ग़ज़ल (गुरुदेव 'सारथी' जी )
एक सन्नाटा था मैं खली मकाँ था
मैं गुज़रता जा रहा था इम्तिहाँ था
मैं किनारे तोड़ कर भी बह रहा था
प्यार का दरिया था आँखों से रवाँ था
हर कोई पढ़ कर घुमा लेता था नज़रें
मैं लिखा दीवार पर सच्चा बयाँ था
बंद दरवाजों पे दस्तक रो रही थी
बस्तियों पे छा रहा कैसा समाँ था
उस ने आँखों में अँधेरे झोंक डाले
जिस पे लोगों को उजाले का गुमाँ था
मुझ को भी चढ़ना पड़ा सूली पे इक दिन
मैं कहाँ मंसूर, ईसा मैं कहाँ था
अनगणित उस ने दुआएं मांग डाली
'सारथी' खाली था खाली आस्मां था
प्यार का दरिया था आँखों से रवाँ था
हर कोई पढ़ कर घुमा लेता था नज़रें
मैं लिखा दीवार पर सच्चा बयाँ था
बंद दरवाजों पे दस्तक रो रही थी
बस्तियों पे छा रहा कैसा समाँ था
उस ने आँखों में अँधेरे झोंक डाले
जिस पे लोगों को उजाले का गुमाँ था
मुझ को भी चढ़ना पड़ा सूली पे इक दिन
मैं कहाँ मंसूर, ईसा मैं कहाँ था
अनगणित उस ने दुआएं मांग डाली
'सारथी' खाली था खाली आस्मां था
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