सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 28 June 2017

श्री सारथी उवाच.......

एक उत्कृष्ट क्षमता जो कार्य के साथ साथ तुम्हे भी स्वभाविक और प्राकृतिक बनाये रखती है, वह है कार्य को समर्पित चिंतन। अपनी पूरी शक्ति और एकाग्रता का केवल कार्य में ही होना। स्वयं कार्य ही हो जाना। स्वयं लक्ष्य और उधेश्य ही हो जाना। स्वयं ही एक ऐसी अंतहीन प्रक्रिया में परवर्तित हो जाना जिस में कर्ता और क्रिया की भिन्नता का अंत हो जाए ।

और वह तभी संभव है जब तुम मात्र वर्तमान में रहने का निरंतर प्रण करो । निरंतर प्रयास करो। निरंतर वर्तमान ही को अपने श्वासों में भर कर रखो । और जिस क्षण तुम्हे कुछ करना है वही क्षण पहला और अंतिम क्षण जान लो । जिस क्षण में तुम्हे जीना है वही क्षण तुम्हारा सर्वस्व हो जाए ।तुम्हारा और तुम्हारे कार्य का, कोई अतीत न हो, कोई भविष्य न हो । कोई परिणाम भी न हो । परिणाम, अतीत, भविष्य मात्र वर्तमान हो ।

Wednesday, 21 June 2017

श्री सारथी उवाच.......

यह एक वैराग्य है कठिनतम वैराग्य का सरलतम रूप । एक छोटी से अवधि के लिए मर जाना। और फिर उस अवधि को साधना से बढ़ाते जाना । और जब यह अवधि अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच जाए तो एक उपलब्धि की प्रतीक्षा करना । और यदि तुम्हे परामर्श कहीं पहुंचता हुआ लगता है तो अभी से इसी क्षण से वह क्रिया प्रारंभ कर दो जो मैं तुम्हे कहता हूँ । तुम आँखें बंद कर के तो यह दावा कर सकते हो की तुम देख नहीं रहे हो । परन्तु अब तुम्हे आँखें खुली रखनी है और दावा करना है की तुम देख नहीं रहे हो । यह संभव तब होगा जब उस वस्तु अथवा पदार्थ में तुम्हारे रूचि शून्य रह जायेगी जो कि दृष्टि में है । जब तक एक वस्तु एक पदार्थ में तुम्हारी दृष्टि कि सृष्टि बनी रहेगी तुम अपने अन्त:करण में प्रवेश करती हुई छायाओं को सर मारते चले जायोगे । और दृष्टि कोई सहायता नहीं कर पायेगी । श्रवण का भी यही परिवेश बना रहेगा । श्रवण भी जब तक किसी सृष्टि का सृजन करता रहेगा तब तक वह दावा नहीं कर पायेगा कि किसी स्वर कि सृष्टि को उस ने महत्वहीन कर दिया है । सभी वह स्थान चाहे वह ज्ञानिन्द्रियों से सम्बन्धित हैं या कि मर्म स्थलों से सम्बंधित जब तक तुम्हारी उर्जा ही तुम्हारी उर्जा का वाहक मन अनदेखा नहीं करेगा । अनसुना नहीं करेगा और स्वर को अर्थहीन नहीं कर देगा तुमहरा यह सरलतम कहे जाने वाले विकटतम मन न सुने तो श्रवण नहीं सुनता और मन न बोले तो तुम नहीं बोलते हो । अभी से इसी क्षण से एक शुरुआत करोगे तो कहीं पंहुच जाओगे ।

Monday, 19 June 2017

 श्री सारथी उवाच.......

मेरा विश्वास है कि प्रभु के नाम का जप बात नहीं है । यदि नाम ही भाव से ले कर वाक् तक यात्रा कर रहा हो तो वह सृष्टि का आह्वान नहीं है । वह सृष्टि के खंडन का आह्वान है । जप, तप, सुमिरन, साधना, ध्यान और कीर्तन यह सभी प्रभु के निमित्त, प्रभु के दर्शन हेतु, मोक्ष और मुक्ति हेतु, सांसारिक बन्धनों को काटने हेतु और त्याग तथा वैराग्य हेतु ही अपनाए जाते हैं । और जब प्रभु का नाम हर श्वास में निश्वास और प्रश्वास दोनों में चलने लगे तो आदमी बात, वाक्य. वाक् और इच्छा और सृष्टि इन सब में से स्वयं को निकाल लेता है । मैं यही कहूँगा कि जो राम के भजन में लगा है, जो भजन में लीन है , जो प्रभु कि दासता करना चाहता है, जो अकाल पुरख के सिमरन में व्यस्त है, जो प्रभु येशु के सुमिरन में आंसू वहा रहा है वह मौन है । वह चुप है । जो दुखों के इस समंदर से पार उतने के लिए भजन, कीर्तन और परोपकार में लगा है वही मौन है । वही खामोश है जो असहाय की सेवा में लगा है और फलस्वरूप दीन दुखी के दुःख का निवारण चाहता है, वही मौन है । गीता में यदि प्रभु ने कहा है कि तुम्हे कर्म का अधिकार तो देता हूँ परन्तु फल मुझ पर छोड़ दो तो सारांश मौन रहने का ही हुआ । इच्छा रहित कर्म ही मौन है और मौन ही भजन ।

Water colour drawing of Maharani Meera by Gurudev