सागर की कहानी (40)
श्री सारथी जी के प्रेम का वृत बहुत बड़ा था। समाज के लगभग हर वर्ग का व्यक्ति उस में समा जाता। उनके सानिध्य का लाभ उठाने वालों में साहित्य, कला एवं साधना जगत के लोग तो रहते ही साथ ही उनके प्रेम वृत में स्कूटर का कोई मिस्त्री, कोई हजाम, चाय वाला, रेहडी वाला भी आ ही जाता। यदि किसी मोची, हजाम अथवा मिस्त्री के पास जाते तो बातों बातों में अपने और उस के बीच का सारा अंतर मिटा देते और फिर उसी स्थान पर उल्लास से भर देने वाली गोष्ठी आरम्भ हो जाती। क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला में अपने कार्यकाल के दौरान सारथी जी के मित्रों और प्रेमियों में वैज्ञानिकों तथा अन्य कारण कर्मचारियों के साथ-साथ चौकीदारों चपरासियों तथा मालियों का भी विशेष स्थान था ।
हमारे कार्यालय में स्वामी विवेकानंद जयंती समारोह में सारथी जी को मुख्य वक्ता के रूप में बुलाया गया। सारथी जी समय पर पहुंच गए परंतु अपने मुख्य उद्बोधन से पूर्व उनकी नजरें किसी को खोज रही थीं । सब के पूछने पर कि आप किसे ढूंढ रहे हैं, सारथी जी कहते हैं -भई यह बोधराज जी कहां है। बोधराज हमारे कार्यालय के चौकीदार का नाम है। सबको यह प्रश्न बड़ा अटपटा सा लगा। मुख्य उद्बोधन का भला चौकीदार से क्या संबंध। खैर, बोधराज जी को खोज निकाला गया, जो एक सजग पहरेदार की तरह समारोह हाल के मुख्य द्वार पर पहरा दे रहा था। उसे सादर भीतर ले जाया गया । बोधराज, सकुचा कर श्रोताओं की कुर्सियों के पीछे जाकर खड़े हो गया । सारथी जी कहने लगे - जब तक बोधराज जी कुर्सी पर विराजमान नहीं होंगे मैं बात आरंभ नहीं करूंगा। फिर क्या था, इधर बोधराज जी को कुर्सी पर बिठाया गया और उधर सारथी जी का उद्बोधन आरंभ हुआ। आज भी बोधराज सारथी जी को स्मरण कर भाव विभोर हो जाता है
हर पल रचनाकारों, जिज्ञासुओं एवं कलाकारों से घिरे रहने वाले सारथी जी कभी मूक प्राणियों के घेरे में भी नज़र आते। कभी जब वे कुत्तों को दूध में भिगो कर रस खिला रहे होते तो लगता उन की संवेदना किनारे तोड़ कर बह रही है। गर्दन धरती की ओर झुका कर चींटियों तक को बचाते हुए चलते। चलते हुए पेड़, पौधों तथा पत्थरों को भी इतने प्रेम से निहारते हुए चलते मानों यह सब उन के अपने हों, सगे हों।
क्षेत्रीय अनंसंधान प्रयोगषाला में उन के कार्यालय की ओर जाते हुए रास्ते के दोनों ओर दो खूबसूरत जल भण्डार थे जिन में कमल खिले रहते। गर्मियों में जब सारथी जी अपने कार्यालय की तरफ जा रहे होते तो उन की सूक्ष्म दृष्टि पानी में डूब रही मधुमक्खियों को भी भाँप लेती। मधुमक्खियों को पानी में फसे रहने देना उन्हें कब मंज़ूर होता। फिर क्या, उनके जादुई थैले में से लम्बा सूत निकल जाता जिसे वे उस भण्डार में इस प्रकार लटका देते जैसे कुँए में डूब रहे व्यक्ति के लिए लोग रस्सियां लटका दिया करते हैं। मधुमक्खियां उस धागे से चिपक जाती और सारथी जी धीरे धीरे धागे को खींच उन्हें बाहर निकाल देते। आने जाने वाले अपने अपने ढंग से इस कार्य पर अपने वक्तव्य देते चले जाते। कोई इसे निर्रथक कार्य जान अपनी टिप्पणी दे मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ जाता तो कोई अन्य सारथी जी की करूणा को आत्मसात करता हुआ गद्गद हो जाता।
........क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध
श्री सारथी जी के प्रेम का वृत बहुत बड़ा था। समाज के लगभग हर वर्ग का व्यक्ति उस में समा जाता। उनके सानिध्य का लाभ उठाने वालों में साहित्य, कला एवं साधना जगत के लोग तो रहते ही साथ ही उनके प्रेम वृत में स्कूटर का कोई मिस्त्री, कोई हजाम, चाय वाला, रेहडी वाला भी आ ही जाता। यदि किसी मोची, हजाम अथवा मिस्त्री के पास जाते तो बातों बातों में अपने और उस के बीच का सारा अंतर मिटा देते और फिर उसी स्थान पर उल्लास से भर देने वाली गोष्ठी आरम्भ हो जाती। क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला में अपने कार्यकाल के दौरान सारथी जी के मित्रों और प्रेमियों में वैज्ञानिकों तथा अन्य कारण कर्मचारियों के साथ-साथ चौकीदारों चपरासियों तथा मालियों का भी विशेष स्थान था ।
हमारे कार्यालय में स्वामी विवेकानंद जयंती समारोह में सारथी जी को मुख्य वक्ता के रूप में बुलाया गया। सारथी जी समय पर पहुंच गए परंतु अपने मुख्य उद्बोधन से पूर्व उनकी नजरें किसी को खोज रही थीं । सब के पूछने पर कि आप किसे ढूंढ रहे हैं, सारथी जी कहते हैं -भई यह बोधराज जी कहां है। बोधराज हमारे कार्यालय के चौकीदार का नाम है। सबको यह प्रश्न बड़ा अटपटा सा लगा। मुख्य उद्बोधन का भला चौकीदार से क्या संबंध। खैर, बोधराज जी को खोज निकाला गया, जो एक सजग पहरेदार की तरह समारोह हाल के मुख्य द्वार पर पहरा दे रहा था। उसे सादर भीतर ले जाया गया । बोधराज, सकुचा कर श्रोताओं की कुर्सियों के पीछे जाकर खड़े हो गया । सारथी जी कहने लगे - जब तक बोधराज जी कुर्सी पर विराजमान नहीं होंगे मैं बात आरंभ नहीं करूंगा। फिर क्या था, इधर बोधराज जी को कुर्सी पर बिठाया गया और उधर सारथी जी का उद्बोधन आरंभ हुआ। आज भी बोधराज सारथी जी को स्मरण कर भाव विभोर हो जाता है
हर पल रचनाकारों, जिज्ञासुओं एवं कलाकारों से घिरे रहने वाले सारथी जी कभी मूक प्राणियों के घेरे में भी नज़र आते। कभी जब वे कुत्तों को दूध में भिगो कर रस खिला रहे होते तो लगता उन की संवेदना किनारे तोड़ कर बह रही है। गर्दन धरती की ओर झुका कर चींटियों तक को बचाते हुए चलते। चलते हुए पेड़, पौधों तथा पत्थरों को भी इतने प्रेम से निहारते हुए चलते मानों यह सब उन के अपने हों, सगे हों।
क्षेत्रीय अनंसंधान प्रयोगषाला में उन के कार्यालय की ओर जाते हुए रास्ते के दोनों ओर दो खूबसूरत जल भण्डार थे जिन में कमल खिले रहते। गर्मियों में जब सारथी जी अपने कार्यालय की तरफ जा रहे होते तो उन की सूक्ष्म दृष्टि पानी में डूब रही मधुमक्खियों को भी भाँप लेती। मधुमक्खियों को पानी में फसे रहने देना उन्हें कब मंज़ूर होता। फिर क्या, उनके जादुई थैले में से लम्बा सूत निकल जाता जिसे वे उस भण्डार में इस प्रकार लटका देते जैसे कुँए में डूब रहे व्यक्ति के लिए लोग रस्सियां लटका दिया करते हैं। मधुमक्खियां उस धागे से चिपक जाती और सारथी जी धीरे धीरे धागे को खींच उन्हें बाहर निकाल देते। आने जाने वाले अपने अपने ढंग से इस कार्य पर अपने वक्तव्य देते चले जाते। कोई इसे निर्रथक कार्य जान अपनी टिप्पणी दे मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ जाता तो कोई अन्य सारथी जी की करूणा को आत्मसात करता हुआ गद्गद हो जाता।
........क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध