Thursday, 26 April 2012
Monday, 23 April 2012
Friday, 20 April 2012
गुरुदेव 'सारथी' जी के कथनानुसार ---
....................मैं सभी अवतारों व पीरों -पैगम्बरों को घड़ी साज ही कहा करता हूँ ...... एक वैज्ञानिक भी अवतार पुरुष और महान घड़ी साज होता है वह भी समय की समस्याएँ ही सुलझाने के लिए जन्म लेता है और ऐसे ऐसे विधि विधान तलाश कर के, प्रयोग कर के, अन्वेषण तथा अनुसन्धान कर के समय को ही सुखद और सुविधाजनक बनाने का प्रयास करता है । और ललित कलाओं के सभी प्रेमी, नर्तक, मूर्तिकार, चित्रकार, काव्यकार, गद्यकार और संगीतकार ये सभी महान घड़ी साज होते हैं । समय का विवरण भी सुरक्षित करते हैं । और सुख और आनंद की उपलब्धि करवा कर युग को देते हैं । मुझे कितना अच्छा लगता है इन्हें घड़ी साज कहते हुए ..................
....................मैं सभी अवतारों व पीरों -पैगम्बरों को घड़ी साज ही कहा करता हूँ ...... एक वैज्ञानिक भी अवतार पुरुष और महान घड़ी साज होता है वह भी समय की समस्याएँ ही सुलझाने के लिए जन्म लेता है और ऐसे ऐसे विधि विधान तलाश कर के, प्रयोग कर के, अन्वेषण तथा अनुसन्धान कर के समय को ही सुखद और सुविधाजनक बनाने का प्रयास करता है । और ललित कलाओं के सभी प्रेमी, नर्तक, मूर्तिकार, चित्रकार, काव्यकार, गद्यकार और संगीतकार ये सभी महान घड़ी साज होते हैं । समय का विवरण भी सुरक्षित करते हैं । और सुख और आनंद की उपलब्धि करवा कर युग को देते हैं । मुझे कितना अच्छा लगता है इन्हें घड़ी साज कहते हुए ..................
घड़ी साज ----सारथी
...................इसी रहस्य को मैं यूं भी सुना सकता हूँ कि तुम्हे जादू का खेल अच्छा लगता है । तुम प्रतिदिन टिकट खरीद कर हाल में जा बैठते हो और देखने का, दृष्ट और हृदय दोनों का आनंद लेते हो । परन्तु एक स्थिति तुम्हारी यूं भी और यह भी आ सकती है कि सोचो - रोज़ पैसे खर्च करता हूँ । रोज़ एक ही टिकट ? एक ही हाल ? एक ही तमाशा? एक ही जादूगर । एक ही वही मैं ? तो अब यह संभव है कि तुम इस प्रक्रिया से मुक्त होना चाहो । तो इस सब नाटक में प्रधानता भेद की है । ट्रिक की है । महज हाल को और तमाशे को त्याग देने से तुम्हारा समाधान कठिन है । संतुष्टि कठिन है । समाधान तो संभव है समझने में ।ज्ञान में और विवेक में । जादूगर से दोस्ती करने में । जिज्ञासा का समाधान होगा जब तुम जादूगर के घर पहुँच जाओगे और किसी भी प्रकार उस से जादू के सारे चमत्कार और भेद जान जाओगे । और जब पता लग जाएगा कि जादू वादू तो कुछ नहीं था । केवल अपनी ही दृष्टि का भ्रम था । मैं ही धोखा खा रहा था तो अपनी मूर्खता पर, अज्ञानता पर, निद्रा पर जितना हंस सको हंसो ।................
(गुरुदेव के लेख का यह अंश उन की ललित निबंधों की पुस्तक 'अज्ञात' में छपा है ।
...................इसी रहस्य को मैं यूं भी सुना सकता हूँ कि तुम्हे जादू का खेल अच्छा लगता है । तुम प्रतिदिन टिकट खरीद कर हाल में जा बैठते हो और देखने का, दृष्ट और हृदय दोनों का आनंद लेते हो । परन्तु एक स्थिति तुम्हारी यूं भी और यह भी आ सकती है कि सोचो - रोज़ पैसे खर्च करता हूँ । रोज़ एक ही टिकट ? एक ही हाल ? एक ही तमाशा? एक ही जादूगर । एक ही वही मैं ? तो अब यह संभव है कि तुम इस प्रक्रिया से मुक्त होना चाहो । तो इस सब नाटक में प्रधानता भेद की है । ट्रिक की है । महज हाल को और तमाशे को त्याग देने से तुम्हारा समाधान कठिन है । संतुष्टि कठिन है । समाधान तो संभव है समझने में ।ज्ञान में और विवेक में । जादूगर से दोस्ती करने में । जिज्ञासा का समाधान होगा जब तुम जादूगर के घर पहुँच जाओगे और किसी भी प्रकार उस से जादू के सारे चमत्कार और भेद जान जाओगे । और जब पता लग जाएगा कि जादू वादू तो कुछ नहीं था । केवल अपनी ही दृष्टि का भ्रम था । मैं ही धोखा खा रहा था तो अपनी मूर्खता पर, अज्ञानता पर, निद्रा पर जितना हंस सको हंसो ।................
