सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Tuesday, 16 January 2018

सागर की कहानी( 44)

सागर की कहानी( 44)
शास्त्रीय संगीत की विवेचना करते हुए वे कहा करते- शास्त्रीय संगीत एक समुद्र है और सुगम संगीत उस समुद्र से निकल कर बहती हुई एक छोटी सी नदी जैसे समुद्र के बिना नदी का कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता, ठीक उसी प्रकार शास्त्रीय संगीत के बिना सुगम संगीत का अलग अस्तित्व है ही नहीं। सुगम संगीत में ठुमरी, दादरा, भजन, ग़ज़ल, कब्वाली इत्यादि जो कुछ भी हम सुनें वह कहीं न कहीं अपना आधार शास्त्रोक्त राग पर रखे हुए होता है।
वे कहते भारतीय संगीत की सर्वोपारि विशेषता यह है कि ताल के विविध रूप समय की बाँट के विविध रूप हैं। समय अर्थात दिन-रात के विविध रूप। दिन के पहरों, क्षणों, पलों के रूप। जैसे 24 घन्टों में पृथ्वि का एक चक्र बदल नहीं सकता है। ऐसे ही पृथ्वि जो सूर्य की प्रदक्षिणा में चारों ओर एक चक्र 365 दिन में पूरा करती है, वह एक क्षण भी आगे-पीछे नहीं जा सकती। इसी तरह काव्य, गायन-वादन में एक क्षण भी आगे-पीछे जाना सम्भव नहीं है। लय-ताल उस समय से है जो प्रकाश से उत्पन्न होता है। इसीलिये लय-ताल से जुड़े व्यक्ति को प्रकाश की उपलब्धि होती है। वे कहते प्रकाश की उपलब्धि ही लय-ताल की उपलब्धि है। प्रकाश की उपलब्धि ही रंगों की उपलब्धि है।
सागर और प्रकाश का अटूट सम्बन्ध है। प्रकाश का साथी यह जलनिधि अपने स्थूल रूप में हमें विशाल जलराशि के रूप में दिखाई देता है जबकि प्रकाश के आकर्षण में बंधा यह रत्नाकर जब भाष्प बन कर वायुमण्ड़ल में व्याप्त हो जाता है तो यह स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा पर अग्रसर होता है। ऐसी यात्रा में यह प्रकाश का सहायक बन जीवन चक्र में अपनी सक्रिय भूमिका निभाता है। भाष्प रूप में विद्यमान जल का समूह ही बादलों में रूपांतरित होता है। वही बादल धरती की प्यास बुझाने हेतु जब बरसते हैं तो सभी जलस्त्रोतों से होता हुआ यह जल पुणः सागर में ही जा मिलता है तभी तो सागर को प्रकाश का सहचर कहा है। श्री सारथी जी जब भी संगीत की बात करते तो लय-ताल की बात अवश्य करते और लय-ताल के प्रकाश से सम्बन्ध की चर्चा भी आ ही जाती। वे कहते-संगीत नाद से उत्पन्न है। नाद ब्रह्म है। ब्रह्म का वाहन प्रकाश है। प्रकाश की गति सुनिश्चित है। प्रकाश की गति एक लाख छयालीस हज़ार मील प्रति सैकेंड़ है। संसार में जो भी गतिमान है चाहे पदार्थ, चाहे अपदार्थ, चाहे शरीर, चाहे अशरीर उस की गति सुनिश्चित है।
वे कहते-संगीत योग है। ब्रह्म तक पहुँचने का साधन है। प्रकाशमय होने का माध्यम है। हमारे सारे मंत्र जो देवी-देवताओं को साक्षात करने की क्षमता रखते हैं, सभी की गति अति तीव्र है। वह गति इस कारण है कि मंत्र लय-ताल में निबद्ध है। पिंगल में उन की रचना हुई है। संगीत काव्य तथा स्वर की संगति है। काव्य शास्त्रोक्त है। काव्य का अरूज़ में होना, लय-ताल में होना ही उसे भजन, प्रार्थना, कविता, बंदिश आदि बनाता है। मुझे विश्वास है कि लय-ताल के बिना गाने की, राग की और संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। संगीत में लय-ताल के महत्व से बढ़ कर लय-ताल की अनिवार्यता है। आवश्यकता है।
बिना लय-ताल के संगीत का एक रूप बनेगा। मात्र सुरीली आवाज़। डुग्गर में पीर पंचाल और त्रिकुटा के शिवालिक इलाके में एक गायन शैली (folk lore type) जिसे आंचलिक भाषा में भाख कहते हैं। उस में लय है परन्तु ताल अनुपस्थित है। शायद यही कारण है कि लोक गीत तो गाये और सीखे जाते हैं और प्रचलित भी हुए हैं परन्तु भाख की फार्म बहीं की बहीं खड़ी है।
संगीत अवश्यमेव आत्मा है। content है। और काव्य, भजन, बंदिश उस का शरीर। यह सब पिंगल में बंधा है। अरूज़ में, मात्राओं में बंधा है। समय में बंधा है। क्योंकि लघु (1) का अर्थ एक सैकेंड़ है और गुरु (S) 2 सैकेंड़ है। तो काव्य लघु-गुरु के मूलाधार पर खड़ा है। समय की बाँट पर खड़ा है। संगीत में लय-ताल का वही महत्व है जो आत्मा के लिए शरीर का होता है।
......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध

Monday, 1 January 2018

सागर की कहानी( 42)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी( 42)
श्री सारथी जी ललित कलायों को ईश्वर प्राप्ति का ही साधन मानते परन्तु संगीत के लिए उन के मन में विशेष प्रेम था। ललित कलाओं में वे संगीत को सर्वोच्च स्थान देते और कहा करते-‘बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि यदि वे श्री कृष्ण को रिझा लेंगे तो फलस्वरूप क्या होगा? भगवान शंकर को रिझा लेंगे, भगवान विष्णु की उन पर अनुकम्पा होगी तो उपलब्धि और प्राप्ति क्या होगी? हर देवता के साथ संगीत का एक चिन्ह है जो आप की साधना के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। भगवान श्री कृष्ण जो परब्रहम हैं, कर्णधार हैं, विश्व के, ब्रहाण्ड़ के, जब उन की कृपा होती है तो साधक धीरे धीरे बाँसुरी का स्वर सुनने लगता है। वे कहते महारानी मीरा को सब से पहले जब उपलब्धि होती है तो वह कहती है- सुनी री मैंने हरि आवन की आवाज़। उन्हें बाँसुरी की धुन सुनाई देती है। भगवान शिव के भक्तों को डमरू तथा भगवान विष्णु के भक्तों को शंखनाद सुनाई देता है ’।
सागर की लहरें संगीत की स्वरलहरियों को साथ ले सागर के वक्ष पर ही नृत्य किया करती हैं। जल तरंगों की मधुर ध्वनियां तो सागर की स्तुति हेतु ही बजा करती है। बड़े भाग्यशाली हैं वे लोग जिन्होंने सागर के इस संगीत को सुना है। जिन लोगों को श्री सारथी जी द्वारा गाये गये भजनों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है वे जानते हैं सारथी जी जिस धुन में भजन गाते वह धुन भजन के शब्दों तथा उन शब्दों के सभी अथों को साथ ले कर सुनने वाले के अन्तस में प्रवेश कर जाती और कुछ ही क्षणों में सुनने वाले की मनोदशा एवं मनोदिशा बदल जाती।
सर्दियों के दिन थे। श्री सारथी जी भूरे रंग का शाल ओढ़ कर बैठे थे। गोगी-बिल्ली का छोटा बच्चा उन की गोद में बैठा उन के प्रेममय स्पर्श का आनन्द उठा रहा था। कमरें में सूरज जी, केवल जी तथा ओम प्रकाश भूरिया जी भी उपस्थित थे। केवल जी अपनी नज़रे तबले पर गढ़ाये बैठे थे और सारथी जी के गायन के साथ तबला बजाने की अपनी आतुरता को छुपा नहीं पा रहे थे। केवल जी कहने लगे-गुरुदेव कुछ सुनाईये परंतु गुरुदेव विनोद भाव से सूरज जी को भजन सुनाने को कह रहे थे। उसी समय मैंने कमरे में प्रवेश किया तो गुरुदेव कहने लगे- लो सूरज जी, गुरु जी भी आ गए, अब तो कुछ सुना ही दीजिये। सब जानते थे गुरुदेव का यह सम्बोधन सब में सहज उल्लास एवं प्रेम भरने के लिए है। संकोच का आवरण उतारते हुए सूरज जी भी उन से कुछ सुनाने का आग्रह करने लगे और केवल जी भी सूरज जी के आग्रह में अपनी प्रार्थना का स्वर मिलाने लगे। मेरा सारा शरीर तप रहा था। गला खराब होने की बजह से बुखार ने आ घेरा था परंतु उस दिव्य आभामण्डल के आलोक में आते ही सब भूल गया।
गुरुदेव ने हारमोनियम पकड़ा, नन्हा बिल्ली का बच्चा समझ गया अब उसे कुछ देर के लिए उन की गोद से विलग होना पड़ेगा। वह उठ कर दूसरे कमरे में चला गया। श्री सारथी जी ने महारानी मीरा का भजन गाना आरम्भ किया।
- मोरे नैना बाण पड़ी------- भूरिया जी कैंसियां बजाने लगे और केवल जी ने तबला सम्भाल लिया। पूरा वातावरण संगीत और भक्ति की स्वरलहरियों से गूँज उठा। भजन समाप्त होते ही उन्होंने संत कबीर जी के भजन को संगीत की स्वरलहरियों से मिश्रित कर अपने मधुर कण्ठ से गायन आरम्भ किया
-चुनरिया झीनी रे झीनी। राम नाम रस भीनी।
फिर जब गोस्वामी तुलसीदास जी का भजन- तू दयालु दीन हों तू दानी हों भिखारी आरम्भ हुआ तो सब की आँखों से प्रेमाश्रुयों की धारायें वह निकली। मुझे महसूस हो रहा था मेरे शरीर के सारे संक्रामक किटाणु, सारी व्याकुलता, सारा ताप अश्रुयों में बहता चला जा रहा है। मेरा तन और मन निखरता चला जा रहा था।
फिर भक्त श्रिरोमणि सूरदास जी का वात्सल्य रस बिखेरता यह भजन सब पर भक्ति रस बरसाने लगा- मैय्या मोरी मैं नहीं माखुन खायो। अन्ततः अश्रुधारा आनन्दधारा में परिवर्तित हो चुकी थी। मानो सारा वातावरण ही आनन्दमय हो नृत्य कर रहा हो। मेरे शरीर का सारा ताप दूर हो चुका था। ऐसे चमत्कार अनेक लोगों ने अनेक बार उन के सानिध्य में, उन के वचनों में अनुभव किये हैं
......क्रमशः ..........कपिल अनिरुद्ध

सागर की कहानी (41)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास। आप के सुझाबों का इंतज़ार रहेगा।
सागर की कहानी (41)
....वैसे सारथी जी की करूणा के घेरे में मूक प्राणियों के साथ साथ निर्जीव बस्तुओं को भी स्थान प्राप्त होता । इस के प्रमाण उनके साहित्य में विपुल मात्रा में मिलते हैं। जादुई यर्थाथवाद (magical realism) की छाप सारथी जी के लगभग सभी उपन्यासों में मिलती है। जादुई यर्थाथवाद सौन्दर्य या साहित्य की ऐसी शैली है जिस में यथार्थ को अधिक रोचक तथा पाठक में अधिक संवेदना जगाने हेतु असली दुनिया के साथ साथ जादुई तत्वों जैसे चमत्कारिकता, कौतुहल, तथा आलोकिकता का मिश्रण रहता है। इसी शिल्प के अर्न्तगत कहीं सारथी जी अपने उपन्यासों में खण्डरों के साथ बातें करते तों कहीं सड़क सा गलि का दर्द उन्हें आहत करता। नंगा रूक्ख, डोगरी उपन्यास में सड़क के दर्द को अभिव्यक्त करते हुए वे लिखते हैं- ‘नगर के बाहर एक बड़ी सड़क थी जो चुप सी लेटी हुई उसांसे भर रही थी। कभी- कभार गूँजती हुई कोई गाड़ी उस की छाती पर से गुजर जाती तो वह फुँकार कर करवट बदल लेती थी। बिन पैरां दे धरती नामक पंजाबी उपन्यास में भी सड़क की व्यथा को अभिव्यक्ति मिली है – ‘सड़क की हंसी में व्यंग्य का मिश्रण था। तुम भी उन में से हो जिन के पास मेरी दास्तान सुनने का समय नहीं। पर यह मैं ही हूँ जो सदियों से तुम्हें अपनी छाती पर ढो रही हूँ। तुम्हें कमरे से बस्ती में और बसती से फिर कमरे में पहुँचाती आ रही हूँ................ अब आदमी ने मेरे दो टुकड़े कर दिये हैं। पुरानी सड़क और नयी सड़क। मेरे एक हिस्से को मनुष्य पुराना कहता है और एक हिस्से को नया। मैं चिल्ला चिल्ला कर हार गई हूँ कि लोगो पुराने के गर्भ में से नये का जन्म होता है।‘
इस शैली के प्रयोग में सारथी जी का ध्येय एक ही रहता कि पाठक अपने प्रति, नगर, राष्ट्र एवं धरा के प्रति जाग जाये। वह अपने निर्माण में, समाज के योगदान को समझे तथा अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग रहे।
सर्व के प्रति सारथी जी के प्रेम एवं करूणा का परिचय उनके द्वारा बनाये रेखाचित्रों में भी मिलता है। उनके द्वारा बनाये रेखाचित्रों में गोबर लीपती महिलाओं, धान काटते किसानों, जूते गाँठते मोची, बाल काटते हजाम, वर्तन बनाते कलाकारों, किसी गुब्बारे वाले, गारड़ी, सिपाही, चौकीदार इत्यादि को भी स्थान मिलता। उनके द्वारा खींचे छाया चित्रों में जहां समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों का शुमार है वहीं, नदियों, पक्षियों, पशुओं, औषधीय पौधों तथा पत्थरों की भी उपस्थिति दर्ज है। किसी पोखर, कब्रिस्तान इत्यादि को चित्रित करते हुए भी वे उस में अजीब सा सौन्दर्य भर देते।
हर क्षण को एक पर्व एवं उत्सव की भान्ति मनाने वाले सारथी जी के लिए म्हत्वहीन, निर्रथक, अपूर्ण कुछ भी नहीं था। एक बार उनके घर के सामने कोई भगवान शिव की टूटी हुई मूर्ति छोड़ गया, जिस की सूचना उन्हे अपने एक शिष्य के द्वारा मिली .... गुरुजी बाहर कोई भगवान शिव की अखंडित मूर्ति छोड़ गया है । जो अकाल है, अखंड है वह खंडित कैसे हो गया। हमें पूर्ण करने वाला, स्वयं खंडित, सारथी जी धीमे स्वर में बोले और मूर्ति को भीतर ले आए । फिर क्या था, रचनाकार रचना प्रक्रिया में, शिल्प संरचना में व्यस्त हो गया और शिष्यगण उस रचनात्मकता का आनंद लेने लगे । प्लास्टर आफ पेरिस का पेस्ट बना कर मूर्ति पर लगा दिया गया और उन की तूलिका रंग भरने में तल्लीन हो गई। कुछ ही मिन्टों में एक अदभुत कलाकृति सब के सामने थी और फिर वह मूर्ति, वह अकाल, अखंड उन की किताबों के मध्य सुशोभित हो अपने भाग्य पर इतराने लगा।
......क्रमशः .................कपिल अनिरुद्ध