सागर की कहानी (64) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
आज जब हर शब्द अपने दिव्य मूल अर्थों से दूर होता जा रहा है। जब हर शब्द अपनी ओजस्विता, अपना वैभव खोता जा रहा है। ऐसे में एक सजग रचनाकार अपनी लेखनी द्वारा शब्दों को उन की खोई गरिमा प्रदान करने का वृहद कार्य करता है। वैसे आज जितना दुरुपयोग ‘धर्म’ शब्द का हुआ है उतना शायद ही किसी पावन, पुनीत शब्द का हुआ होगा। इसी शब्द के पुनरुत्थान हेतु सारथी जी लिखते हैं – ‘मेरे लिए धर्म का अर्थ सबका होना, सबके लिए जीना परंतु अपने लिए किसी को भी जीने के लिए बाध्य ना करना है’ ।
धर्म का संबंध किसी वर्ग विशेष, जाति विशेष, संप्रदाय अथवा वेशभूषा से कदापि नहीं है। धर्म का संबंध तो उन लक्षणों से है जिन्हें धारण किया जाना है। वास्तव में धर्म हमें धारण करता है तभी कहा गया है धारयति इति धर्म। जो जोड़े, अलगाव को दूर करे, सभी को एक सूत्र में बांधे वही धर्म है। इसी संबंध में सारथी जी अक्सर यह श्लोक सुनाया करते
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचम इंद्रियनिग्रह।
धीर विद्या सत्यम अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥
धृति(धैर्य), क्षमा (अपकार करने वाले का भी उपकार करना), दम (हमेशा विवेकी हो संयम से सत्कर्म में लगे रहना), अस्तेयं (चोरी ना करना), शौचं (भीतरी, बाहरी पावनता) इंद्रियनिग्रह (इंद्रियों का अंतर्मुखी हो जाना), धीर (धीरता), विद्या (यथार्थ का ज्ञान होना), सत्यं ( सत्य का उद्घाटन/सदैव सत्य आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़ हमेशा शांत रहना)। धृति, क्षमा, दम एवं अस्तेयं का अभ्यास करने वाले साधक की इंद्रियां अंतर्मुखी होने लगती है ऐसा धीर, वीर पुरुष ही यथार्थ ज्ञान का अधिकारी होता है तथा उसे ही सत्य की प्राप्ति होती है और अंततः ऐसा साधक कभी न समाप्त होने वाली शांति में स्थित हो जाता है।
धर्म मेरा या तुम्हारा नहीं होता, धर्म, धर्म होता है तथा संपूर्ण मानव जाति का कल्याण ही इसका ध्येय है। इस तथ्य की विवेचना करते हुए सारथी जी लिखते हैं -‘यदि तुम हर क्षण प्रभु को स्मरण कर यह प्रार्थना करो कि हम हे प्रभु मुझे एक ही वरदान दो कि क्या सत्य है, यह देख पाएँ। क्या माया है, क्या अविद्या है, क्या अस्पष्ट है, क्या रहस्य है और भेद है यह भी देख पाएँ। यह सही है कि शरीर अलग अलग होने के साथ दृष्टि और अनुभूति अलग अलग होने के कारण यह लगता है कि कोई गुरु पंथ को और गुरु मत को स्वीकार करते हैं। दूसरे यशु के अनुसरणकर्ता हैं और एक भारी वर्ग हजरत मोहम्मद साहब को, उनके संदेश को ही प्राथमिकता देता है। और कोई भगवान बुद्ध की ही बात में विश्वास करता है। यही तलाश है कि यह सभी अलग-अलग मार्गों पर चलने वाले क्या अंत में अलग-अलग स्थानों और मंजिलों को प्राप्त करते हैं अथवा यह सभी एक ही प्रकाश को उपलब्ध होते हैं। इसी तलाश के द्वारा तुम्हारे भौतिक, लौकिक और पदर्थिक मतभेदों का समाधान हो सकता है। परंतु खोज करते हुए तुम्हें एक मंत्र और स्मरण रखना है कि तुम धर्म की खोज कर रहे हो, अपने धर्म की खोज नहीं कर रहे हो। इससे यह समझ लो कि यदि धर्म तुम्हारा अपना है तो वह तुम्हें तो उपलब्ध होगा ही परंतु संभव है वह सर्व को तुम्हारे लिए अपने साथ ना ला सके और उपलब्धि के पश्चात जिन रहस्यों के उद्घाटन की संभावना है और जिस प्रकाश के घटित होने की आकांक्षा है, वह कभी न हो। दूसरी ओर यदि तुम मेरे तेरे को तज कर मात्र धर्म की खोज करते हो तो तुम किसी भी प्राणी को एक और छोड़ कर, किसी भी जड़ अथवा चेतन को एक और हटाकर, तुम कहीं भी पहुंच सकते हो और शीघ्र पहुंच सकते हो। एक और बात है यदि तुम्हारे दृश्य में अहिंसा और दया का भरपूर स्रोत है तो संसार में कहे जाने वाले, माने जाने वाले किसी विशेष धर्म का नाम लो कि अब अमुक धर्म से जुड़ गए हो और मुझे यह भी बताओ कि किस धर्म से विलग हो गए हो। और यदि तुमने प्रभु से मिलने के लिए विशेष मार्ग अपना लिया है, प्रेम का मार्ग अपना लिया है तो तुम पर मुहर किस धर्म की लगती है, और कौन सा धर्म तुम्हें अस्वीकार करता है।
