सागर की कहानी-66
हर पल को सार्थकता प्रदान करने वाले सारथी जी प्रयोग को ही अपना धर्म समझते और इन प्रयोगों के दौरान जो तत्व उन के हाथ लगते वो आज उन के गायन, चित्रों और साहित्य के रूप में कई हृदयों को झंकृत कर रहे हैं। अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति पूरी तरह से सजग सारथी जी साहित्य संगीत और कला के द्वारा समाज का ही श्रृंगार करते रहे। अपने पहले डोगरी उपन्यास ‘त्रेह समुद्र दी’ में वे लिखते हैं - नगर का श्रृंगार करते चले जाओ तुम्हारा क्षृंगार स्वतः ही हो जाएगा। उनके द्वारा बनाए चित्र आज भी कई मंदिरों, भवनों, घरों कथा संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं तथा देखने वाले के मन में प्रेम करुणा और दिव्यता के गुणों का विकास कर रहे हैं। उनके द्वारा निर्मित रेडियो, घड़ियां, पेन इत्यादि अनेक घरों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। कितनी ही पुस्तकों तथा पत्रिकायों के आवरण उनके रेखाचित्रों एवं चित्रों से सुसज्जित हैं। उनकी उर्दू ग़ज़ल का एक शेर इसी भाव को उजागर करता है।
खुद जल के तेरा हुस्न सजाने के लिए हूँ।
चेहरे पे नई धूप उगाने के लिए हूँ।
उनके साहित्य में ‘नगर’ शब्द बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। उनके साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास का हिंदी अनुवाद अशोक जेरथ जी ने ‘नगर मंथन’ नाम से किया है तथा अंग्रेजी में कर्नल शिवनाथ ने इसे churning of the city की संज्ञा दी है। वैसे शीर्षक ‘नंगा रुक्ख’ भी संस्कृति एवं मूल्यहीन हो रहे नगर की ओर संकेत करता है तथा पंजाबी उपन्यास ‘बिन पैरा दे धरती’ मूल्यहीन आधारविहीन धरती की पीड़ा को जुबान देता है। धरती से प्रेम के ही कारण सारथी जी ने अपने क्षेत्र में बोली जाने वाली मुख्य भाषाओं जैसे उर्दू हिंदी डोगरी और पंजाबी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। नगर से उनके प्रेम का परिचय उनके चित्रों, रेखाचित्रों के अतिरिक्त उनके द्वारा खींचे गए छायाचित्रों में भी मिलता है। मंदिरों के शहर की सड़कों, गलियों, नदियों, पहाड़ों, जड़ी-बूटियों, जानवरों इत्यादि ने इन में जगह पाई है।
पुरुषार्थ/ कर्म के महत्व का विवरण देते हुए सारथी जी लिखते हैं – ‘संसार में कर्म ही सबसे ऊंचा धर्म है। जो आदमी कर्म (सदकर्म) नहीं करता वह धार्मिक नहीं है, ना हो सकता है। सत्कर्म में सहायता, सेवा और सहानुभूति, मदद, खिदमत में हमदर्दी का जज़्बा, यह भाव प्रधान है। निर्बल और निर्धन की सहायता संसार का उच्चतम धर्म माना गया है। कुरान शरीफ में कहा गया है कि यदि आपके पड़ोस में कोई निर्धन भूखा सो गया है तो आपकी दुआ कबूल नहीं होगी। और अगर आपके देखते हुए कोई अंधा ठोकर खाकर गिर गया है तो सिजदा कबूल नहीं होगा।
सेवा के लिए शास्त्र ने धर्म शब्द बार-बार प्रयोग किया है। और तीन स्थलों की सेवा को परमार्थ का दर्जा दिया है। माता पिता की सेवा धर्म है। गुरु की सेवा धर्म है और वृद्ध तथा रोगी की सेवा परम धर्म है। बंधु, मोहनदास करमचंद गांधी राष्ट्रपिता और बापू इसलिए कहलाए कि वह कोढ़ी समाज में रहे। दलितों और हरिजनों को और निर्धनों को उन्होंने छाती से लगाये रखा। वे गाते थे - वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे, पर दुखे उपकार करे जो मन अभिमान न आने रे। धर्म है कोढ़ियों की, वृद्धों की, निर्धनों और भूमिहीनों और बेघरों की खिदमत। यदि कोई धर्म की परिभाषा कुछ और बताता है तो वह समाज का, मानव समाज का शत्रु है। वह गुरुजनों का शत्रु है। वह माता पिता का शत्रु है। वह निर्धनों, निराश्रयों, भूमिहीनों और रोगियों का शत्रु है। उसे मानव समाज में रहने का कोई नैतिक, धार्मिक अधिकार नहीं है’।...क्रमशः........कपिल अनिरुद्ध।