सारथी कला निकेतन (सकलानि)

घड़ी साज--------सारथी
उधर मेरी कुछ कहने की चाह बढती जा रही थी । मैं बैठना अधिक हितकर समझता था
। मुझे लगता था कि दिनचर्या में से एकांत में जाना भी दौड़ प्रतियोगिता है ।
आसानी से पहुंचा नहीं जा सकता । इधर शहर और लोग बहुत जल्दी प्रतिवर्तित हो
रहे थे। तीसरी और महत्वपूर्ण बात माता और पिताश्री दोनों के निरंतर
अस्वस्थ्य रहने की थी । घर में निर्धनता थी । भयंकर निर्धनता । पिताश्री
आयकर विभाग में कर्मचारी थे और पैसे पैसे को मोहताज थे। मेरी आय का एक भाग
तो औषधियों आदि में ही चला जाता था । फिर दसवां भाग निकाल कर कुछ न कुछ
खरीदकर, कभी तवी नदी की ओर निकल जाता और श्री महावीर की वानर सेना को कोई
फल या चने आदि डाल आता और साथ ही उनसे यह प्रार्थना करता कि मेरे माता पिता
के लिये, उन के स्वस्थ्य के लिए प्रार्थना करें और कृपा करें । महंगाई तो
थी परन्तु पुस्तक का प्रकाशन सस्ता था आर संभव भी था । मैंने समय चुना था
रात्रि का । रात ग्यारह से बारह तक ध्यान के लिए अवश्मेव बैठना और उस में
सारे शरीर को निष्क्रिय हो जाने का सुझाव देना । महामना की इतनी कृपा थी कि
महामन्त्र जा कर स्थान विशेष में स्थित था और उसे जगाने के लिए एक ही क्षण
की आवश्यकता पड़ती । मुझे अनुभव होता था कि मंत्र जीभा मूल से नाभि में और
नाभि से पलट कर मेरुदंड में प्रतिध्वनित होता है ।
ध्यान के लिए बैठने
के समय टीचर ने कहा था प्रकाश कम हो ताकि एकाग्रता के समय दृष्टि कोई भी
परिकल्पित चित्र न बना सके। कमरे में शून्य अंक का बल्ब भी जला लिया करता
था या फिर एक मोमबत्ती अपने दाहिने काफी दूरी पर और सब से पहले मैं यह
अनुभव करने की कोशिश करता कि मुझे दिखाई क्या दे रहा है । ग्यारह बजे
रात्री के पश्चात लगभग सारे वातावरण में चुप्पी छाई होती और बैठते ही हृदय
की गति जोर जोर से सुनाई देने लगती और उस हृदय की ऊँचे स्वर की गति में
महामंत्र भी उभरता चला जाता कानों में कुछ देर तक चुप्पी की सांय सांय
खनखनाती और फिर दृष्टि की एकाग्रता के कारण पूर्णरूपेण ध्यान दृष्टि पर ही
केन्द्रित हो जाता ।
अब सब से प्रथम, प्रारंभ में आँखों के आगे कुछ
वर्तुलाकार मटमैले घेरे उमड़ते और बिखर जाते । फिर बनते और लुप्त हो जाते
और ऐसे वर्तुलाकार प्राय जामुनी रंग के होते और बीच बीच में कहीं कहीं पर
प्रकाश के तारे जैसे चमकते और उन तारों में किसी प्रकार का प्रारंभ में कोई
क्रम दिखाई नहीं दिया । एक समस्या और खड़ी हो गई । जब भी यह देखने के लिए
ध्यान केन्द्रित होने लगता कि क्या देख रहा हूँ तो झट ही निद्रा मुझ पर
सवार हो जाती । दो चार क्षण ऊंग आती और मैं निद्रा के समुंदर में डूब सा
जाता । दो चार दिन तो ऐसा हुआ । परन्तु मैंने विधि बदल डाली । जब नींद आने
लगे तो एकदम आसन छोड़ देना और आँखों पर पानी के निरंतर छींटे छिडकने शुरू
किये । फिर बैठ जाता था और देखने लगता था और देखते देखते ही नींद की खुमारी
सवार होने लगती । मैं छींटे मारने लगता । एक उपलब्धि यह हुई की यदि सोना
चाहूं तो पांच की गिनती तक गिनने में सो सकता था । आँखें बंद की और एकाग्र
हुआ और बस लघु मृत्यु ।
मैं जगदीश जी से मिला । वह भी अभ्यास कर रहे थे
। परन्तु बताया की उन्हें तो कुछ भी दिखाई नहीं देता है । आँखे बंद करते
हैं तो बस अंधकार ही अन्धकार होता है। मेरे बार बार पूछने पर उन्होंने यही
कहा कि उन्हें क्या किसी को भी आँखें बंद कर के कुछ भी दिखाई नहीं देता ।
उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि मुझे( सारथी भाई ) को भी कुछ दिखाई दे वह
नहीं मानते । यह सच ही एक समस्या थी । मैं भीतर ही भीतर सोच रहा था कि
जगदीश जी को क्यों कुछ नहीं दीखता । फिर मैं तो उसे से अपने विकास और
अविकास के सम्बन्ध में बात कर सकता था जिसे मेरे ही जैसी अनुभूति होती जाए ।
मैंने टीचर को पत्र लिखा । उत्तर प्राप्त करने पर बहुत संतुष्टि हुई ।
उन्होंने उस से आगे क्या है का संकेत भी दे दिया।
एक ओर तो मैं
एकाग्रता के लिए बैठता था । दूसरे कुछ थोडा अध्ययन भी करता था और कुछ एक
पुस्तकों मं मुझे अत्याधिक रूचि लगने लगी । पुस्तकें दोनों प्रकार की थीं ।
साहित्यिक और दर्शन के ग्रन्थ । परन्तु जब दर्शन के किसी अध्याय का श्री
गणेश करता तो मुझे लगता कि पहले से पढ़ा है । उस का कारण शायद यह था कि
मैंने महामना से इतना व्यापक ज्ञान प्राप्त किया था कि कोई भी विषय अछुता
नहीं रह गया था । साथ ही साथ यह भी पता चलने लगा था कि साधना का सत्य क्या
है और यथार्थ क्या है ? जैसे विश्वासघात अथवा शत्रुता अथवा इर्ष्या यह सभी
यथार्थ ही है, परन्तु सत्य की कोटि में आ नहीं पाते हैं । इन्हें सत्य का
अंश नहीं कहा जा सकता है । सत्य तो शिवम् अर्थात कल्याणकारी होता है ।
इर्ष्या में कल्याण का अभाव है । शून्यता है ।
(गुरुदेव का यह लेख दैनिक कश्मीर टाइम्स में 17 मार्च 1991 में घडी साज शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित हुआ )
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