.......क्रमशः ...............कपिल अनिरुद्ध
धर्म का संबंध किसी वर्ग विशेष, जाति विशेष, संप्रदाय अथवा वेशभूषा से कदापि नहीं है। धर्म का संबंध तो उन लक्षणों से है जिन्हें धारण किया जाना है। वास्तव में धर्म हमें धारण करता है तभी कहा गया है धारयति इति धर्म। जो जोड़े, अलगाव को दूर करे, सभी को एक सूत्र में बांधे वही धर्म है। इसी संबंध में सारथी जी अक्सर यह श्लोक सुनाया करते
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचम इंद्रियनिग्रह।
धीर विद्या सत्यम अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥
धृति(धैर्य), क्षमा (अपकार करने वाले का भी उपकार करना), दम (हमेशा विवेकी हो संयम से सत्कर्म में लगे रहना), अस्तेयं (चोरी ना करना), शौचं (भीतरी, बाहरी पावनता) इंद्रियनिग्रह (इंद्रियों का अंतर्मुखी हो जाना), धीर (धीरता), विद्या (यथार्थ का ज्ञान होना), सत्यं ( सत्य का उद्घाटन/सदैव सत्य आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़ हमेशा शांत रहना)। धृति, क्षमा, दम एवं अस्तेयं का अभ्यास करने वाले साधक की इंद्रियां अंतर्मुखी होने लगती है ऐसा धीर, वीर पुरुष ही यथार्थ ज्ञान का अधिकारी होता है तथा उसे ही सत्य की प्राप्ति होती है और अंततः ऐसा साधक कभी न समाप्त होने वाली शांति में स्थित हो जाता है।
धर्म मेरा या तुम्हारा नहीं होता, धर्म, धर्म होता है तथा संपूर्ण मानव जाति का कल्याण ही इसका ध्येय है। इस तथ्य की विवेचना करते हुए सारथी जी लिखते हैं -‘यदि तुम हर क्षण प्रभु को स्मरण कर यह प्रार्थना करो कि हम हे प्रभु मुझे एक ही वरदान दो कि क्या सत्य है, यह देख पाएँ। क्या माया है, क्या अविद्या है, क्या अस्पष्ट है, क्या रहस्य है और भेद है यह भी देख पाएँ। यह सही है कि शरीर अलग अलग होने के साथ दृष्टि और अनुभूति अलग अलग होने के कारण यह लगता है कि कोई गुरु पंथ को और गुरु मत को स्वीकार करते हैं। दूसरे यशु के अनुसरणकर्ता हैं और एक भारी वर्ग हजरत मोहम्मद साहब को, उनके संदेश को ही प्राथमिकता देता है। और कोई भगवान बुद्ध की ही बात में विश्वास करता है। यही तलाश है कि यह सभी अलग-अलग मार्गों पर चलने वाले क्या अंत में अलग-अलग स्थानों और मंजिलों को प्राप्त करते हैं अथवा यह सभी एक ही प्रकाश को उपलब्ध होते हैं। इसी तलाश के द्वारा तुम्हारे भौतिक, लौकिक और पदर्थिक मतभेदों का समाधान हो सकता है। परंतु खोज करते हुए तुम्हें एक मंत्र और स्मरण रखना है कि तुम धर्म की खोज कर रहे हो, अपने धर्म की खोज नहीं कर रहे हो। इससे यह समझ लो कि यदि धर्म तुम्हारा अपना है तो वह तुम्हें तो उपलब्ध होगा ही परंतु संभव है वह सर्व को तुम्हारे लिए अपने साथ ना ला सके और उपलब्धि के पश्चात जिन रहस्यों के उद्घाटन की संभावना है और जिस प्रकाश के घटित होने की आकांक्षा है, वह कभी न हो। दूसरी ओर यदि तुम मेरे तेरे को तज कर मात्र धर्म की खोज करते हो तो तुम किसी भी प्राणी को एक और छोड़ कर, किसी भी जड़ अथवा चेतन को एक और हटाकर, तुम कहीं भी पहुंच सकते हो और शीघ्र पहुंच सकते हो। एक और बात है यदि तुम्हारे दृश्य में अहिंसा और दया का भरपूर स्रोत है तो संसार में कहे जाने वाले, माने जाने वाले किसी विशेष धर्म का नाम लो कि अब अमुक धर्म से जुड़ गए हो और मुझे यह भी बताओ कि किस धर्म से विलग हो गए हो। और यदि तुमने प्रभु से मिलने के लिए विशेष मार्ग अपना लिया है, प्रेम का मार्ग अपना लिया है तो तुम पर मुहर किस धर्म की लगती है, और कौन सा धर्म तुम्हें अस्वीकार करता है।
.......क्रमशः ...............कपिल अनिरुद्ध
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