सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 10 October 2012


श्री सारथी उवाच ................. " दुःख को पहचानो मैं यही कहूँगा। दुःख को पहचानो । यह तुम्हारा स्वयं ही को पहचानना होगा । स्वयं की पहचान दुःख की पहचान ही से संभव है और यदि तुम ने एक प्रारंभ दुःख के अनुसन्धान का कर लिया तो तुम जान लो कि तुम "बुद्ध" हो और तुम ने एक अर्थी को जाते हुए देख लिया ।"

Monday, 1 October 2012

श्री सारथी उवाच .................

हमारे समाज में पैंसठ हजार लोगों में एक संगीतकार, चित्रकार, नर्तक और मूर्तिकार है । और पैंतीस हजार की गणना में एक आदमी वैज्ञानिक है । तुम्हे इस अनुपात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कम है । इसीलिए इन सब को समाज देश और राष्ट्र की निधि, गौरव और पथप्रदर्शक भी माना जाता है। सभ्यता- संस्कृति के रक्षक और लब्ध प्रतिष्ठित भी कई अवसरों पर कहा गया है । ...........परन्तु प्रश्न यह है कि यह सब कुछ जो कहा गया है अथवा कहा जाता है वह सत्य है ? कुछ यदार्थ है इस में ? क्या आज का संगीतकार, चित्रकार, नर्तक और मूर्तिकार भारतीय संस्कृति को जानता है ? क्या आज का वैज्ञानिक और ललित कलाकार जो कुछ सृजन कर रहा है वह कहीं पर संस्कृति के धरातल से जुड़ा है ? अथवा कहीं पर सभ्यता कि आत्मा के दर्शन उस में हो रहें हैं ?............... तुम्हारे विचार में यदि पैंसठ हजार में एक ललित कलाकार है तो उस में मजनू कितने होंगे ? कितने कला के प्रति उन्मादित, उद्वेलित और दीवाने होंगे? और कला ही को, वाद्य यन्त्र और छैनी-हथोड़े और रंग और तूलिका को खाते पीते ओढ़ते बिछाते हैं और कला को ही बोलते और सुनते हैं, कितने हैं वो ?