सागर कि कहानी (50)
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वर्ष 1980 में सारथी जी का एक और डोगरी उपन्यास ‘रेशम दे कीड़े’ प्रकाश में आया जिसे जम्मू कश्मीर कला, भाषा एवं संस्कृति अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। जब नीति आधारित शासन के स्थान पर शासन आधारित नीतियाँ बनने लगें, जब सत्ता सेवा के लिए न हो कर स्वार्थ सिद्धि हेतु इस्तेमाल होने लगे तो संवेदनशील रचनाकार इस शोषण वृति पर कुठराघात करने को विवश हो जाता है । रेशम दे कीड़े उपन्यास में सारथी जी ने इसी स्वार्थ लोलुपता एवं शोषण वृति पर कुठराघात किया है । यह उपन्यास आज की राजनीति के अधोगमन का विश्लेषण करने के साथ-साथ आदर्श राज्य की प्रस्थापना की ओर भी संकेत करता है। इस उपन्यास का अँग्रेजी अनुवाद (power plays) कर्नल शिवनाथ द्वारा किया गया जिसे डोगरी संस्था ने वर्ष 2006 में प्रकाशित किया । वर्ष 1984 में दो उपन्यास सारथी जी कलमबद्ध करते हैं पहला उपन्यास पंजाबी का बिन पैरा दे धरती जो सांस्कृतिक राजनीतिक और धार्मिक गिरावट को बड़ी सशक्तता के साथ पेश करता है दूसरा डोगरी भाषा का उपन्यास ‘पत्थर ते रंग है। रचनाकार का मानना है कि समाज निर्माण में कलाकारों संगीतकारों एवं साहित्यकारों का अमूल्य योगदान होता है परंतु समाज उनके योगदान से सर्वदा अनभिज्ञ रहता है। उपन्यास एक परिकल्पना पर आधारित है नगर के सारे कलाकार हड़ताल पर चले जाते हैं। नए गीतों का सृजन रुक जाता है, नए चित्र साकार रूप ग्रहण नहीं करते, नई धुनें सुनने को नहीं मिलती। नगर रंगहीन, सुरहीन होने लगता है । साहित्य, कला और संगीत के बिना नगर का विकृत एवं बेनूर होते जाना, इसका बेहद मार्मिक चित्र उपन्यास में पढ़ने को मिलता है। यह उपन्यास सारी कालयों में एकरूपता स्थापित करने के साथ-साथ ललित कलाओं के महत्व एवं उपयोगिता को रेखांकित करता है। सारथी जी नगर के विकास को कला और साहित्य के विकास से जोड़ कर देखा करते। उनके अनुसार जिस नगर में से परिपेक्ष (perspective) जानने वाले चित्रकार अलोप होते जाएँ, जिसमें अरूज़ जानने वालों को अपनी इज्जत बचानी पड़ रही हो, जिसमें साहित्य के साथ प्यार करने वालों की गिनती घटती जा रही हो वह नगर क्या विकास करेगा। वह कहते हैं विकास नाम है साहित्य के विकास का, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य एवं वादन के विकास का। जीवन में ललित कलाओं के महत्व का गान करते हुए वे अक्सर भर्तृहरि का यह श्लोक सुनाया करते-
साहित्य संगीत कला विहीन:।
साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन:।।
अर्थात साहित्य (गद्य एवं पद्य), संगीत (गायन, वादन एवं नर्तन)
एवं कला (चित्रकला, मूर्तिकला, वस्तु कला) से विहीन मनुष्य उस पशु के समान है जिस के सींग और पूंछ ह न हो। समाज निर्माण में एक रचनाकार एवं कलाकार के योगदान को वह सर्वोपरि मानते परंतु कलाकार के संस्कृति एवं संस्कार शून्य होने को पर नैतिक मूल्यों के ह्रास का सबसे बड़ा कारण मानते।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध
साहित्य संगीत कला विहीन:।
साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन:।।
अर्थात साहित्य (गद्य एवं पद्य), संगीत (गायन, वादन एवं नर्तन)
एवं कला (चित्रकला, मूर्तिकला, वस्तु कला) से विहीन मनुष्य उस पशु के समान है जिस के सींग और पूंछ ह न हो। समाज निर्माण में एक रचनाकार एवं कलाकार के योगदान को वह सर्वोपरि मानते परंतु कलाकार के संस्कृति एवं संस्कार शून्य होने को पर नैतिक मूल्यों के ह्रास का सबसे बड़ा कारण मानते।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध