सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Monday, 23 April 2018

सागर कि कहानी (50)


सागर कि कहानी (50) 
आप के सुझाव आमंत्रित हैं।
वर्ष 1980 में सारथी जी का एक और डोगरी उपन्यास ‘रेशम दे कीड़े’ प्रकाश में आया जिसे जम्मू कश्मीर कला, भाषा एवं संस्कृति अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। जब नीति आधारित शासन के स्थान पर शासन आधारित नीतियाँ बनने लगें, जब सत्ता सेवा के लिए न हो कर स्वार्थ सिद्धि हेतु इस्तेमाल होने लगे तो संवेदनशील रचनाकार इस शोषण वृति पर कुठराघात करने को विवश हो जाता है । रेशम दे कीड़े उपन्यास में सारथी जी ने इसी स्वार्थ लोलुपता एवं शोषण वृति पर कुठराघात किया है । यह उपन्यास आज की राजनीति के अधोगमन का विश्लेषण करने के साथ-साथ आदर्श राज्य की प्रस्थापना की ओर भी संकेत करता है। इस उपन्यास का अँग्रेजी अनुवाद (power plays) कर्नल शिवनाथ द्वारा किया गया जिसे डोगरी संस्था ने वर्ष 2006 में प्रकाशित किया । वर्ष 1984 में दो उपन्यास सारथी जी कलमबद्ध करते हैं पहला उपन्यास पंजाबी का बिन पैरा दे धरती जो सांस्कृतिक राजनीतिक और धार्मिक गिरावट को बड़ी सशक्तता के साथ पेश करता है दूसरा डोगरी भाषा का उपन्यास ‘पत्थर ते रंग है। रचनाकार का मानना है कि समाज निर्माण में कलाकारों संगीतकारों एवं साहित्यकारों का अमूल्य योगदान होता है परंतु समाज उनके योगदान से सर्वदा अनभिज्ञ रहता है। उपन्यास एक परिकल्पना पर आधारित है नगर के सारे कलाकार हड़ताल पर चले जाते हैं। नए गीतों का सृजन रुक जाता है, नए चित्र साकार रूप ग्रहण नहीं करते, नई धुनें सुनने को नहीं मिलती। नगर रंगहीन, सुरहीन होने लगता है । साहित्य, कला और संगीत के बिना नगर का विकृत एवं बेनूर होते जाना, इसका बेहद मार्मिक चित्र उपन्यास में पढ़ने को मिलता है। यह उपन्यास सारी कालयों में एकरूपता स्थापित करने के साथ-साथ ललित कलाओं के महत्व एवं उपयोगिता को रेखांकित करता है। सारथी जी नगर के विकास को कला और साहित्य के विकास से जोड़ कर देखा करते। उनके अनुसार जिस नगर में से परिपेक्ष (perspective) जानने वाले चित्रकार अलोप होते जाएँ, जिसमें अरूज़ जानने वालों को अपनी इज्जत बचानी पड़ रही हो, जिसमें साहित्य के साथ प्यार करने वालों की गिनती घटती जा रही हो वह नगर क्या विकास करेगा। वह कहते हैं विकास नाम है साहित्य के विकास का, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य एवं वादन के विकास का। जीवन में ललित कलाओं के महत्व का गान करते हुए वे अक्सर भर्तृहरि का यह श्लोक सुनाया करते-
साहित्य संगीत कला विहीन:।
साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन:।।
अर्थात साहित्य (गद्य एवं पद्य), संगीत (गायन, वादन एवं नर्तन)
एवं कला (चित्रकला, मूर्तिकला, वस्तु कला) से विहीन मनुष्य उस पशु के समान है जिस के सींग और पूंछ ह न हो। समाज निर्माण में एक रचनाकार एवं कलाकार के योगदान को वह सर्वोपरि मानते परंतु कलाकार के संस्कृति एवं संस्कार शून्य होने को पर नैतिक मूल्यों के ह्रास का सबसे बड़ा कारण मानते।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 17 April 2018

सागर की कहानी( 49)

सागर की कहानी( 49) ......कृपया अपने सुझावों से अवगत अवश्य करवाएँ ।
चेतन, माया, जगत और मकान मालिक के नाम से संबोधित उपन्यास के यह चार पात्र क्रमशः एक साधक, भ्रम, संसार और गुरू का प्रतीक बन कर उभरते हैं। उपन्यास का शीर्षक ‘मकान’ भी एक ही समें मे कई तथ्यों की ओर संकेत करता है हमारा मन शरीर रूपी मकान में टिका हुआ है। मन रूपी मकान में चेतना बास करती है और चेतना रूपी मकान में ही परमचेतना का बसेरा है। दूसरी तरफ इस शरीर को भी रहने हेतु स्थूल मकान की आवश्यकता है। यह स्थूल मकान ब्रह्मण्ड़ रूपी मकान का ही छोटा सा हिस्सा है। यह उपन्यास के शिल्प का ही कमाल है कि वह एक ही समें में इन सभी संदर्भों और अर्थों को स्पष्ट करता जाता है। इस के लिए अपनी विशिष्ट प्रतीकात्मक शैली और भाषा का चुनाव भी उपन्यास स्वयं ही करता है।
सारथी जी के उपन्यासों की सब से बड़ी विशेषता उन के सार्वभौमिक कथ्य की है और यह बात उनके दूसरे उपन्यासों के साथ साथ ‘मकान’ नामक उपन्यास पर भी खरी उतरती है। इस उपन्यास में एक साधक के भीतरी द्वन्द्वों, त्रुट्टियों और उपलब्ध्यिों का चित्रण तो है ही परन्तु साधना पद्धति किसी विषेश पंथ या सम्प्रदाय के साथ जुड़ी हुई नहीं है। मकान मालिक के कमरे में लगे हुए चित्र किसी विशेष पंथ या सम्प्रदाय का पता नहीं देते बल्कि यह उपन्यास मानव जाति की अनबूझ पहेलियों को ही सुलझाता नज़र आता है। मकान मालिक के कमरे के रचनात्मक और कलात्मक वातावरण को चित्रित करती यह पंक्तियां देखिये-‘अनेक ग्रंथ, कितनी ही पोथिया और फिरी लौ की तस्बीरें, सूरज के चित्र। दिन के चित्र और चारो तरफ व्याप्त इक खुशबू यह सब कुछ एक कमरे में था जिस के मध्य बैठा मकान मालिक किसी ग्रंथ को खोल कर देख रहा था।‘
उपन्यासकार ने इस उपन्यास में एक बहुत महत्व वाले तथ्य की ओर संकेत किया है। एक व्यक्ति काम बासना के कारण दुविधाग्रस्त नहीं है बलिक कामनाओं के और भोगों के सूक्ष्म विचार, भाव और कल्पनायें ही उसे भ्रमित करते हैं। यह भाव, विचार और कल्पनायें ही उसे वर्तमान के धरातल पर नहीं रहने देते । भोगों को भोग कर, उन की क्षणभुंगरता का चिन्तन कर यदि एक साधक उनके विचारों से छूट जाता है तो यह एक उपलब्धि होगी। परन्तु जो भोगता है उस के भीतर और भोगने की इच्छा पैदा होती है और जो भोगों की क्षणभुंगरता का चिन्तन करते हुए बिना भोगे उन से बचना चाहता है वह भी मानसिक तौर पर भोगों से, उनके विचारों, भावों एवं कलपनाओं से छूटता नहीं।
उपन्यास के अन्त में मुख्य पात्र चेतन, मकान मालिक अर्थात गुरु के मार्गदर्शन में माया के पर्दे को हटा कर जगत के रहस्य को समझ कर जिस्म के टूटने फूटने वाले मकान को छोड़ कर हमेशा बने रहने वाले मकान में प्रवेश कर अमरता प्राप्त कर लेता है। बह एक बूँद की तरह समुद्र में समा कर समुद्र ही हो जाता है। बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब- इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फना हो जाना अर्थात एक बूँद की सब से बड़ी मौज, सब से बड़ा आनन्द समुद्र में समा कर समुद्र ही हो जाना है। चेतन भी परम चेतना के सागर में समा कर सागर ही हो जाता है।
मकान उपन्यास अस्थिरता अशान्ति भ्रम और संशय रूपी मानसिक मकान से स्थिरता शान्ति और आनन्द रूपी मकान तक की यात्रा है। यदि यह कहा जाये कि सारथी जी ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभूतियों को 97 पन्नों के इस उपन्यास में समेटा हुआ है तो अतिशयोक्ति न होगी।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध