सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Saturday, 17 March 2018

सागर की कहानी( 46)

सागर की कहानी( 46) ......कृपया अपने सुझावों से अवगत अवश्य करवाएँ ।
अपनी साहित्यिक यात्रा का विवरण देते हुए श्री सारथी जी लिखते हैं- दो सम्पादक मेरी साहित्यिक यात्रा में बहुत महत्वपूर्ण एवं सहयोगी स्थान रखते हैं। पहले सम्पादक श्री मोहन याबर हैं जिन्होंने मेरी ऊर्दू रचनाएं रफतार पत्रिका में प्रकाशित की। उन से मेरा परिचय परम आदरणीय नीलाम्बर देव शर्मा जी ने करबाया। दूसरे सम्पादक फुलबाड़ी केहैं जो हिन्दी साहिन्य मंड़ल के प्रधान रहे। उन्होंने पत्रिका एवं समाचार पत्र में मेरी रचनायें प्रकशित कीं।
फिर दोस्तों की दुआ और रामकृपा से हर भाषा की हर रचना बाहिर भी प्रकाशित होने लगी। हिन्दुस्तान, कौमी राज, सारिका, जागृति, माया, प्रेरणा, जनकल्याण, वीर अर्जुन, मोर्चा आदि में रचनायें प्रकाशित होने लगी।
श्री सारथी जी ने उच्चतम कोटि का साहित्य सृजन किया है। सारे का सारा साहित्य संवेदनाओं से भरा पड़ा है। समाज में होते हुए मूल्यों के हनन की संवेदना। मानव की कथनी एवं करनी में अन्तर की संवेदना। मानव के भीतर सक्रिय पाश्विक वृतियों की संवेदना।
उन का कहना है कथा सागर में प्रवेश करने से पहले उन्होंने बहुत अच्छे लेखक पढ़े। शरतचन्द्र, प्रेमचन्द्र, बंकिम, टैगोर, राहुल सांस्कृत्यायन, कृष्ण चन्द्र, ख्बाजा अहमद अब्बास, कमलेश्वर, Ernest Hemingsway, Perles buck, Thomas bodkan,Tolstoy और Gorky इत्यादि। संसार की सुप्रसिद्ध कहानियों के अध्ययन से ही उन्होंने जाना की समय, परिस्थितियों और राजनीतिक व्यवस्था अथवा उथल-पुथल के अनुसार क्या लिखा जा रहा है। उन के अनुसार उन्होंने कोई ऐसी रचना नहीं पढ़ी जिस का गौण अथवा मुखर सम्बन्ध राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों अथवा अर्थव्यव्स्था से न हो। उन के अनुसार कहानी में बात चाहे इतिहास की हो, विज्ञान की, भूगोल की, आत्मविश्लेषण की, भीतर की पीड़ाओं की अथवा राजनीति की हो, प्रतीक रूप में ही उस का आना उचित है और दूसरी बात है कि राजनीति का परिवर्तन मानव के लिए हर प्रकार का परिवर्तन ला खड़ा कर देता है। उन के अनुसार उन्होंने सभी कुछ इसी रूप-रेखा, इसी भाव को ले कर प्रतीकों एवं संकेतों में लिखा है। ऐसी अर्न्तधारायें भी हैं जो आदमी का पीछा नहीं छोड़ती। आदमी नये को अपना लेता है पुराने को भुला नहीं सकता। दोनों को साथ ले कर चलता है तो उस का वर्तमान उस से छूटता है। उन्होंने बहुत कुछ अर्न्तधारा प्रवाह और चेतन धारा प्रवाह में लिखा है।
अपनी सब से प्रिय विधा के बारे में वे कहते हैं- मेरी सब से प्यारी विधा रही है नावल। मैं समझता हूँ कि लेखन दो प्रकार का होता है। सार का बिस्तार और बिस्तार का सार। जब हम काव्य लिखते हैं तो विस्तार का सार हमारे पास होता है। हमारा अभिप्राय बड़ा सीमित होता है और कईं बार हमारे पास केवल सार होता है और वह विस्तार चाहता है तो रचनाकार उपन्यास लिखता है। मैंने भी उपन्यास लिखे। इस में मेरी ज्यादा रूचि है। वह इसलिए कि उपन्यासों में भी कलातमक्ता लाई जा सकती है जब वह संकेतात्मक हों। सारथी जी के उपन्यासों में सार का विस्तार तो है परन्तु वह विस्तार भी उनके अनुभवों एवं अनुभूतियों का सार रूप ही कहा जाएगा। प्रतीकात्मक शैली में लिखे उनके दार्शनिक सार को समझने हेतु इन उपन्यासों पर समीक्षात्मक एवं अनुसंधानात्मक कार्य की बहुत अधिक ज़रूरत है।
.........क्रमशः ...........कपिल अनिरुद्ध

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