सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 21 June 2017

श्री सारथी उवाच.......

यह एक वैराग्य है कठिनतम वैराग्य का सरलतम रूप । एक छोटी से अवधि के लिए मर जाना। और फिर उस अवधि को साधना से बढ़ाते जाना । और जब यह अवधि अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच जाए तो एक उपलब्धि की प्रतीक्षा करना । और यदि तुम्हे परामर्श कहीं पहुंचता हुआ लगता है तो अभी से इसी क्षण से वह क्रिया प्रारंभ कर दो जो मैं तुम्हे कहता हूँ । तुम आँखें बंद कर के तो यह दावा कर सकते हो की तुम देख नहीं रहे हो । परन्तु अब तुम्हे आँखें खुली रखनी है और दावा करना है की तुम देख नहीं रहे हो । यह संभव तब होगा जब उस वस्तु अथवा पदार्थ में तुम्हारे रूचि शून्य रह जायेगी जो कि दृष्टि में है । जब तक एक वस्तु एक पदार्थ में तुम्हारी दृष्टि कि सृष्टि बनी रहेगी तुम अपने अन्त:करण में प्रवेश करती हुई छायाओं को सर मारते चले जायोगे । और दृष्टि कोई सहायता नहीं कर पायेगी । श्रवण का भी यही परिवेश बना रहेगा । श्रवण भी जब तक किसी सृष्टि का सृजन करता रहेगा तब तक वह दावा नहीं कर पायेगा कि किसी स्वर कि सृष्टि को उस ने महत्वहीन कर दिया है । सभी वह स्थान चाहे वह ज्ञानिन्द्रियों से सम्बन्धित हैं या कि मर्म स्थलों से सम्बंधित जब तक तुम्हारी उर्जा ही तुम्हारी उर्जा का वाहक मन अनदेखा नहीं करेगा । अनसुना नहीं करेगा और स्वर को अर्थहीन नहीं कर देगा तुमहरा यह सरलतम कहे जाने वाले विकटतम मन न सुने तो श्रवण नहीं सुनता और मन न बोले तो तुम नहीं बोलते हो । अभी से इसी क्षण से एक शुरुआत करोगे तो कहीं पंहुच जाओगे ।

No comments:

Post a Comment