सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Thursday, 31 January 2013

Portrait of Col. Sir. R.N. Chopra by Gurudev in Oil Colours


Portrait of Col. Sir Ram Nath Chopra(1882-1973)  popularly known as Father of Indian Pharmacology and Doyen of Science and Medicine. Government of Kashmir appointed him as Director of Medical Services and then appointed as Director of Drug Research Laboratory ( his personal Laboratory which he donated to the Government of India, Previously called Drug Research laboratory then Regional Research Laboratory and now it is known as Indian Institute of Integrative Medicines) where he served the lab till 1960.
After his Initial stint at Indian Army Sh Sarathi ji was appointed as Artist Under Col. Sir. R.N.Chopra where he used to draw botanical illustrations of Medicinal plants. Dr. Chopra had al praises for this young and creative artist. This portrait of Col. Sir. R.N.Chopra was made by Sh. Sarathi ji to pay tributes to this great man.

Tuesday, 29 January 2013


ग़ज़ल (गुरुदेव 'सारथी' जी )

 किस्सा -ए-दर्द जरा उन को सुना कर देखें
 बर्फ को हम भी ज़रा आग लगा कर देखें

 कोई कहता है उन्हें मोम तो पत्थर कोई
 हो इजाज़त तो ज़रा हाथ लगा कर देखें

 एक ही सोच इक फ़िक्र में आलम गुज़रा
 जा के देखें कि उन्हें पास बुला कर देखें

 शेष ग़ज़ल अभी प्राप्त नहीं हो पाई है ......

Thursday, 17 January 2013

Ghazal by Gurudev

ग़ज़ल (गुरुदेव 'सारथी' जी )
मुझ में क्या था कि मुझ को जान गए
बे बजह तुम भी ख़ाक छान गए

काफिले गुम हुए बगोलों में
खुद गए पावों के निशान गए

आसमां अश्कबार अब तक है
कैसे कैसे थे मेहरबान गए

अब बुलंदी की बात ख़त्म हुई
सर के ऊपर के आसमान गए

जब रुके तो पहाड़ जैसे रुके
जब गए तो सब जहान गए

क्या मिला जो उसे नहीं माना
क्या मिलेगा गर उस को मान गए

'सारथी' जो थे सूये दारो रसन
मंजिलों की वो बात जान गए

Tuesday, 8 January 2013

An article by Gurudev

घड़ी साज ---- गुरुदेव सारथी जी
दुःख काई की तरह है । जिसे हटाओ तो बीच में से जल रुपी जीवन निकल आता है । परन्तु एक तथ्य यह भी है कि यदि काई हटाओ तो थोड़े समय के लिए हट कर फिर छा जायेगी। काई यत्न से तो हट सकती है परन्तु पानी पर से या पानी में से उसे समाप्त करना असंभव है । क्योंकि काई ही जल है । जल ही काई का जनक है । यदि कहीं से काई समाप्त करनी ही पड़े तो वहां से जल ही हटा देना पड़ेगा । गुरु नानक ने कहा है -
पुष्प मध्य जो बॉस बसत है मुकुर माहि जस काई
तैसे ही हरी बसे निरंतर घाट ही खोजो भाई
और दूसरी और मिर्ज़ा नौशा कहते हैं ..
सब्जे को जब कहीं जगह न मिली बन गया रु -ए-आव पर काई
प्रिय बंधू ! यह अज्ञान का ही दृष्टान्त होगा कि जीवन पर दुःख छाया रहता है जो जीवन को दुखमय बनाये रखता है । वास्तव में यदि जल जीवन है तो उसे ढक कर रखने वाला दुःख काई कि भांति है जो ऊपर तो मात्र दिखाई देता है । यह तो जल में जल के जीवन कि भांति विद्यमान है । दुःख को यदि जीवन से विलग जानोगे तो वह अपने अनुपात में बढ जाएगा । बड़ा होता चला जाएगा और फिर तुम जीवन को भोगने के स्थान पर केवल युद्ध करने और और दुखों को पराजित करने में ही आयु गवा दोगे। और यदि दुःख को जीवन का ही एक सत्य मानोगे, जीवन का ही विशेष अंश मानोगे तो संभवत: तुम्हे दुःख का अहसास कम हो और यही एक धारणा है जिसे ले के कर तुम किसी स्वीकारात्मक मार्ग को अपना सकते हो और दुःख के वे खूंटे जो उस ने जीवन के प्राणों में गाड़ रखे हैं उन्हें उखाड़ने में सफल हो सकते हो । यह एक अत्यंत सुलभ और प्रतक्ष्य बात है कि जिस भाव को मानव जीवन में अधिक मान्यता देता है, उस का जीवन उसी सांचे में ढल जाता है और यह सम्भावना इस ओर संकेत करती है कि दुःख को दुःख के निरंतर अहसास को किसी और रुख अथवा भाव में बदला जा सकता है और यह तभी संभव है जब दुःख के स्रोत इस जीवन ही को नींव से ही विश्लेषण और अनुसन्धान के लिए हाथ में ले लिया जाये ।

