घड़ी साज ----सारथी
जितनी जल्दी हो सके किसी टीले पर चढ़ जाओ । यह तो तुम्हारी अपनी वीरता होगी कि चढ़ने के लिए कितना ऊंचा टीला तुम ढूँढ सकते हो । टीले पर चढ़ कर ऐसा होगा कि वह सब जो तुम्हे तुम्हारे कद के, तुम से छोटे और तुम से बड़े दिखाई दे रहे थे, कुछ नीचे छूट जायेंगे । फिर पहली स्तिथि में तुम्हे केवल बहुत समीप के, साथ साथ डोलते और टकराते और तुम्हे कुहनियों से घायल करते और तुम्हारी कुहनियों से घायल होते लोग ही मिलेंगे । उन्ही में रह कर पीट कर या पिट कर तुम्हे चलने पर विवश रहना होगा । एक और हानि जो तुम्हे पहली स्तिथि में प्रतिदिन होती है वह है मात्र उनता ही ज्ञान जितना बहुत समीप है । तुम कूप-मंडूक भी कहे जा सकते हो ।
अब दूसरी स्तिथि में टीले पर चढ़ कर एक आत्मिक लाभ यह हुआ कि तुम पहले से कहीं दूर तक दृष्टि दौड़ा सकते हो । तुम्हे और भी लोग अब दिखाई दे रहे हैं । फिर अब जब तक तुम ऊंचाई पर हो भिडंत का भय नहीं है । भिडंत का भय तब होगा जब कोई दूसरा टीले तक की ऊंचाई पर चढ़ आएगा ।
परन्तु सब से बड़ा लाभ तुम्हे जो हुआ तुम जिस नर्क और अन्धकार से ऊपर उठे वह स्तिथि थी सदैव तुलना की, तुलनात्मक रहने की । यह एक प्रवृति है जो मानव का बाहर से कल्याण करने में सहायक दिखाई देती है और भीतर के भावों का, बुद्धि और ज्ञान का, प्रेम और दया जैसे दैवी गुणों का सर्वनाश कर देती है । आदमी को पशु से भी गिरा कर पिशाच बन देती है । इसीलिए कहता हूँ किसी टीले पर चढ़ जाओ और कुछ अनुभव करो ।
वह पी एच डी है, मैं नहीं । वह reader हो गया मैं lecturer रह गया । वह superintendent हो गया मैं क्लर्क रह गया । उस के पास कलर टी वी और फ्रिज है, मेरी पत्नि के तन पर खादी की साड़ी भी नहीं । उस के पास स्कूटर है मेरे पास टूटी साईकल। यदि यह सब यहीं पर समाप्त हो जाए तो हानि कम होगी । परन्तु तुलना तो पत्नि की सुन्दरता, बिजली के किराये और बर्थ डे पर उपहार ....इन सभी विषयों पर भी हो सकती है । संतान के स्तर पर लड़के और लड़कियां और लिंगात्मक तुलना ।
अब तुम्हे होना क्या है । जब तुम सदैव कभी छोटे कभी बड़े, कभी नीचे कभी ऊंचे, कभी गरीब कभी अमीर, कभी विद्वान कभी अनपढ़ इन बेकार व्यर्थ और असाध्य झूलों और झंझटों में लिप्त हो कर अपना मानसिक संतुलन और विचार शक्ति खो देते हो। उस पर दुखांत यह की अपने अन्त:करण में मात्र इर्ष्या और द्वेषाग्नि को जला लेने से कोई लाभ तो होता नहीं, तुम चंगे भले आदमी होते हुए रोगी हो जाते हो । और फिर रोगों को तुलनायों और विवशतायों को ही जीवन की विद्या, निति जान कर, उसे मूल्य ले कर जीना प्रारंभ कर देते हो, जीते हो ।
तुलना तो इतन संकीर्ण बना सकती है कि वह वस्त्र के रंग, आसन के बिछने, जल के कम अधिक होने, इश्वर प्रिय होने न होने, संध्या बंदन करने और न करने, दोनों ही पक्षों के मध्य बैठ कर एक मीठी इर्ष्या, मीठी निंदा, मीठे द्वेष में हर समय, हर क्षण तुम्हारे पर भूत की भांति सवार रहती है। फिर अपने साथ ही तुम ऐसा व्यवहार करते हो, जो एक शत्रु के साथ भी नहीं करता । तुम अपने ही शत्रु बन जाते हो । असंतोष का राक्षस तुम्हे घेरे रहता है। जो वस्तु तुम्हे प्राप्त नहीं है वह दूसरों को प्राप्त देख कर तुम्हारी गालियों का शिकार भाग्य, भगवान् और वे सभी लोग हो जाते हैं जो तुम्हारी दृष्टि में सुख भोग रहे होते हैं ।
टीले पर चढ़ने का सीधा मतलब पदार्थ में से निकल आने का है । ऊपर उठने का और आध्यात्मिक प्रवृति का होना और अन्तर्मुखी हो जाना है । ऊपर हो जाने का अर्थ बड़े और विशाल हो जाना है । सहनशील हो जाना और सब से बड़ी बात संतुष्ट हो जाना है । ऊपर हो जाने का अर्थ सब को संपन देखना और दूसरों की सम्पन्नता में आनंद का अनुभव है और यह अनुभव तुम्हे परमार्थ और परोपकार के रास्ते पर ड़ाल देता है । जहाँ पर तुम अपने लिए कदापि चिंतित नहीं होते हो । निहित स्वार्थों को तिलांजलि दे देते हो और अपनी अकांक्षायों को वहीँ तक बढ़ाते हो जहाँ तक ईमानदार और कर्तव्यपरायण हो कर तुम क्रियात्मक रूप में पहुँच सको ।
यदि तुम एक क्षण के लिए तुलना में से निकल कर सामने आ सकते हो तो आ जाओ । फिर तुम देखोगे कि तुम सच में संसार के महान व्यक्तियों में से एक हो । तुम देखोगे कि तुम उन सब में हो जो भक्त हैं, ज्ञानी हैं, विवेकशील हैं, बुद्धिमान हैं , कर्मठ हैं, जो संतुष्ट हैं ।
सब से बड़ी बात एक परिवर्तन की अनुभूति होगी। तुम देखोगे की सभी लोग क्रोध से घृणा करेंगे । सभी लोग शांति चाहेंगे, सुख समृद्धि और निरोग की कामना करेंगे । सभी ऊपर उठ जायेंगे । सारा समाज श्रेष्ठ हो जायेगा । समस्त मानव समाज ही स्वर्ग की अनुभूति करने लगेगा ।
प्रिय श्री ! तुम से अक्षण तो ऐसा होगा नहीं । धीरे धीरे स्वयं मैं परिवर्तन लाओ । धीरे धीरे संतोष को अंतस में भरने का प्रयत्न करो । धीरे धीरे तुलना के गुण दोष का विश्लेषण करो । और तुलना को जब तक तुम भली भांति जान नहीं लेते । उसे अर्जित नहीं कर लेते, तब तक तुम इसमें से निकल ही नहीं सकते । तब तक इसमें से कोई नहीं निकल सकता ।
this article of gurudev was published in dainik kashmir times under the title (ghari-saaj).
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ReplyDeleteजब मैं किसी दुसरे से तुलना करता हूँ या तो दूसरा मुझ से छोटा निकलता है अथवा बड़ा । यदि कोई मुझ से छोटा होता है तो मैं अहंकार से भर जाता हूँ और यदि जिस से तुलना की जा रही है वह मुझे मुझ से बड़ा महसूस होता है तो मैं हीन भाव से ग्रस्त हो जाता हूँ । तो किसी भी सूरत तुलना जीने नहीं देती तथा तुलना के ज्ञात दोनों रास्ते भटकाते हैं, समाधान के रूप में गुरुदेव तुलना से बाहर निकल आने का तीसरा रास्ता सुझाते हैं । यह तीसरा रास्ता ही संतोष की ओर ले जाता है । यह तीसरा रास्ता ही तुलना के रोग का रामबाण ईलाज है ।
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