सागर की कहानी( 44)
शास्त्रीय संगीत की विवेचना करते हुए वे कहा करते- शास्त्रीय संगीत एक समुद्र है और सुगम संगीत उस समुद्र से निकल कर बहती हुई एक छोटी सी नदी जैसे समुद्र के बिना नदी का कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता, ठीक उसी प्रकार शास्त्रीय संगीत के बिना सुगम संगीत का अलग अस्तित्व है ही नहीं। सुगम संगीत में ठुमरी, दादरा, भजन, ग़ज़ल, कब्वाली इत्यादि जो कुछ भी हम सुनें वह कहीं न कहीं अपना आधार शास्त्रोक्त राग पर रखे हुए होता है।
वे कहते भारतीय संगीत की सर्वोपारि विशेषता यह है कि ताल के विविध रूप समय की बाँट के विविध रूप हैं। समय अर्थात दिन-रात के विविध रूप। दिन के पहरों, क्षणों, पलों के रूप। जैसे 24 घन्टों में पृथ्वि का एक चक्र बदल नहीं सकता है। ऐसे ही पृथ्वि जो सूर्य की प्रदक्षिणा में चारों ओर एक चक्र 365 दिन में पूरा करती है, वह एक क्षण भी आगे-पीछे नहीं जा सकती। इसी तरह काव्य, गायन-वादन में एक क्षण भी आगे-पीछे जाना सम्भव नहीं है। लय-ताल उस समय से है जो प्रकाश से उत्पन्न होता है। इसीलिये लय-ताल से जुड़े व्यक्ति को प्रकाश की उपलब्धि होती है। वे कहते प्रकाश की उपलब्धि ही लय-ताल की उपलब्धि है। प्रकाश की उपलब्धि ही रंगों की उपलब्धि है।
शास्त्रीय संगीत की विवेचना करते हुए वे कहा करते- शास्त्रीय संगीत एक समुद्र है और सुगम संगीत उस समुद्र से निकल कर बहती हुई एक छोटी सी नदी जैसे समुद्र के बिना नदी का कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता, ठीक उसी प्रकार शास्त्रीय संगीत के बिना सुगम संगीत का अलग अस्तित्व है ही नहीं। सुगम संगीत में ठुमरी, दादरा, भजन, ग़ज़ल, कब्वाली इत्यादि जो कुछ भी हम सुनें वह कहीं न कहीं अपना आधार शास्त्रोक्त राग पर रखे हुए होता है।
वे कहते भारतीय संगीत की सर्वोपारि विशेषता यह है कि ताल के विविध रूप समय की बाँट के विविध रूप हैं। समय अर्थात दिन-रात के विविध रूप। दिन के पहरों, क्षणों, पलों के रूप। जैसे 24 घन्टों में पृथ्वि का एक चक्र बदल नहीं सकता है। ऐसे ही पृथ्वि जो सूर्य की प्रदक्षिणा में चारों ओर एक चक्र 365 दिन में पूरा करती है, वह एक क्षण भी आगे-पीछे नहीं जा सकती। इसी तरह काव्य, गायन-वादन में एक क्षण भी आगे-पीछे जाना सम्भव नहीं है। लय-ताल उस समय से है जो प्रकाश से उत्पन्न होता है। इसीलिये लय-ताल से जुड़े व्यक्ति को प्रकाश की उपलब्धि होती है। वे कहते प्रकाश की उपलब्धि ही लय-ताल की उपलब्धि है। प्रकाश की उपलब्धि ही रंगों की उपलब्धि है।
सागर और प्रकाश का अटूट सम्बन्ध है। प्रकाश का साथी यह जलनिधि अपने स्थूल रूप में हमें विशाल जलराशि के रूप में दिखाई देता है जबकि प्रकाश के आकर्षण में बंधा यह रत्नाकर जब भाष्प बन कर वायुमण्ड़ल में व्याप्त हो जाता है तो यह स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा पर अग्रसर होता है। ऐसी यात्रा में यह प्रकाश का सहायक बन जीवन चक्र में अपनी सक्रिय भूमिका निभाता है। भाष्प रूप में विद्यमान जल का समूह ही बादलों में रूपांतरित होता है। वही बादल धरती की प्यास बुझाने हेतु जब बरसते हैं तो सभी जलस्त्रोतों से होता हुआ यह जल पुणः सागर में ही जा मिलता है तभी तो सागर को प्रकाश का सहचर कहा है। श्री सारथी जी जब भी संगीत की बात करते तो लय-ताल की बात अवश्य करते और लय-ताल के प्रकाश से सम्बन्ध की चर्चा भी आ ही जाती। वे कहते-संगीत नाद से उत्पन्न है। नाद ब्रह्म है। ब्रह्म का वाहन प्रकाश है। प्रकाश की गति सुनिश्चित है। प्रकाश की गति एक लाख छयालीस हज़ार मील प्रति सैकेंड़ है। संसार में जो भी गतिमान है चाहे पदार्थ, चाहे अपदार्थ, चाहे शरीर, चाहे अशरीर उस की गति सुनिश्चित है।