बुद्ध कुछ और करते हैं । वे दुःख को महादुख में डाल कर अनुपात को बड़ा कर दुःख की तीव्रता को कम करते हैं । सारे जीवन को ही दुखों का मूल जान कर वे क्षीण शरीर और समस्त जीवन को घोर संकट में, घोर तपस्या और घोर उपवास में डाल देते है और उस कि चरमसीमा पर पहुँचते पहुँचते दुःख और सुख को, दोनों से दूर हट कर उन की जीवन पर प्रतिक्रिया देखने लगते हैं और फिर एक मार्ग प्रशस्त कर देते हैं और वह मार्ग विश्व विख्यात हो जाता है । सार विश्व ही जान जाता है कि मानव के अन्त:करण में छुपी हिंसा ही उस के दुःख का सब से बड़ा कारण है ।

मानव दुखी है और अपने दुःख को सुख में परिवर्तित करने के लिए मानव ने सदैव हिंसा की है । और हिंसा से सदैव हिंसा ही बढती है । और यदि दुःख के संक्रमण हेतु स्वयं को ही दुःख के समुद्र में डाल दिया जाए तो दुःख कट सकता है ।

तुम्हे आँख खुलने से लेकर सूर्यास्त तक जो कुछ उपलब्ध होता है, उस में एक बड़ा भाग उन घटनायों और विवरणों का होता है जो या तो दुःख को जन्म देते हैं या फिर दुःख को बढ़ा देते हैं । परन्तु मेरा अनुभव कुछ और है । मुझे लगता है कि दिन भर जो कुछ तुम करते हो, उन में से अधिकतर कार्य ऐसे होते हैं जिनसे तुम दुःख को आमंत्रित कर रहे होते हो । और जब भी तुम सुख की कल्पना करते हो तो दुःख का रूप उग्र हो जाता है । जब भी तुम सुखी होने कि बात सोचने लगते हो तो वही वर्तमान जिस में तुम एक सामान्य जीवन जी रहे होते हो, वही वर्तमान अधिक, और अधिक दुःख का परिचायक बनता जाता है और दुःख और सुख के मध्य जो अंतर है, जो खाई है, वह बढती जाती है और इस प्रक्रिया का शिकार कोई और नहीं, तुम स्वयं होते हो और इस निरंतर क्रिया और प्रतिक्रिया के वर्तुल से निकलने का एक उपाय इन प्रतिक्रियाओं पर किसी और प्रक्रिया का ठूंस देना भी है । कोई ऐसे प्रक्रिया जो सभी अनुभवों-अनुभूतियों और सूक्ष्म अनुभवों के अनुपात को कम कर दें और वह प्रक्रिया दुःख और सुख दोनों से भिन्न होना सुनिश्चित है और वह प्रक्रिया त्याग कि प्रक्रिया हो सकती है । त्याग का अर्थ किसी भी वस्तु को फ़ेंक देना, दूर हटाना अथवा तोड़ फोड़ से नहीं है । और न ही किसी वस्तु को अपने से दूर हटाने ही को त्याग कहा जा सकता है । त्याग अंतर्मन का अन्तकरण और अर्ध चेतन मन का एक सूक्षम और अदृश्य संकल्प है । भीतर का संकल्प हो कर यह बहिर्जगत कि स्थिति को महत्वहीन करता जाता है । जिस वस्तु का जितना बड़ा महत्व है उससे उतना ही बड़ा दुःख का भय भी संभव है । और यदि बड़ी से बड़ी वस्तु के प्रति महत्वहीन जैसी धारणा है तो उसी वस्तु के दुःख अथवा सुख कि प्रतिक्रियाओं से अपने को सहज ही उभारा जा सकता है ।

त्याग कि स्थिति वास्तव में मौन कि स्थिति है । आमतौर पर अभिव्यक्ति भी दुःख और सुख की अनुभूति को बढाती है । इस में 'चुप' की भूमिका एक अंकुश की भूमिका है जो सुख और दुःख दोनों पर लग जाता है । प्रिय पुत्र ! दुःख इतना है की गणना नहीं । ऐसा है कि अभिव्यक्ति साथ नहीं देती और कोई ऐसी दिशा नहीं है, जहाँ इस का फैलाव, इस का विस्तार न हुआ हो । यह माया और अविद्या की भांति सर्वविद्यमान और सर्वव्यापी है । इस से निवृति जीवन से ही निवृति है । और यह निवृति जीते जी भी हो सकती है और यह विधि है अन्त:करण से त्याग की भावना । सभी कुछ देखते, सुनते, खाते पीते व् भोगते हुए त्याग की भावना का निरंतर प्रवाहित रहना ।

Wednesday, 2 January 2013

(भाषांतर डोगरी कहानी )
भ्रम जाल
मूल : श्री ओ. पी. शर्मा "सारथी"
उस बालक ने खुरचनी को सम्भाल कर कड़ाही में ज़ोर से हाथ मारा। दूर तक कड़ाही में एक चमकीली पट्टी बन गई । साथ ही उस ने मुस्कुराते हुए मुझे कहा – “बाबू दूध पी ले । तेरी आवाज़ सुनाई नहीं देती ।”

मैं उस के निकट बैठ गया और उस की बात का उत्तर दिया । “अरे बच्चे, मैं तुम्हे सच कह रहा हूँ । तू शाम को मलाई बगैरा बेच कर नाटक मण्डली में चले आना । तुम्हे कुछ न कुछ बना दूंगा ।“ पीछे खड़े मेरे अस्सिटैंट चौधरी ने मेरी चमचागिरी की – “सर, इस जानवर को क्यों कर बुला रहे हो । क्या इस नगर में अभिनेताओं का अभाव है। मैं दर्जनों लड़के ले आऊँगा । आप चुनाव कर लेना ।“ मैंने चौधरी की पगड़ी की ओर देखा । उस ने पगड़ी को सीधा किया । -“चौधरी गाय को गाय के स्थान पर प्रस्तुत करना बड़ा सरल है । गधे को घोड़े के स्थान पर खड़ा कर के लोगों को बताओ तो कमाल है । यह बालक तुम्हारे कथनानुसार जानवर है । मेरे विश्वास में यह राम है । अब देखना यह है कि तुम जीतते हो अथवा मैं ।“ सुन कर चौधरी ने दोनों कान पकड़ लिए – “सर मैं आप को न तो चुनौती दे रहा हूँ, न ही नकार रहा हूँ । सोच रहा हूँ यह बालक आप को दुःख देगा । मुझ से आप का दुःख देखा नहीं जाएगा। इसे वानर सेना में भर्ती किया जा सकता है पर आप कह रहें हैं यह राम है ।“ –“ हाँ चौधरी इस बार राम यही होगा । बस इसे नाट्यशाळा में ले आओ” ।

