सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Friday, 2 August 2024

Bhram Jaal

 

(भाषांतर डोगरी कहानी )
भ्रम जाल
मूल : श्री ओ. पी. शर्मा "सारथी" उस बालक ने खुरचनी को सम्भाल कर कड़ाही में ज़ोर से हाथ मारा। दूर तक कड़ाही में एक चमकीली पट्टी बन गई । साथ ही उस ने व्यंग्य मुस्कुराते हुए मुझे कहा – “बाबू दूध पी ले । तेरी आवाज़ सुनाई नहीं देती ।

मैं उस के निकट बैठ गया और उस की बात का उत्तर दिया । अरे बच्चे, मैं तुम्हे सच कह रहा हूँ । तू शाम को दूध-मलाई बेच कर नाटक मण्डली में चले आना । तुम्हे कुछ न कुछ बना दूंगा ।पीछे खड़े मेरे अस्सिटैंट चौधरी ने मेरी चमचागिरी की – “सर, इस जानवर को क्यों कर बुला रहे हो । क्या इस नगर में अभिनेताओं का अभाव है। मैं दर्जनों लड़के ले आऊँगा । आप चुनाव कर लेना ।मैंने चौधरी की पगड़ी की ओर देखा । उस ने पगड़ी का चीर सीधा किया । मैंने बड़े प्यार से चौधरी को कहा -चौधरी गाय को गाय के स्थान पर पेश करना बड़ा आसान है । गधे को घोड़े के स्थान पर खड़ा कर के लोगों को बताओ तो कमाल है । यह बालक तुम्हारे कथनानुसार जानवर है । मेरे विश्वास में यह राम है । अब देखना यह है कि तुम जीतते हो या मैं ।सुन कर चौधरी ने दोनों कान पकड़ लिए – “सर मैं न तो चुनौती दे रहा हूँ, न ही नकार रहा हूँ । सोच रहा हूँ यह बालक आप को दुःख देगा । और मुझ से आप का दुःख देखा नहीं जाएगा। इसे वानर सेना में भर्ती किया जा सकता है पर साहब कह रहें हैं यह राम है ।“ –“ हाँ चौधरी इस बार राम यही होगा । बस इसे नाट्यशाळा में ले आओ

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मैंने बालक को पुन: कहा, "अरे सोमू शाम को नाटक मण्डली में चले आना । यह चौधरी साहब तुम्हे लेने आयेंगे।"
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रिहर्सल चल रही थी और चौधरी सोमू को लेकर आ पहुंचा । नाट्य शाळा देख कर सोमू आवाक सा रह गया। चौधरी ने मेरे कान में कहा - " -सर, उस राम को ले आया हूँ । परन्तु रास्ते में कह रहा था मुझे महसूस होता है ऐनक वाला बाबू मेरा बिस्तर छीन लेगा । यह आप को ठग समझ रहा है । आप इसे राम समझ रहे हो । क्या कंट्रास्ट है । क्या फ्रेम है ।
रिहर्सल से समय निकाल मैं सोमू के पास गया और उसे कहा -
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सोमू राम लीला में काम करोगे ।" पूछने पर उस ने अपनी नथनें फुलायीं - " हाँ करना है । " मैंने कहा काम तो तुम से करवाएगें पर मैं तुम्हें नथनें नहीं फूलाने दूंगा ।" सोमू झट ही शर्मसार सा हो गया । इस बीच दो तीन लोग मेरे पास आये । उन के व्यवहार से सोमू कुछ नर्म दिखने लगा । वह विनम्र हो गया । बोला "साहब मैं आप को कोई ठग समझ रहा था परन्तु आप तो सचमुच ही लीला करवाने वाले हो । मैं ज़रूर करूँगा । मुझे सचमुच ही बड़ा शौक है । मैं सातवीं तक पड़ा भी हूँ । पत्र में सब कुछ लिख लेता हूँ । " मैंने सोमू को कहा -" सोमू मैंने तुम्हे बुलाया ही इसलिए है कि तुम्हे स्टेज पर चढ़ाना है । पर तुम्हे मेरी सहायता करनी होगी । मैं जैसे कहूँ तुम्हें वैसा ही करना होगा । " सोमू ने मुझे वैसा ही करने का वचन दिया ।

मैंने सोमू को बुला तो लिया, पर एक आफत मौल ले ली । क्लब के जिस जिस कलाकार को पता लगता गया कि सोमू को सर एक्टर बनाने लगे हैं, वो हैरान हुआ । मेरे निकट आ कर इस बात को कन्फर्म करवाने लगा । मैं सब को सहज स्वभाव से कह देता कि सोमू लीला में काम करेगा ।

एक दिन मैंने चौधरी तथा दो तीन को सुनाया कि मैं सोमू को राम का पार्ट देने लगा हूँ, तो मेरे भय को तिलांजली दे कुछ आदमी इतने हंसे मानो उन्हें कोई दौरा पड़ गया हो । मेरी बात को बड़े ही नाटकीय अंदाज़ से लिया जा रहा था । मैंने चौधरी को बुला कर कहा - " चौधरी जी, यह बालक सोमू आप के हवाले है । यह लो इस का स्क्रिप्ट । यह आप ने इसे याद भी करवाना है और सोमू से सब को तू-तू कहना भी छुडवाना है । इसकी भाषा बड़ी खराब है। " चौधरी ने अनमने स्क्रिप्ट ले लिया। कुछ कहे बिना चला गया । दो चार दिन चौधरी सोमू को याद करवाता रहा । अंतत: वह उसे मेरे पास ले आया और कहने लगा- " देखो अपने रामचंद्र जी को।" मैंने पूछा- "क्या हुआ? क्या देखूं?" तो चौधरी ने सोमू को कहा- चल वे । सर को सुना । जो कुछ तूने याद किया है। सोमू ने कोने से धनुष उठाया और कंधे पर रखा तथा बोला-" शिब धनुष तोड़ने बाला भी कोई शिब प्यारा ही होगा। जिस से भी यह अपराध हुआ बो दास तुम्हारा ही होगा ।" बाकि तो सब ठीक था । एक तो सोमू व् के स्थान पर बोल रहा था, दुसरे बड़े जोश के साथ कह रहा था, मानो भट्ठी जलाने के लिए पेटियां तोड़ रहा हो । मैंने सोचा यह दोनों बातें तो सही जा सकती हैं परन्तु वह संवाद बोलते हुए दायें हाथ को इस तरह घुमा रहा था जैसे वह कडाही साफ़ करने के लिए खुरचनी घुमाता था । मैंने उसे कहा - " सोमू, यह हाथ जिस के साथ तू हाथ के फिसलने का संकेत करता है, यह तू धनुष कि ओर ले जाया कर । साथ ही जहाँ भी शिव या वाला शब्द आये वह ठीक बोला कर ।" " सर जी, यह आदत पड़ गई है,पर हटा लूँगा । आप तो परमेश्वर से भी बढ़ कर हो । मुझे राम बना दिया । सच मनो कई बार धनुष कंधे पर रख लूं तो कन्धा हिलाने को मन नहीं मानता । जी चाहता है राम जी बना ही रहूँ ।

मैंने सोमू को समझाया-" यह नाटक है, लीला है । इस में सच कुछ नहीं । तुम्हे राम का पार्ट करना है, अभिनय के उपरांत तुम राम नहीं ।"

रिहर्सलें चल रही थी । मैं सोमू को राम का पार्ट याद करवा रहा था । वह पूरे मनोयोग से अभिनय सीख रहा था । इतना भी था कि एक आध बार बात समझाने पर वह समझ जाता था पर खूबी यह थी कि वह संवाद कमाल का याद करता था । जो बोल दिया वह याद हो गया ।

सोमू को कार्य अधिक करना पड़ता था । दुकान तो उस के ही आसरे थी । शाह ने सुनाया था कि वह सोमू को आठ वर्ष कि आयु में लाया था । अब तो यह दुकान उसे के सहारे चल रही थी ।

