सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Monday, 19 June 2017

 श्री सारथी उवाच.......

मेरा विश्वास है कि प्रभु के नाम का जप बात नहीं है । यदि नाम ही भाव से ले कर वाक् तक यात्रा कर रहा हो तो वह सृष्टि का आह्वान नहीं है । वह सृष्टि के खंडन का आह्वान है । जप, तप, सुमिरन, साधना, ध्यान और कीर्तन यह सभी प्रभु के निमित्त, प्रभु के दर्शन हेतु, मोक्ष और मुक्ति हेतु, सांसारिक बन्धनों को काटने हेतु और त्याग तथा वैराग्य हेतु ही अपनाए जाते हैं । और जब प्रभु का नाम हर श्वास में निश्वास और प्रश्वास दोनों में चलने लगे तो आदमी बात, वाक्य. वाक् और इच्छा और सृष्टि इन सब में से स्वयं को निकाल लेता है । मैं यही कहूँगा कि जो राम के भजन में लगा है, जो भजन में लीन है , जो प्रभु कि दासता करना चाहता है, जो अकाल पुरख के सिमरन में व्यस्त है, जो प्रभु येशु के सुमिरन में आंसू वहा रहा है वह मौन है । वह चुप है । जो दुखों के इस समंदर से पार उतने के लिए भजन, कीर्तन और परोपकार में लगा है वही मौन है । वही खामोश है जो असहाय की सेवा में लगा है और फलस्वरूप दीन दुखी के दुःख का निवारण चाहता है, वही मौन है । गीता में यदि प्रभु ने कहा है कि तुम्हे कर्म का अधिकार तो देता हूँ परन्तु फल मुझ पर छोड़ दो तो सारांश मौन रहने का ही हुआ । इच्छा रहित कर्म ही मौन है और मौन ही भजन ।

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