-मैंने बालक को पुन: कहा, "अरे सोमू शाम को नाटक मण्डली में चले आना । यह चौधरी साहब तुम्हे लेने आयेंगे।"
-रिहर्सल चल रही थी और चौधरी सोमू को लेकर आ पहुंचा । नाट्य शाळा देख कर सोमू आवाक सा रह गया। चौधरी ने मेरे कान में कहा - " -सर, उस राम को ले आया हूँ । परन्तु रास्ते में कह रहा था मुझे महसूस होता है ऐनक वाला बाबू मेरा बिस्तर छीन लेगा । यह आप को ठग समझ रहा है । आप इसे राम समझ रहे हो । क्या कंट्रास्ट है । क्या फ्रेम है ।
रिहर्सल से समय निकाल मैं सोमू के पास गया और उसे कहा -
-" सोमू राम लीला में काम करोगे ।" पूछने पर उस ने अपनी नथनें फुलायीं - " हाँ करना है । " मैंने कहा काम तो तुम से करवाएगें पर मैं तुम्हें नथनें नहीं फूलाने दूंगा ।" सोमू तत्क्षण लज्जित सा हो गया । इस बीच दो तीन लोग मेरे पास आये । उन के व्यवहार से सोमू कुछ नर्म दिखें लगा । वह विनम्र हो गया । बोला "साहब मैं आप को कोई ठग समझ रहा था परन्तु आप तो सचमुच ही लीला करवाने वाले हो । मैं ज़रूर करूँगा । मुझे बड़ा शौक है । मैं सातवीं तक पड़ा भी हूँ । पत्र में सब कुछ लिख लेता हूँ । " मैंने सोमू को कहा -" सोमू मैंने तुम्हे बुलाया ही इसलिए है कि तुम्हे स्टेज पर चढ़ाना है । पर तुम्हे मेरी सहायता करनी होगी । मैं जैसे कहूँ तुम्हें बैसा ही करना होगा । " सोमू ने मुझे बैसा ही करने का वचन दिया ।

मैंने सोमू को बुला मुसीबत मौल ले ली । क्लब के जिस जिस कलाकार को पता लगा कि सोमू को सर एक्टर बनाने लगे हैं, वो हैरान हुआ । मेरे निकट आ कर इस बात को कन्फर्म करवाने लगा । मैं सब को सहज स्वभाव से कह देता कि सोमू लीला में काम करेगा ।

एक दिन मैंने चौधरी तथा दो तीन को सुनाया कि मैं सोमू को राम का पार्ट देने लगा हूँ, तो मेरे भय को तिलांजली दे कुछ आदमी इतने हंसे मनो उन्हें कोई दौरा पड़ गया हो । मेरी बात को बड़े ही नाटकीय अंदाज़ से लिया जा रहा था । मैंने चौधरी को बुला कर कहा - " चौधरी जी, यह बालक आप के संरक्षण में है । यह लो इस का स्क्रिप्ट । यह आप ने इसे याद भी करवाना है और सोमू से सब को तू तू कहना भी छुडवाना है । बोलचाल में यह बहुत असभ्य है ।" चौधरी ने अनमने स्क्रिप्ट ले लिया। कुछ कहे बिना चला गया । दो चार दिन चौधरी सोमू को याद करवाता रहा । अंतत: वह उसे मेरे पास ले आया और कहने लगा- " देखो अपने रामचंद्र जी को।" मैंने पूछा- "क्या हुआ? क्या देखूं?" तो चौधरी ने सोमू को कहा- चल वे । सर को सुना । जो कुछ तूने याद किया है। सोमू ने कोने से धनुष उठाया और कंधे पर रखा तथा बोला-" शिब धनुष तोड़ने बाला भी कोई शिब प्यारा ही होगा। जिस से भी यह अपराध हुआ बो दास तुम्हारा ही होगा ।" बाकि तो सब ठीक था । एक तो सोमू व् के स्थान पर ब बोल रहा था, दुसरे बड़े जोश के साथ कह रहा था, मनो भट्ठी जलाने के लिए पेटियां तोड़ रहा हो । मैंने सोचा यह दोनों बातें तो सही जा सकती हैं परन्तु वह संवाद बोलते हुए दायें हाथ को इस तरह घुमा रहा था जैसे वह कडाही साफ़ करने के लिए खुरचनी घुमाता था । मैंने उसे कहा - " यह हाथ जिस के साथ तू हाथ के फिसलने का संकेत करता है, यह तू धनुष कि ओर ले जाया कर । साथ ही जहाँ भी शिव या वाला शब्द आये वह ठीक बोला कर ।" " सर जी, यह आदत पड़ गई है,पर हटा लूँगा । आप तो परमेश्वर से भी बढ़ कर हो । मुझे राम बना दिया । सच मनो कई बार धनुष कंधे पर रख लूं तो कन्धा हिलाने को मन नहीं मानता । जी चाहता है राम जी बना ही रहूँ ।

