ग़ज़ल (गुरुदेव 'सारथी' जी )
शौक़ कश्ती है मेरी दर्द समंदर मेरा
देखता हूँ कि गिरेगा कहाँ लंगर मेरा
आयें किस तौर मुझे रास यहाँ के मौसम
ज़हन शीशे का है और जिस्म है पत्थर मेरा
तेरे दर तक की रसाई का अभी ज़िक्र नहीं
ढूंढता हूँ कहीं मिल जाये मुझे दर मेरा
वो दिखाई जो नहीं देता वही तो मैं हूँ
जिस्म सूखा है मगर लफ्ज़ हर इक तर मेरा
गुम हुआ जाता हूँ इस भीड़ में आये कोई
थाम ले हाथ जो इस शहर में बढ़ कर मेरा
सारथी मुझ में हैं रूपोश सदी के पैकर
सुर है मीरास मेरी रंग है रहबर मेरा
ज़हन शीशे का है और जिस्म है पत्थर मेरा
तेरे दर तक की रसाई का अभी ज़िक्र नहीं
ढूंढता हूँ कहीं मिल जाये मुझे दर मेरा
वो दिखाई जो नहीं देता वही तो मैं हूँ
जिस्म सूखा है मगर लफ्ज़ हर इक तर मेरा
गुम हुआ जाता हूँ इस भीड़ में आये कोई
थाम ले हाथ जो इस शहर में बढ़ कर मेरा
सारथी मुझ में हैं रूपोश सदी के पैकर
सुर है मीरास मेरी रंग है रहबर मेरा
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