सारथी कला निकेतन (सकलानि)
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Friday, 31 August 2012
Thursday, 30 August 2012

श्री सारथी उवाच ..................
मैं यह कहूँगा कि यदि केंद्र बिंदु दृढ़ता से पकड़ लिया जाए तो किसी भी समय गोलाकार बनाया जा सकता है । परन्तु यदि केंद्र बिंदु खोजा नहीं गया अथवा गलत, ढीला और दुर्बल खोजा गया है तो जितने भी गोलाकार और गोल आकृतियाँ बनेंगे वह विकृत होंगी । यदि केंद्र है तो आकृतियाँ हों चाहे न हों, कोई अंतर नहीं पड़ता । परन्तु यह सर्वदा असंभव है कि केंद्र न हो और आकृतियाँ और गोलाकार हों ।
Tuesday, 28 August 2012
Monday, 27 August 2012
घड़ी साज ---- गुरुदेव सारथी जी
जब तुम तैयार ही नहीं हो, तो गुरु को क्या करोगे ? जब तुम स्वयं ही डांवाडोल हो, स्वयं में ही तुम्हे विश्वास नहीं है, दृढ़ता नहीं है, तुम्हे अपने ही कुछ होने पर संशय है तो गुरु आकर क्या करेगा? यह एक सिद्धांत है जिस को तुम्हे अपनाना होगा कि जब तक स्वयं में थोड़ी बहुत भी गलत या सही चेतना का आभास होता रहेगा, तुम्हे हर गुरु जड़ ही लगेगा । जब तक तुम स्वयं को थोडा बहुत विद्वान समझते रहोगे तब तक तुम्हे गुरु मूर्ख लगेगा। जब तक तुम स्वयं को 'कुछ' समझते रहोगे गुरु तुम्हे "कुछ नहीं" दिखाई देगा ।
इस का कारण है । संसार में जितनी भी उपलब्धियां आज तक हुई हैं वे सारी साधक के अपने परिश्रम, अपनी लगन और अपने संघर्ष से हुई है । गुरु का महत्व प्रकाश का है । रास्ता अंधकारपूर्ण हो तो प्रकाश की अत्याधिक आवश्यकता पड़ती है । अन्धकार में तुम पग पग पर भटकते हो । ठोकर भी खाते ही हो । तो प्रकाश अनुपस्थित है । प्रकाश हो जाने की स्थिति में, परिस्थिति में, वातावरण में कुछ नहीं बदला। केवल इतना हुआ कि कौन वस्तु क्या और कैसी है और कहाँ पड़ी है , यह सब कुछ साफ़ दिखाई देने लगा है । तुम्हारे भीतर, तुम एक अँधेरे कमरे के समान हो और उस में तुम्हे स्वयं ही घूमना है । भीतर इतनी भयानकता है कि तुम भय के मारे अपने ही भीतर घुस नहीं सकते । भीतर झांकते हो तो तारीकी (अँधेरा) है, तुम्हे बस थोडा सा ज्ञान है कि उस कमरे में डरावने लोग रहते हैं । प्राय: वह तुम्हे अपने ही स्वार्थ, कामनाएं, वासनाएं, अभिलाषाएं तुम्हारे अपने ही काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकारदि ही हैं । परन्तु यह कमरा तुम्हारा ही है और तुम स्वामी हो कर इसकी और मुंह नहीं कर सकते । यह एक त्रासदी है । विघटन है। और दुखांत तुम्हारा है ।
गुरु केवल इतना ही करता है कि रौशनी जलाकर तुम्हारे अपने ही कमरे को प्रकाशमान कर देता है । और तुम देख सकते हो कि कहाँ कौन सा चोर बैठा है । यह तुम्हारा अपना कार्य है । गुरु को तुम्हारे घर से कोई गर्ज़ नहीं है जब तक कि तुम गुरु को इतना विश्वास नहीं दिलाते हो कि गुरु के बिना तुम बुरी मौत मरने वाले हो । और गुरु के मिलने पर ही तुम जीवन को प्राप्त हो सकते हो । और तुम एक उच्च कल्पना और धारणा के स्वच्छ जीवन, उस के द्वारा संघर्ष के लिए कटिबद्ध हो सकते हो ।
एक बात याद रखने की है पुत्र ! कोई यदि तुम्हे यह कहता फिरता है कि वह तुम्हारा उद्धार करेगा, उसे गुरु धारण करो । तो ऐसे महत्वकांक्षी आदमी को शिष्य भी बनाना शिष्य शब्द का अपमान है ।
एक बहुत ही प्रासंगिक कथा है । अति सुंदर! एक जागीरदार के भक्त नौकर ने कहा कि जागीरदार जी- आप के पास सब कुछ है । अच्छे से गुरु को धार कर जीवन सफल क्यों नहीं कर लेते ? जागीरदार के मन को बात लगी । चाबुक पकड़ी। घोड़ी पर चढ़ा । और दादू संत की कुटिया में पहुंचा । वहां शिष्यों से पुछा -महात्मा दादू, कहाँ हैं ? उत्तर मिला राह में कंकर पत्थर और कांटे चुन रहे हैं । जागीरदार लज्जित हुआ, कहा - मैं तो उन को गुरु धारण करने आया था । अब कौन सा मुंह ले कर उन के पास जाऊं । मैं आती बार उन्हें पांच सात चाबुक मार आया हूँ । उन से उन्ही का पता पूछा था । वह बोले नहीं । मुझे क्रोध आया । मैंने जड़ दी।
-हमारे गुरु दादू बड़े दयालु हैं । क्षमा की प्रतिमूर्ति हैं । आप जाएँ । वे आप की मनोकामना पूरी करेंगे । जागीरदार लौट कर गया और दादू जी के चरण पकड़ कर बोला - महाराज मुझे क्षमा करें । मैं तो आप को गुरु धारण करने आया था । परन्तु आप को पीट दिया ।
-तुम ने कुछ नहीं किया, दादू बोले । - एक आदमी चार आने की हंडिया खरीदता है तो बीस बार ठनका बजा कर । तुम तो गुरु धारण करोगे । परीक्षा लो
पुत्र! गुरु को परखो । अंतिम बिंदु तक परखो । परीक्षा लो।
उस के ज्ञान और धैर्य की । क्योंकि तुम अपना सर्वस्व उसे सौंपने वाले हो ।
Sunday, 26 August 2012
श्री सारथी उवाच ..................
...... "तुम क्यों न ऐसी स्थिति के लिए साधना करो, जो न दुःख की स्थिति है और न ही सुख की स्थिति है। बल्कि दोनों के मध्य की स्थिति है । एक ऐसा बिंदु, एक ऐसा मुकाम जिस पर पहुँच कर यह अहसास हो कि दुःख यहाँ पर समाप्त हो गया है, और यहीं से सुख प्रारंभ होने वाला है । और जहाँ पर सुख समाप्त हो गया है, और दुःख प्रारंभ होने को है । तुम ऐसी स्थित पर पहुँच सकते हो जहाँ न सुख हो और न ही दुःख हो । और फिर तुम्हे एक नए जीवन का, एक नए विश्व का और एक नए मानव का साक्षात्कार हो । और यह स्थिति काफी सहज है । तुम्हारे जितने दुःख हैं उन में से सब से बड़ा दुःख पहचानो । उसे नाम दो । और उस कि तलाश करो । और तलाश करने पर तुम्हे ज्ञान होगा कि जीवन में सब से बड़े दुःख का निर्माण और किसी ने नहीं किया, स्वयं तुम ने ही किया है । तो दुखों कि फैक्ट्री मत बनो दुखों को manufacture मत करो ।"
...... "तुम क्यों न ऐसी स्थिति के लिए साधना करो, जो न दुःख की स्थिति है और न ही सुख की स्थिति है। बल्कि दोनों के मध्य की स्थिति है । एक ऐसा बिंदु, एक ऐसा मुकाम जिस पर पहुँच कर यह अहसास हो कि दुःख यहाँ पर समाप्त हो गया है, और यहीं से सुख प्रारंभ होने वाला है । और जहाँ पर सुख समाप्त हो गया है, और दुःख प्रारंभ होने को है । तुम ऐसी स्थित पर पहुँच सकते हो जहाँ न सुख हो और न ही दुःख हो । और फिर तुम्हे एक नए जीवन का, एक नए विश्व का और एक नए मानव का साक्षात्कार हो । और यह स्थिति काफी सहज है । तुम्हारे जितने दुःख हैं उन में से सब से बड़ा दुःख पहचानो । उसे नाम दो । और उस कि तलाश करो । और तलाश करने पर तुम्हे ज्ञान होगा कि जीवन में सब से बड़े दुःख का निर्माण और किसी ने नहीं किया, स्वयं तुम ने ही किया है । तो दुखों कि फैक्ट्री मत बनो दुखों को manufacture मत करो ।"
Friday, 24 August 2012
Wednesday, 22 August 2012
श्री सारथी उवाच ..................
"परम को प्रभु को 'प्रकाश का सागर' भी कहा गया है । और मुझे विश्वास है कि यदि एक कलाकार, चाहे वह कवि है, गद्यकार है, शिल्पी है, नर्तक है, अनुसन्धानकर्ता है अथवा चित्रकार है, यदि वह सत्य के लिए भटकता है । सत्य ही की खोज में रहता है और प्रकाश का साक्षात करने का पिपासु है तो वह भक्त है । भक्त ही है । और जो भी कलाकार सूक्ष्मभावी नहीं है , विनम्र नहीं है और सत्य का उपासक नहीं है वह उस विनम्र, सूक्षम और सत्य रुपी प्रकाश को जन्म जन्मान्तर देख नहीं पाता। न वह स्वयं को प्रकाशमय कर सकता है, न ही अपनी रचना द्वारा औरों को कोई अनुभूति ही दे सकता है। यही स्थिति भक्ति और भक्त, उपासना और उपासक की है । यदि उपासक उतना ही सूक्षम नहीं हो जाता जितना कि सत्य है, जितना कि प्रकाश है वह प्रकाश को न तो अनुभव ही कर सकता है और न ही दर्शा ही सकता है । साधना में आह्वान तथा आलंबन का विशेष महत्व है ।
तुम स्थूल हो । देह स्थूल है । तुम्हारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार यह सभी स्थूल पदार्थ हैं । मन, बुद्धि और चित्त भी स्थूल हैं और प्रकाश एक बहती हुई लय है । और प्रकाश एक निरंतर बहती हुई लय है । बहती हुई सूक्ष्म लय । और यही लय सृष्टि और सृजन की लय है । यदि साधक और कलाकार सूक्ष्म हो कर, लय स्वरुप और विनम्र हो कर अदृश्य और अस्तित्वहीन नहीं हो जाते वे प्राप्ति का कोई दावा नहीं कर सकते । "
"परम को प्रभु को 'प्रकाश का सागर' भी कहा गया है । और मुझे विश्वास है कि यदि एक कलाकार, चाहे वह कवि है, गद्यकार है, शिल्पी है, नर्तक है, अनुसन्धानकर्ता है अथवा चित्रकार है, यदि वह सत्य के लिए भटकता है । सत्य ही की खोज में रहता है और प्रकाश का साक्षात करने का पिपासु है तो वह भक्त है । भक्त ही है । और जो भी कलाकार सूक्ष्मभावी नहीं है , विनम्र नहीं है और सत्य का उपासक नहीं है वह उस विनम्र, सूक्षम और सत्य रुपी प्रकाश को जन्म जन्मान्तर देख नहीं पाता। न वह स्वयं को प्रकाशमय कर सकता है, न ही अपनी रचना द्वारा औरों को कोई अनुभूति ही दे सकता है। यही स्थिति भक्ति और भक्त, उपासना और उपासक की है । यदि उपासक उतना ही सूक्षम नहीं हो जाता जितना कि सत्य है, जितना कि प्रकाश है वह प्रकाश को न तो अनुभव ही कर सकता है और न ही दर्शा ही सकता है । साधना में आह्वान तथा आलंबन का विशेष महत्व है ।
तुम स्थूल हो । देह स्थूल है । तुम्हारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार यह सभी स्थूल पदार्थ हैं । मन, बुद्धि और चित्त भी स्थूल हैं और प्रकाश एक बहती हुई लय है । और प्रकाश एक निरंतर बहती हुई लय है । बहती हुई सूक्ष्म लय । और यही लय सृष्टि और सृजन की लय है । यदि साधक और कलाकार सूक्ष्म हो कर, लय स्वरुप और विनम्र हो कर अदृश्य और अस्तित्वहीन नहीं हो जाते वे प्राप्ति का कोई दावा नहीं कर सकते । "