सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Tuesday, 27 March 2018

सागर कि कहानी (48)


सागर कि कहानी (48)
गद्य के क्षेत्र में उन्होंने धीरे-धीरे कहानी के लघु प्रारूप से उपन्यास के बड़े प्रारूप में प्रवेश किया। इस दिशा में उनका पहला उपन्यास डोगरी भाषा में ‘त्रेह समुंदरे दी’ शीर्षक से छपा। यह उपन्यास शिक्षा क्षेत्र के अवमूल्यन को रेखांकित करता है। इसकी प्रस्तावना में सारथी जी लिखते हैं - कहानी की लंबी यात्रा के उपरांत यह उपन्यास मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूं। डोगरी भाषा के आंदोलन तथा प्रोफेसर शास्त्री के स्नेहिल संपर्क में आने के उपरांत मैंने लेखन यात्रा आरंभ की थी और यहां पहुंचा हूं। मैंने यह उपन्यास डोगरी भाषा के आधार कर्मियों को समर्पित किया है। आपके कर कमलों में इस आशा के साथ सौंप रहा हूं कि भाषा के विकास में पाठक का अधिक योगदान होता है। आज जितना दायित्व भाषा का लेखक पर है उतना पाठक पर भी है। वर्ष 2003 में इस उपन्यास को सूरज रत्न ने हिन्दी भाषा में अनूदित किया तथा इसी वर्ष सारथी कला निकेतन ट्रस्ट द्वारा इस का प्रकटन हुआ इसकी भूमिका में सूरज रत्न अपने उद्गार कुछ इस प्रकार प्रकट करता है - गुरुदेव डॉ ओo पीo शर्मा ‘सारथी’ जी द्वारा लिखित डोगरी उपन्यास ‘त्रेह समुंदरे दी’ पढ़ने के उपरांत मन में यह विचार उठा कि यह उपन्यास अपने भीतर अनेक बहुमूल्य सुझाव लिए हुए है। शिक्षा प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव, विद्यार्थियों में अनुशासन तथा उत्तम संस्कार हेतु सुझाव, शिक्षक समुदाय में शिष्यों के प्रति स्नेह एवं स्वयं में कर्मठता उत्पन्न करने हेतु सुझाव तथा मानव समाज में गिरते हुए मूल्यों के उत्थान हेतु सुझाव। साथ ही मन में यह विचार आया की उपन्यास मूलतः डोगरी भाषा में होने के कारण अधिकतर पाठकों तक नहीं पहुंच पाएगा तथा अधिकतर पाठक इस प्रेरणादायक कृति से वंचित रह जाएंगे। सो एक दिन गुरुदेव के समक्ष अपने मन की बात कह डाली है तथा इस उपन्यास का अनुवाद करने की आज्ञा भी ले ली। 
उपन्यास के कथ्य, भाषा एवं दर्शनिकता की कुछ झलक नीचे दिये गए कुछ उद्धरनों से मिलती है।
*मनुष्य को चाहे सारी उम्र किसी चश्मे का ही पानी पीने को मिले परंतु उसे प्यास समुद्र की होनी चाहिए।
*कमरा मनुष्य की शोभा व क्षृंगार नहीं होता। कमरे का क्षृंगार वह मनुष्य होता है जो उस में निवास करता है।
*चुपचाप यदि किसी को कार्य करते देखना हो तो समय को देखो। कोई श्वास की आवाज़ नहीं। हाथों की हिलझुल नहीं। किसी चरखे, यंत्र, हथकरघे की कोई आवाज़ नहीं। और सब कुछ होता जा रहा है।
* विश्राम मस्तिष्क की शांति व मस्तिष्क के मौन का दूसरा नाम है। मस्तिष्क विश्राम करे तो मनुष्य भी विश्राम करता है।
*संसार का यह नियम है कि उसी बाज़ार में सुगंधित फूलों का मोल पड़ता है जहां पर कागज के फूल अधिक हों।
* जिन मनुष्यों के कारण तुम दुविधा में हो उन्हें अपनाए बिना तुम अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं कर सकते। तुम्हारा लक्ष्य पूर्ण नहीं हो सकता। तुम कहीं पहुँच नहीं सकते। वह लोग जो तुम्हारा विरोध करते हैं, वास्तव में वही तुम्हें मार्ग दिखाते हैं ।
1979 में ही सारथी जी का दूसरा डोगरी उपन्यास ‘नंगा रुख’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इस उपन्यास को अपने विलक्षण कथ्य एवं अनूठे शिल्प के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया। अगले ही वर्ष उनका एक और डोगरी उपन्यास ‘मकान’ प्रकाश में आया। इस उपन्यास में भारतीय दर्शन के विस्तार को ही सार रूप प्रदान किया गया है। भारतीय दर्शन के अनुसार जीव पर माया का पर्दा है। यही पर्दा जीव का ब्रह्म से साक्षात्कार नहीं होने देता और यह पर्दा बिना ईश्वर कृपा के, विना गुरू ज्ञान के दूर नहीं हाता। सन्त कबीर कहते है - घूँघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे। यह घूंघट के पट भ्रम /माया की ओर संकेत करते हैं। जीव को माया कैसे भ्रमित करती है और किस प्रकार जीव गुरू का मार्गदर्शन प्राप्त कर, भ्रम के पर्दे को हटा कर, ब्रह्म का साक्षात्कार करता है इस का बेहद सूक्ष्म विवेचन उपन्यास मकान में पढ़ने को मिलता है।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध

Monday, 19 March 2018

सागर की कहानी( 47)

सागर की कहानी( 47)
यात्रा कहानी संग्रह की भूमिका में सारथी जी लिखते हैं – ‘कहानी का जन्म आदमी के साथ ही हुआ जब वह कंदराओं गुफाओं में रहता था। पता नहीं था क्या खाना है, क्या नहीं खाना। बोलने के लिए भाषा तो एक तरफ इशारे भी नहीं थे। कहानी तो उस समय भी उसके अंग संग थी और फिर सभ्यता की पहली सुबह से लेकर अब तक मनुष्य आगे आगे और कहानी परछाई की तरह पीछे पीछे। पहली कहानी में हर बात चमत्कारपूर्ण थी और अब हर बात काम की। पर कहानी का मूल केंद्र व्यक्ति की वृतियों का उद्घाटन रहा है। चाहे वह सारात्मक थी या विस्तारात्मक। आज कहानी विस्तार की कम और सार की अधिक मांग करने वाली रचना होती जा रही है चाहे सार तबील हो, लंबा हो।
साहित्य क्षेत्र में उनका प्रवेश कहानी के माध्यम से ही होता है। सेना के कार्यकाल के दौरान 1965 उनका प्रथम कहानी संग्रह ‘उमरे’ और उसके 1 वर्ष बाद उर्दू कहानी संग्रह ‘लकीरें’ प्रकाशित हुआ। ‘उमरे’ कहानी संग्रह में उनके राष्ट्रप्रेम सैनिक जीवन के अनुशासन और सैनिक की कर्तव्यनिष्ठा के स्पष्ट दर्शन दर्शन होते हैं। इसी कहानी संग्रह की एक कहानी ‘बड़ी मां’, में मां के वात्सल्य, प्रेम, त्याग तथा लेखक के धरती मां के प्रति अपना सर्वस्व अर्पित कर देने के भाव ने मां को लिखी एक चिट्ठी के रुप में अभिव्यक्ति पाई है। उनकी प्रयोगधर्मिता के संकेत उनकी इस कहानी में भी देखे जा सकते हैं। इस कहानी की कुछ पंक्तियां उद्धृत हैं ‘तू तो मेरी माँ है ही, लेकिन एक माँ तुझ से बड़ी है, सब माताओं से बड़ी - यह चलते फिरते सभी शरीर उस की देन हैं - उस ने बहुत संकट झेलें हैं हम सब के लिए । आज उस पर फिर से संकट है । आज वह भी अपना क़र्ज़ मुझ से मांग रही है’।
फिर 4 साल के अंतराल के उपरांत डोगरी भाषा में उनका पहला कहानी सुक्का बरुद 1971 में छपकर सामने आता है और इसके 1 वर्ष बाद 1972 में वे डोगरी का एक अन्य कहानी संग्रह लोक गै लोक मां बोली के चरणों में अर्पित करते हैं।इस बीच 1972 में ही उन्हें डोगरी कहानी संग्रह सुक्का बरूद के लिए जम्मू कश्मीर काला, भाषा एवं संस्कृति अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया। इसी वर्ष उनका एक काव्य संग्रह ‘तन्दां’ प्रकाशित हुआ। इस काव्यसंग्रह के संबंध में पदम श्री राम नाथ शास्त्री जी लिखते हैं - डोगरी भाषा की साहित्य साधना के यज्ञ में ओ पी शर्मा इन्हीं कहानियों के फूलों की भेंट लेकर सम्मिलित हुए। एक ही वर्ष में दो कहानी संग्रहों के अतिरिक्त 40-42 पन्नों तक फैली ‘तन्दां’ उन की एक लंबी स्वच्छंद कविता है। डोगरी भाषा में यह अपनी तरह की पहली कवितामयी रचना है। 50 पन्नों की यह लघु रचना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस रचना की भूमिका उनकी बड़ी बहन श्रीमती सुशीला शर्मा ने लिखी है इसमें वह लिखती हैं- ‘वह मेरा छोटा भाई है। मैंने उसे उठा उठा कर खेल खिलाये हैं। मेरे से तीसरे स्थान पर छोटा होने के बावजूद जिस समय उसके साथ साहित्य संबंधी और आध्यात्मिक चर्चा चलती है तो लगता है कि वह बड़ा है। बहुत बार उसके मुंह से सुना है बोबो, दुनिया के व्यापार में यही अच्छा है कि दूसरे से कुछ लेना ही बाकी रहे, देना कुछ ना रह जाए। बहुत बार वह कहता है मैं स्वयं लिखकर बहुत बार अनुभव करता हूं कि लिखने वाला कोई और था, मैं मात्र देख रहा था।‘
1974 में उनका तीसरा डोगरी कहानी संग्रह ‘पागल दा ताजमहल छपकर आया तथा इसी वर्ष उनका एक और का डोगरी काव्य संग्रह ‘परतां’ प्रकाशित हुआ । सारथी जी ने चारों भाषाओं यदा हिंदी, उर्दू, पंजाबी और डोगरी में कहानियां
लिखी है हालांकि उनकी अधिकतर कहानियां डोगरी भाषा में है। इन कहानियों में युद्ध द्वारा लाए गए विनाश (लाम), असहाय किसान(सुक्का बरुद ), जमीदारों के उत्पीड़न(सलामती ताई), आधुनिक युग की पेचीदगियों ( परिवर्तन), आंतरिक यात्रा (परते), राजनीतिक षड्यंत्र(भेत), स्वयं की तलाश(त्राह) तथा अन्य राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक एवं अध्यात्मिक विषयों ने अभिव्यक्ति पाई है । इस बीच उन्होंने मंच एवं आकाशवाणी दोनों के लिए नाटक लिखे। उनके तीन उर्दू नाटक राष्ट्रीय प्रसारण हेतु भी चुने गए। वे थिएटर के साथ लेखक और निर्देशक के नाते भी जुड़े रहे।
.......क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध

Saturday, 17 March 2018

सागर की कहानी( 46)