मैंने बहुत बार देखा कि पुराने अभिनेता सोमू के साथ मसखारियां करते। बातें चुबाते। ठिठोली करते।  पर सोमू कुछ नहीं बोलता । मैंने एक दिन सोमू को कहा - "सोमू तुम्हे कौन छेड़ता है, मुझे बताया कर । मैं उस की खबर लूँगा ।" सुन कर सोमू ने जोर से गर्दन 'ना' में हिलाई-" नही सर, कोई कुछ नहीं कहता। यदि कहता है तो कहने दो। यदि कोई झगडा हुआ तो आप मुझे राम नहीं बनने देंगे। मुझे राम ज़रूर-बा ज़रूर बनना है ।"

सोमू का बाकी सभी कलाकारों से स्वभाव कुछ घुल मिल गया। परन्तु उसे एक क्लेश रह ही गया । सीता का। जिस बालक ने सीता का अभिनय करना था उसे राम के सामने आते ही हंसी आ जाती थी । पहले-पहल मैंने भी इस बात को बड़ी सहजता से लिया पर जब फाइनल रिहर्सलों में भी सीता का अभिनय करने वाले की हंसी न थमी तो मैंने ज़रा सी सख्ती से उसे पुछा - " वे खाकू, मुझे समझ में नहीं आता । तेरे साथ क्या करूँ । सोमू को देख कर तुम्हे दौरा क्यों पड़ जाता है। यदि तूने लीला वाले दिन भी यही करना है तो पहले बता दे ।" खाकू कुछ गंभीर हुआ और बोला-"सर मैं पिछले दस वर्षों से सीता का अभिनय करता आ रहा हूँ । सोचता हूँ यह मलाई बेचने वाला मेरे सामने कैसे टिकेगा । क्या करेगा ।"

खाकू के भीतर अभिमान बोल रहा था । पर मेरा मानना था अधिक समझाना ठीक नहीं । कई बार हुआ था कि जब मैं किसी को समझाता था वो पेट दर्द का बहाना कर लेट जाता था । और फिर पेट दर्द का ईलाज मिन्नतें, खुशामदें, चापलूसियां होता था । कितने ही कारीगर, अभिनेता भाग गए थे। वो बात सुन ही नही सकते थे। खाकू भी उन्ही में से एक दिखाई देता था ।

वास्तव में यह लीला का धंधा बड़े चस्के का है । जिस को इस की लत लग जाती है वह किसी भी हालत में अभिनय करवा ही लेता है । डांट-डपट कर भी और मिन्नतें-खुशामदें कर के भी । वो इस नाटक जगत को बनाये रखने के लिए क्या कुछ नहीं करता । गालियाँ खाता जा रहा है । अपना जुलूस निकलवाता जा रहा है । जो इस का स्तुति गान करता है उसे और अधिक भूखा नंगा और लाचार करता जा रहा है । जो इस कि आलोचना करता है, धौंस जमाता है, रौब डालता है, जो इसे मानता ही नहीं, उसे बढ़िया से बढ़िया भूमिका देता जा रहा है । अनपढ़ को राजा बना रहा है। पढ़े लिखे को भिखारी का रोल भी मुश्किल से दे रहा है । निंदा करवा रहा है पर चस्का!  लालसा लीला की । नाटक का चस्का नहीं छूटता।

मुझे अपने आप पर हंसी आ जाती है । कोई बर्तन साफ़ कर रहा हो, किसी उद्योग का कोई स्वामी हो । देखता हूँ, जुबान ठीक है, कद –बुत, नाज़ नखरा ठीक है, बस मिन्नतें-खुशामदें कर के ले ही आता हूँ । भला कोई पूछे यदि यह अस्तबल न भरा जाए तो हर्ज़ भी क्या है ।

नही, जानवर लाने और इंसान बनाने। उन्हें स्टेज पर चढ़ाना। चाहे उन कि एड़ियाँ पकड़ कर क्यों न रखनी पडें या बैसाखियाँ थाम कर खड़ा रखना पड़े पर लीला ज़रूर करवानी। सब से रूठना, फिर स्वयं ही मान जाना। कोई मनाने नहीं आता । फिर सोचता हूँ ईश्वर को कौन मनाने जाता है जो मुझे मनाने आये । अपना काम करते जाओ।

मुकुट लगा कर एक दिन सोमू मेरे सामने आ खड़ा हुआ । मैंने पुछा सोमू क्या बात है? कहने लगा -" सर जी मैं यह मुकुट पहन कर दूकान पर जाऊं। लाला जी को दिखा आऊं। " मुझे हंसी भी आई और क्रोध भी । मैंने बड़े प्यार से उसे समझाया- "सोमू यह मुकुट, तीर कमान, दुम-मूछ दाड़ी यहाँ स्टेज पर ही ठीक लगते हैं। इन्हें बाहर नहीं ले जाते । " पर सोमू ने जिद पकड़ी थी कि वह अपने मालिक को दिखाना चाहता है कि वह राम बन रहा है । सो सोमू हठात उन्हें दिखा ही आया।

लीला का दिन आ गया । सारे हैरान थे । सोमू ऐसा जच कर रहा था कि दर्शकों की ओर से तालियाँ ही तालियाँ बज रही थी । उस के हर संवाद पर वाह वाह तथा तालियाँ ।

शो खत्म हुआ तो दो चार लोगों ने सोमू के लिए ईनाम भेजे जो सोमू को मंच पर ले जा कर दिलाये ।

सोमू भाव-विभोर था । लक्ष्मण और सीता सर थाम कर बैठे थे ।

ग्रीन रूम में अफरा तफरी थी। सारे मेकअप साफ़ कर रहे थे। अस्त्र शस्त्र और वस्त्र संदूखों में रख रहे थे । मूछें, दाड़ियाँ सभाल रहे थे । पर सोमू कहीं नज़र नहीं आ रहा था ।

मैंने चौधरी से कहा । चौधरी ने आ कर बताया कि सोमू अशोक वाटिका में बैठा हुआ है और वहां से उठ नहीं रहा है । मैं गया, मेरे साथ बहुत से लोग थे। सोमू को मेकअप उतारने के लिए कहा । पर सोमू मुकुट, तीर -कमान छोड़ने को तैयार नहीं हुआ । वह कहता जा रहा था -"अब मैं रामचंद्र जी हूँ । अब मैं लौट कर दुकान पर नहीं जाऊँगा ।" हम सब ने उसे पकड़ कर मंच पर से घसीटा, उस का मुकुट उतारा। तीर कमान और हार ज़बरदस्ती उतारे । फिर उसे बाहों और टांगों से पकड़ कर उस का कुर्ता धोती उतारे । पर सोमू निरंतर चिल्ला रहा था -"अब मैं रामचंद्र जी हूँ । अब मैं बापिस दुकान पर नहीं जाऊँगा । "हम सब ने उसे पकड़ कर मंच पर से घसीटा । पर सोमू निरंतर चिल्ला रहा था -"मैं अब रामचंद्र जी महाराज हूँ । मुझे लीला से नीचे न उतारो । मैं राम हूँ। मैं अब सोमू नहीं राम हूँ । हमारे सभी एक्टर हैरान परेशान थे।
(
अनुवाद : कपिल अनिरुद्ध )

Wednesday, 22 February 2023

umren

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Wednesday, 12 October 2022

yatra.pdf

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Tuesday, 26 January 2021

सागर की कहानी-66

 सागर की कहानी-66

हर पल को सार्थकता प्रदान करने वाले सारथी जी प्रयोग को ही अपना धर्म समझते और इन प्रयोगों के दौरान जो तत्व उन के हाथ लगते वो आज उन के गायन, चित्रों और साहित्य के रूप में कई हृदयों को झंकृत कर रहे हैं। अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति पूरी तरह से सजग सारथी जी साहित्य संगीत और कला के द्वारा समाज का ही श्रृंगार करते रहे। अपने पहले डोगरी उपन्यास ‘त्रेह समुद्र दी’ में वे लिखते हैं - नगर का श्रृंगार करते चले जाओ तुम्हारा क्षृंगार स्वतः ही हो जाएगा। उनके द्वारा बनाए चित्र आज भी कई मंदिरों, भवनों, घरों कथा संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं तथा देखने वाले के मन में प्रेम करुणा और दिव्यता के गुणों का विकास कर रहे हैं। उनके द्वारा निर्मित रेडियो, घड़ियां, पेन इत्यादि अनेक घरों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। कितनी ही पुस्तकों तथा पत्रिकायों के आवरण उनके रेखाचित्रों एवं चित्रों से सुसज्जित हैं। उनकी उर्दू ग़ज़ल का एक शेर इसी भाव को उजागर करता है।
खुद जल के तेरा हुस्न सजाने के लिए हूँ।
चेहरे पे नई धूप उगाने के लिए हूँ।
उनके साहित्य में ‘नगर’ शब्द बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। उनके साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास का हिंदी अनुवाद अशोक जेरथ जी ने ‘नगर मंथन’ नाम से किया है तथा अंग्रेजी में कर्नल शिवनाथ ने इसे churning of the city की संज्ञा दी है। वैसे शीर्षक ‘नंगा रुक्ख’ भी संस्कृति एवं मूल्यहीन हो रहे नगर की ओर संकेत करता है तथा पंजाबी उपन्यास ‘बिन पैरा दे धरती’ मूल्यहीन आधारविहीन धरती की पीड़ा को जुबान देता है। धरती से प्रेम के ही कारण सारथी जी ने अपने क्षेत्र में बोली जाने वाली मुख्य भाषाओं जैसे उर्दू हिंदी डोगरी और पंजाबी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। नगर से उनके प्रेम का परिचय उनके चित्रों, रेखाचित्रों के अतिरिक्त उनके द्वारा खींचे गए छायाचित्रों में भी मिलता है। मंदिरों के शहर की सड़कों, गलियों, नदियों, पहाड़ों, जड़ी-बूटियों, जानवरों इत्यादि ने इन में जगह पाई है।
पुरुषार्थ/ कर्म के महत्व का विवरण देते हुए सारथी जी लिखते हैं – ‘संसार में कर्म ही सबसे ऊंचा धर्म है। जो आदमी कर्म (सदकर्म) नहीं करता वह धार्मिक नहीं है, ना हो सकता है। सत्कर्म में सहायता, सेवा और सहानुभूति, मदद, खिदमत में हमदर्दी का जज़्बा, यह भाव प्रधान है। निर्बल और निर्धन की सहायता संसार का उच्चतम धर्म माना गया है। कुरान शरीफ में कहा गया है कि यदि आपके पड़ोस में कोई निर्धन भूखा सो गया है तो आपकी दुआ कबूल नहीं होगी। और अगर आपके देखते हुए कोई अंधा ठोकर खाकर गिर गया है तो सिजदा कबूल नहीं होगा।
सेवा के लिए शास्त्र ने धर्म शब्द बार-बार प्रयोग किया है। और तीन स्थलों की सेवा को परमार्थ का दर्जा दिया है। माता पिता की सेवा धर्म है। गुरु की सेवा धर्म है और वृद्ध तथा रोगी की सेवा परम धर्म है। बंधु, मोहनदास करमचंद गांधी राष्ट्रपिता और बापू इसलिए कहलाए कि वह कोढ़ी समाज में रहे। दलितों और हरिजनों को और निर्धनों को उन्होंने छाती से लगाये रखा। वे गाते थे - वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे, पर दुखे उपकार करे जो मन अभिमान न आने रे। धर्म है कोढ़ियों की, वृद्धों की, निर्धनों और भूमिहीनों और बेघरों की खिदमत। यदि कोई धर्म की परिभाषा कुछ और बताता है तो वह समाज का, मानव समाज का शत्रु है। वह गुरुजनों का शत्रु है। वह माता पिता का शत्रु है। वह निर्धनों, निराश्रयों, भूमिहीनों और रोगियों का शत्रु है। उसे मानव समाज में रहने का कोई नैतिक, धार्मिक अधिकार नहीं है’।...क्रमशः........कपिल अनिरुद्ध।

Tuesday, 28 April 2020

Sagar ki kahani-65 by kapil anirudh

सागर की कहानी - (65)
चिंतक, कला मर्मज्ञ, प्रयोगधर्मी साहित्यकार/ ऋषि श्री ओ० पी० शर्मा ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
सारथी जी के लिए धार्मिक होने का अर्थ सब के प्रति संवेदनशील होना होता। कई बार उन की बात हैरान कर देती जब वे कहते कि अपने पंथ, संप्रदाय, धर्म को दूसरे के पंथ, संप्रदाय अथवा धर्म से छोटा समझो। फिर इस वक्तव्य का अर्थ समझाते हुए वे कहते- यदि तुम्हारी धारणा के अनुसार, दूसरे का पंथ तुम्हारे पंथ से बढ़िया है तभी तुम उस का अध्ययन करोगे। बैसे भी बिना अध्ययन एवं अभ्यास के अपने मार्ग को बड़ा घोषित कर देना, सारे उपद्रवों की जड़ है। हाँ यदि अध्ययन के उपरांत तुम किसी भी निर्णय पर पहुँचते हो तो वह निर्णय अवश्य ही तुम्हारा निर्माण करेगा और तुम्हें निर्वाण कि ओर ले जायेगा।
गर्मियों के दिन हैं। शाम 6:00 - 7:00 के बीच का समय। कमरे में कुछ अंधेरा होने के कारण ट्यूब लाइट जल रही है। ट्यूब लाइट का दूधिया प्रकाश कमरे में फैल रहा है। कमरे की एक तरफ दो तीन कंबलों की तह पर थोड़ा झुक कर बैठे सारथी साहब कनवास पर रंगों का जादू बिखेर हैं। उन्हें घेर कर बैठे 3-4 जिज्ञासु आवाक से बैठे हैं। कोई हिलजुल नहीं मानों वे सब पत्थर की मूर्तियाँ हों। कुछ देर के बाद एक महिला और दो पुरुषों का अगुआ बन कर आए सुभाष जी कमरे में प्रवेश करते हैं और थोड़ा आगे बढ़कर कमरे का मौन भंग करते हुए कहते हैं - गुरु जी कान्वेंट स्कूल की प्रिंसिपल रोजलीमा जी आज फिर आप से मिलने आई हैं। स्कूल का प्रिंसिपल तथा एक और अध्यापक भी आए हैं। कनवास पर घूमता ब्रश रुक जाता है। पैलेट के रंग कनवास पर लगने के इंतजार में ही रह जाते हैं। कनवास पर दृष्टि जमाये जिज्ञासुओं का भी ध्यान भंग हो जाता है। सारथी जी खड़े होकर सारे मेहमानों का स्वागत करते हैं और फिर अतिथि देवो भव का परिचय मेहमानों को चाय बिस्कुट इत्यादि पेश कर दिया जाता है। रोजलीमा जी कुछ झिझकते हुए कहती हैं - पिछली बार आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। फिर पूछती हैं - क्या मैं भी आप को गुरुजी कह सकती हूँ। और फिर बिना उत्तर का इंतजार और बिना किसी अनुमोदन के कहती हैं - गुरु जी मैं आज यह निवेदन करने आई हूँ कि आप हमें जीसस क्राइस्ट के जीवन पर आधारित एक opera लिख दें। फिर पूछती हैं - आप को लिखने में कोई एतराज तो नहीं। सारथी जी एक हल्का सा ठहाका लगते हैं और कहते हैं - मैंने आपको पहले भी कहा था कि मेरे मन में कृष्ण और जीसस क्राइस्ट में कोई भेद नहीं। मैं जीसस क्राइस्ट के प्रति वही श्रद्धा रखता हूं जो मेरे मन में श्री कृष्ण के प्रति है । मैं opera (नृत्य नाटिका ) जरुर लिख दूँगा और यदि आप चाहेंगी तो नृत्य नाटिका का संगीत निर्देशन और निर्देशन भी कर दूँगा। फिर उनकी तरफ देख कर कहते हैं - गुरु जी मेरे मन में भी आपके प्रति भी बहुत श्रद्धा है। रोजलीमा जी की खुशी उनके होठों पर मुस्कुराहट बन बिखर जाती है और वह कुछ कहते कहते रुक जाती है। सारथी जी कहते हैं - आप कुछ कहना चाहती हैं बेझिझक कहिए। थोड़ा हौसला बटोर रोजलीमा जी कहती हैं - गुरु जी आप एक चित्रकार हो, संगीतकार हो, साहित्यकार हो, आयुर्वेदाचार्य हो, धर्मगुरु हो, और पता लगा है कि आप ने बहुत सारी भाषाओं में दार्शनिक - आध्यात्मिक लेख भी लिखें हैं। इतना सब कुछ किस तरह हो सकता है। कौन कर सकता है। साथी जी का उन्मुक्त ठहाका फिर गूंज जाता है। आप पूछ रहे हैं मैंने इतना सब क्यों किया। रोजलीमा जी को कोई उत्तर नहीं सूझता। शब्द साथ नहीं देते। झिझक एक बार फिर उन्हें घेर लेती है। फिर अपने आप को बटोरते हुए कहती है- मेरे कहने का मतलब दूसरा था मैं तो यह पूछना चाह रही थी कि कोई इतना सब कुछ कैसे कर सकता है। सारथी जी गंभीर स्वर में कहते हैं - मैं सृजन हेतु यहां नहीं आया। मैं एक दर्शक बन के या बना के यहाँ भेजा गया हूँ। देखने और समझने के लिए कि स्वर और व्यंजन का रूप कैसे बना। रंग क्या कहते हैं, कैसे कहते हैं। रेखाओं पर संसार टिका हुआ है। यदि संसार रूपी भवन में से रेखाओं के स्तम्भ निकाल दिया जाए तो सब राख़ बन कर ढह जाएगा। रेखा ही आहत नाद है। रेखा ही अक्षर है। रेखा ही हर वस्तु और जीव जंतु का नाम है। रेखा ही भाषा का लिखित रूप है। फिर मूल रंग तीन क्यों हैं। सात किस तरह बन गए। सप्ताह के सात दिन हैं, सप्तऋषि हैं। यह सब सात क्यों। मैं तो पल पल अब भी यही चाहता हूँ कि देखता चलूँ। बहुत सारी वस्तुएं बहुत सारे कोणों से। क्योंकि इस जन्म के दोबारा मिलने पर मुझे संदेह है। मेरे होने का परिपेक्ष्य इस बात पर तिक कर स्पष्ट होने की मांग करता है कि यह जीवन जिस का मैं बहुत समय से अध्ययन करता आ रहा हूँ वह दोबारा नहीं मिलेगा। यह हाथ, पैर, आंखें, भाषा, समझ दोबारा कभी भी नहीं मिलेगी। गया को गया।

Wednesday, 27 March 2019

सागर की कहानी (64)

सागर की कहानी (64) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
आज जब हर शब्द अपने दिव्य मूल अर्थों से दूर होता जा रहा है। जब हर शब्द अपनी ओजस्विता, अपना वैभव खोता जा रहा है। ऐसे में एक सजग रचनाकार अपनी लेखनी द्वारा शब्दों को उन की खोई गरिमा प्रदान करने का वृहद कार्य करता है। वैसे आज जितना दुरुपयोग ‘धर्म’ शब्द का हुआ है उतना शायद ही किसी पावन, पुनीत शब्द का हुआ होगा। इसी शब्द के पुनरुत्थान हेतु सारथी जी लिखते हैं – ‘मेरे लिए धर्म का अर्थ सबका होना, सबके लिए जीना परंतु अपने लिए किसी को भी जीने के लिए बाध्य ना करना है’ ।
धर्म का संबंध किसी वर्ग विशेष, जाति विशेष, संप्रदाय अथवा वेशभूषा से कदापि नहीं है। धर्म का संबंध तो उन लक्षणों से है जिन्हें धारण किया जाना है। वास्तव में धर्म हमें धारण करता है तभी कहा गया है धारयति इति धर्म। जो जोड़े, अलगाव को दूर करे, सभी को एक सूत्र में बांधे वही धर्म है। इसी संबंध में सारथी जी अक्सर यह श्लोक सुनाया करते
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचम इंद्रियनिग्रह।
धीर विद्या सत्यम अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥
धृति(धैर्य), क्षमा (अपकार करने वाले का भी उपकार करना), दम (हमेशा विवेकी हो संयम से सत्कर्म में लगे रहना), अस्तेयं (चोरी ना करना), शौचं (भीतरी, बाहरी पावनता) इंद्रियनिग्रह (इंद्रियों का अंतर्मुखी हो जाना), धीर (धीरता), विद्या (यथार्थ का ज्ञान होना), सत्यं ( सत्य का उद्घाटन/सदैव सत्य आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़ हमेशा शांत रहना)। धृति, क्षमा, दम एवं अस्तेयं का अभ्यास करने वाले साधक की इंद्रियां अंतर्मुखी होने लगती है ऐसा धीर, वीर पुरुष ही यथार्थ ज्ञान का अधिकारी होता है तथा उसे ही सत्य की प्राप्ति होती है और अंततः ऐसा साधक कभी न समाप्त होने वाली शांति में स्थित हो जाता है।
धर्म मेरा या तुम्हारा नहीं होता, धर्म, धर्म होता है तथा संपूर्ण मानव जाति का कल्याण ही इसका ध्येय है। इस तथ्य की विवेचना करते हुए सारथी जी लिखते हैं -‘यदि तुम हर क्षण प्रभु को स्मरण कर यह प्रार्थना करो कि हम हे प्रभु मुझे एक ही वरदान दो कि क्या सत्य है, यह देख पाएँ। क्या माया है, क्या अविद्या है, क्या अस्पष्ट है, क्या रहस्य है और भेद है यह भी देख पाएँ। यह सही है कि शरीर अलग अलग होने के साथ दृष्टि और अनुभूति अलग अलग होने के कारण यह लगता है कि कोई गुरु पंथ को और गुरु मत को स्वीकार करते हैं। दूसरे यशु के अनुसरणकर्ता हैं और एक भारी वर्ग हजरत मोहम्मद साहब को, उनके संदेश को ही प्राथमिकता देता है। और कोई भगवान बुद्ध की ही बात में विश्वास करता है। यही तलाश है कि यह सभी अलग-अलग मार्गों पर चलने वाले क्या अंत में अलग-अलग स्थानों और मंजिलों को प्राप्त करते हैं अथवा यह सभी एक ही प्रकाश को उपलब्ध होते हैं। इसी तलाश के द्वारा तुम्हारे भौतिक, लौकिक और पदर्थिक मतभेदों का समाधान हो सकता है। परंतु खोज करते हुए तुम्हें एक मंत्र और स्मरण रखना है कि तुम धर्म की खोज कर रहे हो, अपने धर्म की खोज नहीं कर रहे हो। इससे यह समझ लो कि यदि धर्म तुम्हारा अपना है तो वह तुम्हें तो उपलब्ध होगा ही परंतु संभव है वह सर्व को तुम्हारे लिए अपने साथ ना ला सके और उपलब्धि के पश्चात जिन रहस्यों के उद्घाटन की संभावना है और जिस प्रकाश के घटित होने की आकांक्षा है, वह कभी न हो। दूसरी ओर यदि तुम मेरे तेरे को तज कर मात्र धर्म की खोज करते हो तो तुम किसी भी प्राणी को एक और छोड़ कर, किसी भी जड़ अथवा चेतन को एक और हटाकर, तुम कहीं भी पहुंच सकते हो और शीघ्र पहुंच सकते हो। एक और बात है यदि तुम्हारे दृश्य में अहिंसा और दया का भरपूर स्रोत है तो संसार में कहे जाने वाले, माने जाने वाले किसी विशेष धर्म का नाम लो कि अब अमुक धर्म से जुड़ गए हो और मुझे यह भी बताओ कि किस धर्म से विलग हो गए हो। और यदि तुमने प्रभु से मिलने के लिए विशेष मार्ग अपना लिया है, प्रेम का मार्ग अपना लिया है तो तुम पर मुहर किस धर्म की लगती है, और कौन सा धर्म तुम्हें अस्वीकार करता है।
.......क्रमशः ...............कपिल अनिरुद्ध