मैंने आपको पहले भी कहा था कि मेरे मन में कृष्ण और जीसस क्राइस्ट में कोई भेद नहीं। मैं जीसस क्राइस्ट के प्रति वही श्रद्धा रखता हूं जो मेरे मन में श्री कृष्ण के प्रति है । मैं opera (नृत्य नाटिका ) जरुर लिख दूँगा और यदि आप चाहेंगी तो नृत्य नाटिका का संगीत निर्देशन और निर्देशन भी कर दूँगा। फिर उनकी तरफ देख कर कहते हैं - गुरु जी मेरे मन में भी आपके प्रति भी बहुत श्रद्धा है। रोजलीमा जी की खुशी उनके होठों पर मुस्कुराहट बन बिखर जाती है और वह कुछ कहते कहते रुक जाती है। सारथी जी कहते हैं - आप कुछ कहना चाहती हैं बेझिझक कहिए। थोड़ा हौसला बटोर रोजलीमा जी कहती हैं - गुरु जी आप एक चित्रकार हो, संगीतकार हो, साहित्यकार हो, आयुर्वेदाचार्य हो, धर्मगुरु हो, और पता लगा है कि आप ने बहुत सारी भाषाओं में दार्शनिक - आध्यात्मिक लेख भी लिखें हैं। इतना सब कुछ किस तरह हो सकता है। कौन कर सकता है। साथी जी का उन्मुक्त ठहाका फिर गूंज जाता है। आप पूछ रहे हैं मैंने इतना सब क्यों किया। रोजलीमा जी को कोई उत्तर नहीं सूझता। शब्द साथ नहीं देते। झिझक एक बार फिर उन्हें घेर लेती है। फिर अपने आप को बटोरते हुए कहती है- मेरे कहने का मतलब दूसरा था मैं तो यह पूछना चाह रही थी कि कोई इतना सब कुछ कैसे कर सकता है। सारथी जी गंभीर स्वर में कहते हैं - मैं सृजन हेतु यहां नहीं आया। मैं एक दर्शक बन के या बना के यहाँ भेजा गया हूँ। देखने और समझने के लिए कि स्वर और व्यंजन का रूप कैसे बना। रंग क्या कहते हैं, कैसे कहते हैं। रेखाओं पर संसार टिका हुआ है। यदि संसार रूपी भवन में से रेखाओं के स्तम्भ निकाल दिया जाए तो सब राख़ बन कर ढह जाएगा। रेखा ही आहत नाद है। रेखा ही अक्षर है। रेखा ही हर वस्तु और जीव जंतु का नाम है। रेखा ही भाषा का लिखित रूप है। फिर मूल रंग तीन क्यों हैं। सात किस तरह बन गए। सप्ताह के सात दिन हैं, सप्तऋषि हैं। यह सब सात क्यों। मैं तो पल पल अब भी यही चाहता हूँ कि देखता चलूँ। बहुत सारी वस्तुएं बहुत सारे कोणों से। क्योंकि इस जन्म के दोबारा मिलने पर मुझे संदेह है। मेरे होने का परिपेक्ष्य इस बात पर तिक कर स्पष्ट होने की मांग करता है कि यह जीवन जिस का मैं बहुत समय से अध्ययन करता आ रहा हूँ वह दोबारा नहीं मिलेगा। यह हाथ, पैर, आंखें, भाषा, समझ दोबारा कभी भी नहीं मिलेगी। गया को गया।