(गुरुदेव के लेख का यह अंश उन की ललित निबंधों की पुस्तक 'अज्ञात' में छपा है ।
Sunday, 15 April 2012
गुरुदेव 'सारथी' जी के कथनानुसार ---
.............घड़ी साज तो वही प्रभु है । वही सर्वशक्तिमान, रचैयता और प्रकाश का सागर है वही समय समय पर समय को ठीक करने और सुनिश्चित करने के लिए अवतार धारण करता है । विविध रूपों में अवतरित होता है । वही कहता है -समय का चक्र जब उल्टा घूमने लगता है और दिन के समय भी रात्रि ही का भ्रम होने लगता है तब वह घड़ी साज सुइयों को ठीक करने के लिए कभी राम, कभी कृष्ण, कभी वामन, कभी नरसिंह, कभी मुहम्मद, कभी मूसा, नानक, भगवन बुद्ध, महावीर और दशमेश आदि का शरीर धारण करता है। .......................
.............घड़ी साज तो वही प्रभु है । वही सर्वशक्तिमान, रचैयता और प्रकाश का सागर है वही समय समय पर समय को ठीक करने और सुनिश्चित करने के लिए अवतार धारण करता है । विविध रूपों में अवतरित होता है । वही कहता है -समय का चक्र जब उल्टा घूमने लगता है और दिन के समय भी रात्रि ही का भ्रम होने लगता है तब वह घड़ी साज सुइयों को ठीक करने के लिए कभी राम, कभी कृष्ण, कभी वामन, कभी नरसिंह, कभी मुहम्मद, कभी मूसा, नानक, भगवन बुद्ध, महावीर और दशमेश आदि का शरीर धारण करता है। .......................
Thursday, 12 April 2012
घड़ी साज ----सारथी
सृष्टि में जो कुछ भी तुम्हे दिखाई दे रहा है उस के दो रूप हैं । एक रूप स्थूल है दूसरा सूक्षम । मैं भूत तत्वों की ही बात कर के सम्बन्ध स्थापित करूँगा । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश यह पांच तो तुम देख ही रहे हो । और इन के स्थूल होने पर कारनामे भी देख रहे हो । इन का एक रूप यह भी है की यह सभी भूत तमोगुणी भी हैं रजोगुणी भी हैं और सतोगुणी भी । बैसे तो पृथ्वी और जल को तमोगुणी कहा जाता है । अग्नि और वायु को रजोगुणी कहा जाता है । और आकाश तत्व को (शून्य को - व्योम को ) सतोगुणी कहा जाता है ।
यह भी एक सत्य स्थापित होता है की वायु प्राणदायक भी है, पालक भी है और विनाशक भी । तो यह पाँचों ही तीनों गुणों में हैं । अब तुम यदि कविता की बात करते हो तो मुझे लगता है तुम गुण ही की बात कर रहे हो । कविता भी तमो, रजो और सतोगुणी होती है ।
परन्तु दो बातें कहना अत्यावश्यक है । एक यह की पृथ्वी में, जल में, वायु अग्नि और आकाश पांचो में काव्य के तत्व विद्यमान हैं । और काव्य में भी इन पाँचों के तत्व गुण और धर्म विद्यमान होते हैं। परन्तु तुम्हारा प्रशन बहुत सटीक है और उत्तर का अधिकारी है इसलिए विचार देता हूँ कि अश्लील, गन्दा, घटिया, निरर्थक और व्यर्थ और फालतू काव्य भी होता है । क्योंकि कवि भी इन विभागों से बहार कि वस्तु कदापि नहीं है । कवि भी आदमी है, मानव है । और मानव वृतिओं से तमोगुणी भी होता है, रजोगुणी भी होता है और सतोगुणी भी होता है ।
जो कवि क्षणिक रस का, सुख का अहसास करवाता है और अहसास समाप्त हो जाने पर भी उस का ढिंढोरा पीटे जाता है, यही तमोगुण है और कुछ नहीं है । जो कवि स्वयं अन्धकार में है वह प्रकाश का विवरण कैसे लिख पायेगा । इसीलिए तुम्हे कोई काव्य बहुत ही अच्छा लगता है । कोई सुंदर लगता है । कोई सुंदर और अच्छा नहीं लगता ।
अत्युत्तम काव्य की परिभाषा सर्वोपरि गुण की परिभाषा है । जगत में जो कुछ भी अत्युत्तम है सर्वोच्च है सर्वप्रथम है अद्वितीय है, अनुपम है, वही सतोगुणी काव्य है । ऐसे काव्य में वायु जैसा प्राण, जल जैसे सूक्ष्मता तथा कोमलता, अग्नि जैसे गरिमा और प्रकाश, पृथ्वी जैसे सहिष्णता का और अविष्कारक, उत्पादक, रचनात्मक भाव तथा आकाश जैसे विशालता होगी । इन गुणों के होते हुए यदि तुम्हे गुणों का ज्ञान न हो सके तो तुम्हे गुणों को प्राप्त करने समझने और अनुभव करने के लिए बार बार प्रयत्न करना पड़ेगा । कई बार सारा जीवन ही व्यय करने पर पर भी ठीक और पूरे अर्थों, भावों और तात्पर्यों तक पहुंचना कठिन हो जाता है । अर्थ ही काल से परे होता है । काव्य रहस्य नहीं है । रहस्य का जन्म तथा उद्घाटन अवश्य है । उत्तम काव्य बहुत दीर्घ कालीन सुख आनंद और रस दायक होता है । ज्ञान हो जाने पर व्यवहार, सृष्टि और पीड़ा, संवेदना का गूढ़ ज्ञान हो जाना स्वाभाविक है । उच्च साहित्य जीवन के साथ सम्बन्ध बांधता है । एक तारतम्य पैदा करता है । एक समता समानता और प्रेम की भावना को जन्म देता है । जीवन की विविधता की पहचान भी करवाता है ।
परन्तु एक काव्य सब कुछ छीन ही लेता है। विरक्ति देता है। वैराग्य को सर पर लाद देता है । आसक्ति तथा प्रेम तथा सौन्दर्य भाव भी लुप्त हो जाते हैं । उदासीनता और निराशा का एक दीर्घ क्र्म जन्म ले लेता है । और आदमी चाहता है की कुछ न चाहे । कुछ भी मोहक न हो । दृष्टि के द्वारा दृश्य ही न बने । अर्थ, भाव अर्थ, चरम अर्थ और गर्भार्थ द्वारा भी अर्थ न निकलने का भाव बना ही रहे और काव्य का मूल केंद्र वैराग्य हो जाए । वह भी काव्य होता है । वास्तव में वही काव्य होता है । काव्य स्वतन्त्र करता है । काव्य बंधन मुक्त करता है । स्वतन्त्र करता है । काव्य मोक्ष का मार्ग है । जायसी, रसखान, बाबा फरीद, नानक, पलटू, दादू, कबीर, तुलसी, मीरा, रमण, सूरदास आदि काव्यकारों ने अपने अस्तित्व का विलय विराट में किया । विराट को उपलब्ध किया । सीमित ढांचे से निकल कर असीम में चले गए । असीम से निकल कर 'नहीं' में प्रवेश कर गए । वे सर्वोत्तम, सर्वोच्च, अद्वितीय और उस काव्य के रचैता थे जो सृष्टि के कण कण में है । और जो प्राण बन कर श्वास श्वास में समा रहा है । जो देहों को त्याग रहा है । जो देहों को धारण कर रहा है । जो गति भी है गतिमान भी है जो गति का मूल भी है ।
काव्य वही विराट है जो पहले गुरत्वाकर्षण है, फिर शब्द है, फिर अर्थ है। वही फिर तीन गुण ले कर रस, रूप, गंध बन कर दृश्य और अदृश्य में है ।
परन्तु एक बात का विश्वास आवश्यक है । सूक्षम तथा अतिसूक्षम सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी है। उस का स्थूल होना किसी घटना का क्रम मात्र हो सकता है। परन्तु यह कभी संभव नहीं है की यदि स्थूल है तो सूक्षम का सार होगा । अति सूक्षम केंद्र है और सभी उस के वृत्त । वह स्वयं ही के वृत्त काव्य, नाटक, संगीत, और रंगों में बना कर स्वयं ही को देखता है । चित्र पहले ही से आकाश (शून्य ) में होता है । रंग और गति उसे स्थूल बना देते हैं ।
( this article of Gurudev was published in Dianik kashmir times under the title "Gari Saaj" )
Tuesday, 10 April 2012
गुरुदेव 'सारथी' जी के कथनानुसार ---
...."मेरी बात मानो तो एक मार्ग की इस समय आश्यकता है । वह है सब धर्मों का एक धर्म में विलय कर देने का । सभी संकेतों और संदेशों के स्थान पर एक संकेत और सन्देश में महाविलय। महाविलय का महामार्ग । तुम स्वयं से सर्वप्रथम कह दो की तुम सभी धर्मों के (सत्यों में, क्योंकि सत्य के अतिरिक्त किसी धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती ) स्वयं को विलय कर चुके हो । सब में लीन कर चुके हो । तुम्हारा अस्तित्व संसार के सभी धर्मों के समन्वय का अस्तित्व है । तुम्हारा अस्तितिव सब में एक ही सत्य होने का अस्तित्व है । एक ही यथार्थ होने, एक ही प्रकाश होने का अस्तित्व तुम्हारा अस्तित्व है । वह सब तुम्हारे कारण हैं और तुम सब धर्मों के कारण हो"............. ।
Sunday, 8 April 2012
Tuesday, 3 April 2012
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गुरुदेव 'सारथी' जी के कथनानुसार --
( गुरुदेव का यह वक्तव्य उन की डोगरी लेखमाला 'चिंतन' से लिया गया है ।)
"लेखन शक्ति विलक्षण शक्ति ऐ। इस दा मूल माहनूं दे प्रति ते माहनूं दी संवेदना बिच्च छ्प्पे दा ऐ । इस दे बीज अतिसूक्षम होने करिए इस शक्ति गी ललित कला दी संज्ञा दिती गई दी ऐ । ललित कला अर्थात फ़नून-ए- लतीफ़ अर्थात fine arts। fine arts दा भावार्थ ऐ लतीफ़, बारीक, सूक्षम जां नाजुक कारीगिरी, इस थमां होर अग्गे अरूप गी रूप देना, सूक्षम गी स्थूल करना, अदृश्य गी दृश्य करना ऐ ।
महारिषि भर्तृहरी इस्से सन्दर्भ च अपने ज्ञान शतक बिच्च ग्लांदे न -साहित्य संगीत कला विहीना
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:
उन्दा भाव ऐ जे जेका मनुक्ख साहित्य संगीत ते कला थमां खाल्ली ऐ ओं बिना पूछल ते बिना सिंगे दे जानबर ऐ । उनें सत् प्रकार दी रचनाएँ, कृतियें गी ललित कला आखे दा ऐ । साहित्य दा तात्पर्य गद्य ते पद्य (नज़्म ते नसर) संगीत दे त्रै क्षेत्र - गायन, वादन ते नर्तन ते कला दे सन्दर्भ च उन्दा इशारा मूर्तिकल ते चित्रकला ऐ । मेरे विश्वास दे मुताबिक उन्दा भाव बड़ा विपुल, विशाल ऐ । एह ता संभव कदें नई जे समाज बिच्च रोह्न्दा हर मनुक्ख कृतिकार रचनाकार होई जा । उन्दा मतलब जीवन गी साकारात्मक ढंगे कन्ने जीने, उस गी विकास देने ते आनंद दी प्राप्ति कन्ने ऐ।
"लेखन शक्ति विलक्षण शक्ति ऐ। इस दा मूल माहनूं दे प्रति ते माहनूं दी संवेदना बिच्च छ्प्पे दा ऐ । इस दे बीज अतिसूक्षम होने करिए इस शक्ति गी ललित कला दी संज्ञा दिती गई दी ऐ । ललित कला अर्थात फ़नून-ए- लतीफ़ अर्थात fine arts। fine arts दा भावार्थ ऐ लतीफ़, बारीक, सूक्षम जां नाजुक कारीगिरी, इस थमां होर अग्गे अरूप गी रूप देना, सूक्षम गी स्थूल करना, अदृश्य गी दृश्य करना ऐ ।
महारिषि भर्तृहरी इस्से सन्दर्भ च अपने ज्ञान शतक बिच्च ग्लांदे न -साहित्य संगीत कला विहीना
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:
उन्दा भाव ऐ जे जेका मनुक्ख साहित्य संगीत ते कला थमां खाल्ली ऐ ओं बिना पूछल ते बिना सिंगे दे जानबर ऐ । उनें सत् प्रकार दी रचनाएँ, कृतियें गी ललित कला आखे दा ऐ । साहित्य दा तात्पर्य गद्य ते पद्य (नज़्म ते नसर) संगीत दे त्रै क्षेत्र - गायन, वादन ते नर्तन ते कला दे सन्दर्भ च उन्दा इशारा मूर्तिकल ते चित्रकला ऐ । मेरे विश्वास दे मुताबिक उन्दा भाव बड़ा विपुल, विशाल ऐ । एह ता संभव कदें नई जे समाज बिच्च रोह्न्दा हर मनुक्ख कृतिकार रचनाकार होई जा । उन्दा मतलब जीवन गी साकारात्मक ढंगे कन्ने जीने, उस गी विकास देने ते आनंद दी प्राप्ति कन्ने ऐ।
हिंदी रूपांतरण......
हिंदी रूपांतरण......
---- "लेखन शक्ति विलक्षण शक्ति है । इस का मूल मानव के प्रति और मानव की संवेदना में निहित है । इस के बीज अतिसूक्षम होने के कारण इस शक्ति को ललित कला की संज्ञा दी गई है । ललित कला अर्थात फ़नून-ए- लतीफ़ अर्थात fine arts । Fine arts का भावार्थ है लतीफ़, बारीक, सूक्षम जां नाजुक कारीगिरी, इस से ओर आगे अरूप को रूप देना, सूक्षम को स्थूल करना, अदृश्य को दृश्य करना है ।
महारिषि भर्तृहरी इसी सन्दर्भ में अपने ज्ञान शतक में कहते हैं -
साहित्य संगीत कला विहीना
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:
उन का भाव यह है कि यदि मनुष्य साहित्य, संगीत एवं कला से वंचित है तो वह बिना पूँछ और सींग के पशु है । उन्होंने सात प्रकार कि रचनायों एवं कृतियों को ललित कला कहा है । साहित्य का तात्पर्य गद्य एवं पद्य (नज़्म और नसर) , संगीत के तीन क्षेत्र गायन, वादन तथा नर्तन और कला के सन्दर्भ में उन का ईशारा मूर्तिकल एवं चित्रकला की ओर है। मेरे विश्वास के अनुसार उन का भाव बड़ा विपुल और विशाल है । यह तो संभव कभी नहीं हो सकता कि समाज में रहने वाला हर मनुष्य कृतिकार एवं रचनाकार हो जाए । उन का मतलब जीवन को रचनात्मक ढंग से जीने, उसे विकास देने और
आनंद की प्राप्ति से है"।
---- "लेखन शक्ति विलक्षण शक्ति है । इस का मूल मानव के प्रति और मानव की संवेदना में निहित है । इस के बीज अतिसूक्षम होने के कारण इस शक्ति को ललित कला की संज्ञा दी गई है । ललित कला अर्थात फ़नून-ए- लतीफ़ अर्थात fine arts । Fine arts का भावार्थ है लतीफ़, बारीक, सूक्षम जां नाजुक कारीगिरी, इस से ओर आगे अरूप को रूप देना, सूक्षम को स्थूल करना, अदृश्य को दृश्य करना है ।
महारिषि भर्तृहरी इसी सन्दर्भ में अपने ज्ञान शतक में कहते हैं -
साहित्य संगीत कला विहीना
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:
उन का भाव यह है कि यदि मनुष्य साहित्य, संगीत एवं कला से वंचित है तो वह बिना पूँछ और सींग के पशु है । उन्होंने सात प्रकार कि रचनायों एवं कृतियों को ललित कला कहा है । साहित्य का तात्पर्य गद्य एवं पद्य (नज़्म और नसर) , संगीत के तीन क्षेत्र गायन, वादन तथा नर्तन और कला के सन्दर्भ में उन का ईशारा मूर्तिकल एवं चित्रकला की ओर है। मेरे विश्वास के अनुसार उन का भाव बड़ा विपुल और विशाल है । यह तो संभव कभी नहीं हो सकता कि समाज में रहने वाला हर मनुष्य कृतिकार एवं रचनाकार हो जाए । उन का मतलब जीवन को रचनात्मक ढंग से जीने, उसे विकास देने और आनंद की प्राप्ति से है"।
Monday, 2 April 2012
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