वे कहते-संगीत योग है। ब्रह्म तक पहुँचने का साधन है। प्रकाशमय होने का माध्यम है। हमारे सारे मंत्र जो देवी-देवताओं को साक्षात करने की क्षमता रखते हैं, सभी की गति अति तीव्र है। वह गति इस कारण है कि मंत्र लय-ताल में निबद्ध है। पिंगल में उन की रचना हुई है। संगीत काव्य तथा स्वर की संगति है। काव्य शास्त्रोक्त है। काव्य का अरूज़ में होना, लय-ताल में होना ही उसे भजन, प्रार्थना, कविता, बंदिश आदि बनाता है। मुझे विश्वास है कि लय-ताल के बिना गाने की, राग की और संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। संगीत में लय-ताल के महत्व से बढ़ कर लय-ताल की अनिवार्यता है। आवश्यकता है।
बिना लय-ताल के संगीत का एक रूप बनेगा। मात्र सुरीली आवाज़। डुग्गर में पीर पंचाल और त्रिकुटा के शिवालिक इलाके में एक गायन शैली (folk lore type) जिसे आंचलिक भाषा में भाख कहते हैं। उस में लय है परन्तु ताल अनुपस्थित है। शायद यही कारण है कि लोक गीत तो गाये और सीखे जाते हैं और प्रचलित भी हुए हैं परन्तु भाख की फार्म बहीं की बहीं खड़ी है।
संगीत अवश्यमेव आत्मा है। content है। और काव्य, भजन, बंदिश उस का शरीर। यह सब पिंगल में बंधा है। अरूज़ में, मात्राओं में बंधा है। समय में बंधा है। क्योंकि लघु (1) का अर्थ एक सैकेंड़ है और गुरु (S) 2 सैकेंड़ है। तो काव्य लघु-गुरु के मूलाधार पर खड़ा है। समय की बाँट पर खड़ा है। संगीत में लय-ताल का वही महत्व है जो आत्मा के लिए शरीर का होता है।
......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध
वे कहते-संगीत योग है। ब्रह्म तक पहुँचने का साधन है। प्रकाशमय होने का माध्यम है। हमारे सारे मंत्र जो देवी-देवताओं को साक्षात करने की क्षमता रखते हैं, सभी की गति अति तीव्र है। वह गति इस कारण है कि मंत्र लय-ताल में निबद्ध है। पिंगल में उन की रचना हुई है। संगीत काव्य तथा स्वर की संगति है। काव्य शास्त्रोक्त है। काव्य का अरूज़ में होना, लय-ताल में होना ही उसे भजन, प्रार्थना, कविता, बंदिश आदि बनाता है। मुझे विश्वास है कि लय-ताल के बिना गाने की, राग की और संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। संगीत में लय-ताल के महत्व से बढ़ कर लय-ताल की अनिवार्यता है। आवश्यकता है।
बिना लय-ताल के संगीत का एक रूप बनेगा। मात्र सुरीली आवाज़। डुग्गर में पीर पंचाल और त्रिकुटा के शिवालिक इलाके में एक गायन शैली (folk lore type) जिसे आंचलिक भाषा में भाख कहते हैं। उस में लय है परन्तु ताल अनुपस्थित है। शायद यही कारण है कि लोक गीत तो गाये और सीखे जाते हैं और प्रचलित भी हुए हैं परन्तु भाख की फार्म बहीं की बहीं खड़ी है।
संगीत अवश्यमेव आत्मा है। content है। और काव्य, भजन, बंदिश उस का शरीर। यह सब पिंगल में बंधा है। अरूज़ में, मात्राओं में बंधा है। समय में बंधा है। क्योंकि लघु (1) का अर्थ एक सैकेंड़ है और गुरु (S) 2 सैकेंड़ है। तो काव्य लघु-गुरु के मूलाधार पर खड़ा है। समय की बाँट पर खड़ा है। संगीत में लय-ताल का वही महत्व है जो आत्मा के लिए शरीर का होता है।
......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध