सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Saturday, 9 June 2012


घड़ी साज--------सारथी
यह जो सिनेमाघर हैं, नाटकगृह हैं, इन के मालिक -चालक बड़े चतुर और स्वार्थी होते हैं । जब खेल तमाशा नहीं होता है तो कोई डौंडी, मुनादी या इश्तिहारबाजी नहीं करते । वह इसलिए नहीं कि खेल तमाशे का आयोजन नहीं है । वह तो भय इसलिए खाते हैं कि कहीं कोई जा कर खाली भवन को न देख ले और उदास न हो जाए । कहीं वह यह न सोच बैठे कि खेल तमाशे के समय में कितनी रौनक, हंगामा, शौर और उत्साह एवं कोलाहल होता है । टिकटों पर क्या क्या झगडे और ब्लैक होते हैं । फिर भी प्रवेश नहीं मिलता । दाम चाहे कितने बढकर देने पड़ें परन्तु हर कोई आँखों और कानों कि पिपासा को शांत करने के साथ साथ मनोकामना भी पूरी करता है और अब इस समय जब कि काम काज ही ठप्प है तो वास्तविकता न खुल जाए, कहीं सत्य ही बाहर न निकल जाए ।

तुम ने प्राय: देख होगा कि टिकटों कि खिड़की तभी खुलेगी जब कोई पिक्चर चलने वाली हो । यदि तुम किसी दिन ऐसा करो कि कहीं खेल तमाशा न हो और वहां जा कर टिकटों कि मांग करो और भवन में प्रवेश चाहो तो तुम्हे संभव है पागल कि संज्ञा मिल जाए या फिर तुम धक्के मार कर बहार निकाल दिए जाओ । क्योंकि कोई भी भ्रम जाल फैलाने वाला और उस के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाला कभी भी अपना भेद खुलने नहीं देगा और नहीं चाहेगा कि भेद खुले के पश्चात तुम्हारी रूचि कम हो जाए अथवा मर ही जाए ।
परन्तु मित्र! आज ही भवन में जाओ और तब जाओ जब पिक्चर बंद है । केवल सफ़ेद और खली पर्दा सामने टंगा हुआ है । तुम स्वेच्छा से कुछ भी वहां आयोजित नहीं कर सकते । मात्र वहीँ बैठ कर इस अनुभूति की चरमसीमा तक पहुँच सकते हो कि सफ़ेद और खाली पर्दे की हालत, यह स्थिति तमाशे से पहले की है या बाद की ? शीघ्र ही तुम्हे ज्ञान हो जाएगा कि जिस स्थिति में तुम भवन में बैठे हो, वह स्थिति खेल तमाशे के पूर्व और पश्चात दोनों की है और एक ही है वह है खालीपन । कुछ नहीं । शून्य की स्थिति । तो तब तुम्हारे मन में प्रश्न पैदा हो सकता है कि यदि यह पर्दे कि खालीपन कि स्थिति पहले और बाद दोनों कि है तो मध्य में क्या थी । वह ड्रामा, वह नाटक, वह सारा स्वांग मध्य में क्या था, जिस का आदि भी खालीपन है और अंत भी खालीपन? आदि भी कुछ नहीं और अंत भी नहीं है । मध्य में एक झमेला था, क्षणभुंगर नाटक, टूटने वाला स्वप्न जैसा, नहीं का स्वप्न । परिणाम शून्य ।
तुम भवन में ही हो । नाटक देख नहीं रहे हो । बल्कि स्वयं किसी एक महत्वपूर्ण पिक्चर में महत्वपूर्ण चरित्र की भूमिका निभा रहे हो और बहुत मजे में हो । तुम्हे खेल करना, देखना और खेल हो जाना बहुत अच्छा, सुखदायक लगता है । टिकट ले कर ओरों के नाटक देखना तो जीवन का लक्ष्य लगता है । परन्तु कभी ध्यान नहीं आता कि यह पर्दा है जिस पर संबंधों की, आकांक्षाओं की, स्वार्थों की, अपने अपने मोह को स्थापित करने, लोभ को साकार करने और अहं को एकमात्र केंद्र बनाने की अनेकानेक फ़िल्में चल रहीं हैं । बहुत मनोरंजन हो रहा है । तुम जब भी स्क्रीन(screen) की ओर देखते हो, वहां पर कोई न कोई, तुम से सम्बंधित पिक्चर चल रही होती है और तुम निरंतर इस जगत थियेटर में टिकटें खरीदने, फिल्म देखने और फिल्म में स्वयं जैसा कुछ देखने के जन्म जन्मान्तर से जिज्ञासु और आदि हो चुके हो । तुम खली पर्दा देखने से घबराते हो । पर्दा देखने के विचार से ही काँप जाते हो । तुम्हारे स्वप्न, भोग, सम्बन्ध और सुख टूटने लगते हैं, बिखरने लगते हैं । तुम इसे देखने ही की दशा में जीना चाहते हो और देखने ही की दशा में मृत्यु को प्राप्त होना चाहते हो ।