सागर की कहानी( 46) ......कृपया अपने सुझावों से अवगत अवश्य करवाएँ ।
अपनी साहित्यिक यात्रा का विवरण देते हुए श्री सारथी जी लिखते हैं- दो सम्पादक मेरी साहित्यिक यात्रा में बहुत महत्वपूर्ण एवं सहयोगी स्थान रखते हैं। पहले सम्पादक श्री मोहन याबर हैं जिन्होंने मेरी ऊर्दू रचनाएं रफतार पत्रिका में प्रकाशित की। उन से मेरा परिचय परम आदरणीय नीलाम्बर देव शर्मा जी ने करबाया। दूसरे सम्पादक फुलबाड़ी केहैं जो हिन्दी साहिन्य मंड़ल के प्रधान रहे। उन्होंने पत्रिका एवं समाचार पत्र में मेरी रचनायें प्रकशित कीं।
फिर दोस्तों की दुआ और रामकृपा से हर भाषा की हर रचना बाहिर भी प्रकाशित होने लगी। हिन्दुस्तान, कौमी राज, सारिका, जागृति, माया, प्रेरणा, जनकल्याण, वीर अर्जुन, मोर्चा आदि में रचनायें प्रकाशित होने लगी।
श्री सारथी जी ने उच्चतम कोटि का साहित्य सृजन किया है। सारे का सारा साहित्य संवेदनाओं से भरा पड़ा है। समाज में होते हुए मूल्यों के हनन की संवेदना। मानव की कथनी एवं करनी में अन्तर की संवेदना। मानव के भीतर सक्रिय पाश्विक वृतियों की संवेदना।
उन का कहना है कथा सागर में प्रवेश करने से पहले उन्होंने बहुत अच्छे लेखक पढ़े। शरतचन्द्र, प्रेमचन्द्र, बंकिम, टैगोर, राहुल सांस्कृत्यायन, कृष्ण चन्द्र, ख्बाजा अहमद अब्बास, कमलेश्वर, Ernest Hemingsway, Perles buck, Thomas bodkan,Tolstoy और Gorky इत्यादि। संसार की सुप्रसिद्ध कहानियों के अध्ययन से ही उन्होंने जाना की समय, परिस्थितियों और राजनीतिक व्यवस्था अथवा उथल-पुथल के अनुसार क्या लिखा जा रहा है। उन के अनुसार उन्होंने कोई ऐसी रचना नहीं पढ़ी जिस का गौण अथवा मुखर सम्बन्ध राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों अथवा अर्थव्यव्स्था से न हो। उन के अनुसार कहानी में बात चाहे इतिहास की हो, विज्ञान की, भूगोल की, आत्मविश्लेषण की, भीतर की पीड़ाओं की अथवा राजनीति की हो, प्रतीक रूप में ही उस का आना उचित है और दूसरी बात है कि राजनीति का परिवर्तन मानव के लिए हर प्रकार का परिवर्तन ला खड़ा कर देता है। उन के अनुसार उन्होंने सभी कुछ इसी रूप-रेखा, इसी भाव को ले कर प्रतीकों एवं संकेतों में लिखा है। ऐसी अर्न्तधारायें भी हैं जो आदमी का पीछा नहीं छोड़ती। आदमी नये को अपना लेता है पुराने को भुला नहीं सकता। दोनों को साथ ले कर चलता है तो उस का वर्तमान उस से छूटता है। उन्होंने बहुत कुछ अर्न्तधारा प्रवाह और चेतन धारा प्रवाह में लिखा है।
अपनी सब से प्रिय विधा के बारे में वे कहते हैं- मेरी सब से प्यारी विधा रही है नावल। मैं समझता हूँ कि लेखन दो प्रकार का होता है। सार का बिस्तार और बिस्तार का सार। जब हम काव्य लिखते हैं तो विस्तार का सार हमारे पास होता है। हमारा अभिप्राय बड़ा सीमित होता है और कईं बार हमारे पास केवल सार होता है और वह विस्तार चाहता है तो रचनाकार उपन्यास लिखता है। मैंने भी उपन्यास लिखे। इस में मेरी ज्यादा रूचि है। वह इसलिए कि उपन्यासों में भी कलातमक्ता लाई जा सकती है जब वह संकेतात्मक हों। सारथी जी के उपन्यासों में सार का विस्तार तो है परन्तु वह विस्तार भी उनके अनुभवों एवं अनुभूतियों का सार रूप ही कहा जाएगा। प्रतीकात्मक शैली में लिखे उनके दार्शनिक सार को समझने हेतु इन उपन्यासों पर समीक्षात्मक एवं अनुसंधानात्मक कार्य की बहुत अधिक ज़रूरत है।
.........क्रमशः ...........कपिल अनिरुद्ध