(भाषांतर डोगरी कहानी
)
भ्रम जाल
मूल : श्री ओ. पी. शर्मा "सारथी" उस बालक ने खुरचनी
को सम्भाल कर कड़ाही में ज़ोर से हाथ मारा। दूर तक कड़ाही में एक चमकीली पट्टी बन गई
। साथ ही उस ने व्यंग्य मुस्कुराते हुए मुझे
कहा – “बाबू दूध पी ले । तेरी आवाज़ सुनाई नहीं देती ।”
मैं उस के निकट बैठ गया और उस की बात का उत्तर दिया । “अरे बच्चे, मैं तुम्हे सच कह
रहा हूँ । तू शाम को दूध-मलाई बेच कर नाटक
मण्डली में चले आना । तुम्हे कुछ न कुछ बना दूंगा ।“ पीछे खड़े मेरे
अस्सिटैंट चौधरी ने मेरी चमचागिरी की – “सर, इस जानवर को क्यों
कर बुला रहे हो । क्या इस नगर में अभिनेताओं का अभाव है। मैं दर्जनों लड़के ले आऊँगा
। आप चुनाव कर लेना ।“ मैंने चौधरी की पगड़ी की ओर देखा । उस ने
पगड़ी का चीर सीधा किया । मैंने बड़े प्यार से चौधरी
को कहा -“चौधरी गाय को गाय के स्थान पर पेश करना बड़ा आसान है । गधे को घोड़े
के स्थान पर खड़ा कर के लोगों को बताओ तो कमाल है । यह बालक तुम्हारे कथनानुसार
जानवर है । मेरे विश्वास में यह राम है । अब देखना यह है कि तुम जीतते हो या मैं ।“ सुन कर चौधरी ने
दोनों कान पकड़ लिए – “सर मैं न तो चुनौती दे रहा हूँ, न ही नकार रहा हूँ ।
सोच रहा हूँ यह बालक आप को दुःख देगा । और मुझ से आप का दुःख
देखा नहीं जाएगा। इसे वानर सेना में भर्ती किया जा सकता है पर साहब कह रहें हैं यह राम
है ।“ –“ हाँ चौधरी इस बार राम यही होगा । बस इसे नाट्यशाळा
में ले आओ” ।
-मैंने बालक को पुन: कहा, "अरे सोमू शाम को
नाटक मण्डली में चले आना । यह चौधरी साहब तुम्हे लेने आयेंगे।"
-रिहर्सल चल रही थी और चौधरी सोमू को लेकर आ पहुंचा । नाट्य शाळा देख कर
सोमू आवाक सा रह गया। चौधरी ने मेरे कान में कहा - " -सर, उस राम को ले आया
हूँ । परन्तु रास्ते में कह रहा था मुझे महसूस होता है ऐनक वाला बाबू मेरा बिस्तर
छीन लेगा । यह आप को ठग समझ रहा है । आप इसे राम समझ रहे हो । क्या कंट्रास्ट है ।
क्या फ्रेम है ।
रिहर्सल से समय निकाल मैं सोमू के पास गया और उसे कहा -
-" सोमू राम लीला में काम करोगे ।" पूछने पर उस ने अपनी नथनें फुलायीं -
" हाँ करना है । " मैंने कहा काम तो तुम से करवाएगें पर मैं तुम्हें
नथनें नहीं फूलाने दूंगा ।" सोमू झट ही शर्मसार सा हो गया । इस बीच
दो तीन लोग मेरे पास आये । उन के व्यवहार से सोमू कुछ नर्म दिखने लगा । वह विनम्र हो
गया । बोला "साहब मैं आप को कोई ठग समझ रहा था परन्तु आप तो सचमुच ही लीला
करवाने वाले हो । मैं ज़रूर करूँगा । मुझे सचमुच ही बड़ा शौक है । मैं
सातवीं तक पड़ा भी हूँ । पत्र में सब कुछ लिख लेता हूँ । " मैंने सोमू को कहा
-" सोमू मैंने तुम्हे बुलाया ही इसलिए है कि तुम्हे स्टेज पर चढ़ाना है । पर
तुम्हे मेरी सहायता करनी होगी । मैं जैसे कहूँ तुम्हें वैसा ही करना होगा ।
" सोमू ने मुझे वैसा ही करने का वचन
दिया ।
मैंने सोमू को बुला तो लिया, पर एक
आफत मौल ले ली । क्लब के जिस जिस कलाकार को पता लगता गया कि सोमू को सर
एक्टर बनाने लगे हैं, वो हैरान हुआ । मेरे निकट आ कर इस बात
को कन्फर्म करवाने लगा । मैं सब को सहज स्वभाव से कह देता कि सोमू लीला में काम
करेगा ।
एक दिन मैंने चौधरी तथा दो तीन को सुनाया कि मैं सोमू को राम का पार्ट देने
लगा हूँ, तो मेरे भय को तिलांजली दे कुछ आदमी इतने हंसे मानो उन्हें कोई दौरा
पड़ गया हो । मेरी बात को बड़े ही नाटकीय अंदाज़ से लिया जा रहा था । मैंने चौधरी को
बुला कर कहा - " चौधरी जी, यह बालक सोमू आप के हवाले है । यह लो इस का
स्क्रिप्ट । यह आप ने इसे याद भी करवाना है और सोमू से सब को तू-तू कहना भी
छुडवाना है । इसकी भाषा बड़ी खराब है। " चौधरी ने
अनमने स्क्रिप्ट ले लिया। कुछ कहे बिना चला गया । दो चार दिन चौधरी सोमू को याद
करवाता रहा । अंतत: वह उसे मेरे पास ले आया और कहने लगा- " देखो अपने
रामचंद्र जी को।" मैंने पूछा- "क्या हुआ? क्या देखूं?" तो चौधरी ने सोमू को
कहा- चल वे । सर को सुना । जो कुछ तूने याद किया है। सोमू ने कोने से धनुष उठाया
और कंधे पर रखा तथा बोला-" शिब धनुष तोड़ने बाला भी कोई शिब प्यारा ही होगा।
जिस से भी यह अपराध हुआ बो दास तुम्हारा ही होगा ।" बाकि तो सब ठीक था । एक
तो सोमू ‘व्’ के स्थान पर ‘ब’ बोल रहा था, दुसरे बड़े जोश के साथ कह रहा था, मानो भट्ठी जलाने के
लिए पेटियां तोड़ रहा हो । मैंने सोचा यह दोनों बातें तो सही जा सकती हैं परन्तु वह
संवाद बोलते हुए दायें हाथ को इस तरह घुमा रहा था जैसे वह कडाही साफ़ करने के लिए
खुरचनी घुमाता था । मैंने उसे कहा - " सोमू, यह हाथ जिस के साथ
तू हाथ के फिसलने का संकेत करता है, यह तू धनुष कि ओर ले
जाया कर । साथ ही जहाँ भी ‘शिव’ या ‘वाला’ शब्द आये वह ठीक बोला कर ।" " सर जी, यह आदत पड़ गई है,पर हटा लूँगा । आप
तो परमेश्वर से भी बढ़ कर हो । मुझे राम बना दिया । सच मनो कई बार धनुष कंधे पर रख
लूं तो कन्धा हिलाने को मन नहीं मानता । जी चाहता है राम जी बना ही रहूँ ।
मैंने सोमू को समझाया-" यह नाटक है, लीला है । इस में सच
कुछ नहीं । तुम्हे राम का पार्ट करना है, अभिनय के उपरांत तुम
राम नहीं ।"
रिहर्सलें चल रही थी । मैं सोमू को राम का पार्ट
याद करवा रहा था । वह पूरे मनोयोग से अभिनय सीख रहा था । इतना भी था कि एक आध बार
बात समझाने पर वह समझ जाता था पर खूबी यह थी कि वह संवाद कमाल का याद करता था । जो
बोल दिया वह याद हो गया ।
सोमू को कार्य अधिक करना पड़ता था । दुकान तो उस के ही आसरे थी । शाह ने
सुनाया था कि वह सोमू को आठ वर्ष कि आयु में लाया था । अब तो यह दुकान उसे के
सहारे चल रही थी ।
मैंने बहुत बार देखा कि पुराने अभिनेता सोमू के साथ मसखारियां करते। बातें चुबाते। ठिठोली
करते। पर सोमू कुछ नहीं बोलता । मैंने एक
दिन सोमू को कहा - "सोमू तुम्हे कौन छेड़ता है, मुझे बताया कर । मैं
उस की खबर लूँगा ।" सुन कर सोमू ने जोर से गर्दन 'ना' में हिलाई-" नही सर, कोई कुछ नहीं कहता।
यदि कहता है तो कहने दो। यदि कोई झगडा हुआ तो आप मुझे राम नहीं बनने देंगे। मुझे
राम ज़रूर-बा ज़रूर बनना है ।"
सोमू का बाकी सभी कलाकारों
से स्वभाव कुछ घुल मिल गया। परन्तु उसे एक क्लेश रह ही गया । सीता
का। जिस बालक ने सीता का अभिनय करना था उसे राम के सामने आते ही हंसी आ जाती थी ।
पहले-पहल मैंने भी इस बात को बड़ी सहजता से लिया पर जब फाइनल रिहर्सलों में भी सीता
का अभिनय करने वाले की हंसी न थमी तो मैंने ज़रा सी सख्ती से उसे पुछा - " वे
खाकू, मुझे समझ में नहीं आता । तेरे साथ क्या करूँ । सोमू को देख कर तुम्हे दौरा
क्यों पड़ जाता है। यदि तूने लीला वाले दिन भी यही करना है तो पहले बता दे ।"
खाकू कुछ गंभीर हुआ और बोला-"सर मैं पिछले दस वर्षों से सीता का अभिनय करता आ
रहा हूँ । सोचता हूँ यह मलाई बेचने वाला मेरे सामने कैसे टिकेगा । क्या करेगा
।"
खाकू के भीतर अभिमान बोल रहा था । पर मेरा मानना था अधिक समझाना ठीक नहीं ।
कई बार हुआ था कि जब मैं किसी को समझाता था वो पेट दर्द का बहाना कर लेट जाता था ।
और फिर पेट दर्द का ईलाज मिन्नतें, खुशामदें, चापलूसियां होता था
। कितने ही कारीगर, अभिनेता भाग गए थे। वो बात सुन ही नही सकते थे। खाकू भी उन्ही में
से एक दिखाई देता था ।
वास्तव में यह लीला का धंधा बड़े चस्के का है । जिस को इस की लत लग जाती है
वह किसी भी हालत में अभिनय करवा ही लेता है । डांट-डपट कर भी और मिन्नतें-खुशामदें
कर के भी । वो इस नाटक जगत को बनाये रखने के लिए क्या कुछ नहीं करता । गालियाँ
खाता जा रहा है । अपना जुलूस निकलवाता जा रहा है । जो इस का स्तुति गान करता है
उसे और अधिक भूखा नंगा और लाचार करता जा रहा है । जो इस कि आलोचना करता है, धौंस जमाता है, रौब डालता है, जो इसे मानता ही
नहीं, उसे बढ़िया से बढ़िया भूमिका देता जा रहा है । अनपढ़ को राजा बना रहा है। पढ़े
लिखे को भिखारी का रोल भी मुश्किल से दे रहा है । निंदा करवा रहा है पर चस्का! लालसा लीला की । नाटक का चस्का नहीं छूटता।
मुझे अपने आप पर हंसी आ जाती है । कोई बर्तन साफ़ कर रहा हो, किसी उद्योग का कोई
स्वामी हो । देखता हूँ, जुबान ठीक है, कद –बुत, नाज़ नखरा ठीक है, बस मिन्नतें-खुशामदें
कर के ले ही आता हूँ । भला कोई पूछे यदि यह अस्तबल न भरा जाए तो हर्ज़ भी क्या है ।
नही, जानवर लाने और इंसान बनाने। उन्हें
स्टेज पर चढ़ाना। चाहे उन कि एड़ियाँ पकड़ कर क्यों न रखनी पडें या बैसाखियाँ थाम कर
खड़ा रखना पड़े पर लीला ज़रूर करवानी। सब से रूठना, फिर स्वयं ही मान
जाना। कोई मनाने नहीं आता । फिर सोचता हूँ ईश्वर को कौन मनाने जाता है जो मुझे
मनाने आये । अपना काम करते जाओ।
मुकुट लगा कर एक दिन सोमू मेरे सामने आ खड़ा हुआ । मैंने पुछा सोमू क्या बात
है? कहने लगा -" सर जी मैं यह मुकुट पहन कर दूकान पर जाऊं। लाला जी को
दिखा आऊं। " मुझे हंसी भी आई और क्रोध भी । मैंने बड़े प्यार से उसे समझाया-
"सोमू यह मुकुट, तीर कमान, दुम-मूछ दाड़ी यहाँ
स्टेज पर ही ठीक लगते हैं। इन्हें बाहर नहीं ले जाते । " पर सोमू ने जिद पकड़ी
थी कि वह अपने मालिक को दिखाना चाहता है कि वह राम बन रहा है । सो सोमू हठात
उन्हें दिखा ही आया।
लीला का दिन आ गया । सारे हैरान थे । सोमू ऐसा जच कर रहा था कि दर्शकों
की ओर से तालियाँ ही तालियाँ बज रही थी । उस के हर संवाद पर वाह वाह तथा तालियाँ ।
शो खत्म हुआ तो दो चार लोगों ने सोमू के लिए ईनाम भेजे जो सोमू को मंच पर
ले जा कर दिलाये ।
सोमू भाव-विभोर था । लक्ष्मण और
सीता सर थाम कर बैठे थे ।
ग्रीन रूम में अफरा तफरी थी। सारे मेकअप साफ़ कर
रहे थे। अस्त्र शस्त्र और वस्त्र संदूखों में रख रहे थे । मूछें, दाड़ियाँ समभाल रहे थे । पर
सोमू कहीं नज़र नहीं आ रहा था ।
मैंने चौधरी से कहा । चौधरी ने आ कर बताया कि सोमू अशोक वाटिका में बैठा
हुआ है और वहां से उठ नहीं रहा है । मैं गया, मेरे साथ बहुत से
लोग थे। सोमू को मेकअप उतारने के लिए कहा । पर सोमू मुकुट, तीर -कमान छोड़ने को
तैयार नहीं हुआ । वह कहता जा रहा था -"अब मैं रामचंद्र जी हूँ । अब मैं लौट
कर दुकान पर नहीं जाऊँगा ।" हम सब ने उसे पकड़ कर मंच पर से घसीटा, उस का मुकुट उतारा।
तीर कमान और हार ज़बरदस्ती उतारे । फिर उसे बाहों और
टांगों से पकड़ कर उस का कुर्ता धोती उतारे । पर सोमू निरंतर चिल्ला रहा था
-"अब मैं रामचंद्र जी हूँ । अब मैं बापिस दुकान पर नहीं जाऊँगा । "हम सब
ने उसे पकड़ कर मंच पर से घसीटा । पर सोमू निरंतर चिल्ला रहा था -"मैं अब
रामचंद्र जी महाराज हूँ । मुझे लीला से नीचे न उतारो । मैं राम हूँ। मैं अब सोमू
नहीं राम हूँ । हमारे सभी एक्टर हैरान परेशान थे।
(अनुवाद : कपिल अनिरुद्ध )