तुम जन्म जन्मान्तर से भवन के भीतर पिक्चर देखते हुए मरते आये हो । यही संस्कार ले कर, फिर से वहीँ बैठ देख कर सुख की कामना कर रहे हो और तुम्हारा ध्यान इस ओर कदापि नहीं जाता की यदि पर्दे का आदि अंत खाली है, कुछ नहीं है, शून्य है तो पर्दे पर चलती जैसी, शुरू ओर ख़त्म होने वाली फिल्म में सुख कहाँ है ।

एक बड़ी महत्वपूर्ण बात तुम्हे बताता हूँ । पिक्चर चलने के भेद को ओर पर्दे के रहस्य को समझने का प्रयत्न करो, अनुसन्धान करो. परिमार्जन करो , विवेचन करो, कुछ भी करो परन्तु यह सब कुछ अस्थाई है, क्षणिक है, बस पल के पल है, स्वप्न जैसा ही सब है जो जाग कर विनष्ट हो जाएगा । जो पिक्चर बंद होते ही कुछ नहीं में बदल जाएगा । जाओ कोशिश करो ओर केबिन(cabin) की ओर जाओ ओर operator की ओर ध्यान दो, उस से पहचान निकालो, उस से परिचय करो. जो पर्दे पर परछाईयाँ नाचता है और नाच बंद भी करा देता है । उस से यदि तुमारी दोस्ती हो गई तो सारा रहस्य खुल जाएगा और फिर तुम टिकट नहीं खरीदोगे । हाल में बैठने को मन नहीं मानेगा । तुम उदास हो जाओगे । यदि परम की कृपा हुई तो कबीर जैसी स्थिति के निकट पहुच सकते हो ।
मैं तुम्हे बताऊँ operator के पास समय और प्रकाश का नियंत्रण है । वह प्रकाश में से परछाईयों और परछाईयों में से प्रकाश के दर्शन करवाता रहता है । अक्सर पिक्चरें पुनरावृति की अथवा प्रतिछायाए और प्रतिलिपियाँ ही हैं । देखने में पर्दे पर कलाकार अभिनेता अलग अलग सूरतों मुखोटों और नख शिख के लगते हैं परन्तु वे एक ही के द्वारा बने नाच रहे हैं ।
operatorफिल्मों को रिवाईंड करता और चलाता रहता है , बीच में अंतराल है, जीवन और जीवन के बीच का अंतराल । जीवन - शून्य - जीवन, खली पर्दा - फिल्म -खली पर्दा- फिल्म । सब इसी झूले पर हैं , जगत और टिकटें धड़ाधड बिक रही हैं । हाल और हाल वालों का धंधा जोरों पर है ।
(गुरुदेव का यह लेख दैनिक कश्मीर टाइम्स में घडी साज शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित हुआ )
 ·  ·  · May 31 at 3:48pm
  • You, Varun JoshiDaya Ram Daya and 2 others like this.
    • Parth Shradhanand आध्यात्मिक लेख में उस के रहस्यों का सूक्ष्म विवेचन पढ़ अभिभूत हुआ, धन्यबाद......

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