मैंने सोमू को समझाया-" यह नाटक है, लीला है । इस में सच कुछ नहीं । तुम्हे राम का पार्ट करना है, अभिनय के उपरांत तुम राम नहीं ।"

रिहर्सल चल रही थी । मैं सोमू को राम का पार्ट याद करवा रहा था । वह पूरे मनोयोग से अभिनय सीख रहा था । इतना भी था कि एक आध बार बात समझाने पर वह समझ जाता था पर खूबी यह थी कि वह संवाद कमाल का याद करता था । जो बोल दिया वह याद हो गया ।

सोमू को कार्य अधिक करना पड़ता था । दुकान तो उस के ही आसरे थी । शाह ने सुनाया था कि वह सोमू को आठ वर्ष कि आयु में लाया था । अब तो यह दुकान उसे के सहारे चल रही थी ।

मैंने बहुत बार देखा कि पुराने अभिनेता सोमू के साथ बहुत मसखारियां करते । चुगलियाँ करते, बातों बातों में उसे आहत करते पर सोमू कुछ नहीं बोलता । मैंने एक दिन सोमू को कहा - "सोमू तुम्हे कौन छेड़ता है, मुझे बताया कर । मैं उस की खबर लूँगा ।" सुन कर सोमू ने जोर से गर्दन 'ना' में हिलाई-" नई सर, कोई कुछ नहीं कहता। यदि कहता है तो कहने दो। यदि कोई झगडा हुआ तो आप मुझे राम नहीं बनने देंगे। मुझे राम ज़रूर-बा ज़रूर बनना है ।" परन्तु उसे एक क्लेश रह ही गया । सीता का ।

जिस बालक ने सीता का अभिनय करना था उसे राम के सामने आते ही हंसी आ जाती थी । पहले-पहल मैंने भी इस बात को बड़ी सहजता से लिया पर जब फाइनल रिहर्सलों में भी सीता का अभिनय करने वाले की हंसी न थमी तो मैंने ज़रा सी सख्ती से उसे पुछा - " वे खाकू, मुझे समझ में नहीं आता । तेरे साथ क्या करूँ । सोमू को देख कर तुम्हे दौरा क्यों पड़ जाता है। यदि तूने लीला वाले दिन भी यही करना है तो पहले बता दे ।" खाकू कुछ गंभीर हुआ और बोला-"सर मैं पिछले दस वर्षों से सीता का अभिनय करता आ रहा हूँ । सोचता हूँ यह मलाई बेचने वाला मेरे सामने कैसे टिकेगा । क्या करेगा ।"

खाकू के भीतर अभिमान बोल रहा था । पर मेरा मानना था अधिक समझाना ठीक नहीं । कई बार हुआ था कि जब मैं किसी को समझाता था वो पेट दर्द का बहाना कर लेट जाता था । और फिर पेट दर्द का ईलाज मिन्नतें, खुशामदें, चापलूसियां होता था । कितने ही कारीगर, अभिनेता भाग गए थे। खाकू भी उन्ही में से एक दिखाई देता था ।

वास्तव में यह लीला का धंधा बड़े चस्के का है । जिस को इस की लत लग जाती है वह किसी भी हालत में अभिनय करवा ही लेता है । डांट-डपट कर भी और मिन्नतें-खुशामदें कर के भी । वो इस नाटक जगत को बनाये रखने के लिए क्या कुछ नहीं करता । गालियाँ खाता जा रहा है । अपना जुलूस निकलवाता जा रहा है । जो इस का स्तुति गान करता है उसे और अधिक भूखा नंगा और लाचार करता जा रहा है । जो इस कि आलोचना करता है, धौंस जमाता है, रौब डालता है, जो इसे मानता ही नहीं, उसे बढ़िया से बढ़िया भूमिका देता जा रहा है । अनपढ़ को राजा बना रहा है। पढ़े लिखे को भिखारी का रोल भी मुश्किल से दे रहा है । निंदा करवा रहा है पर चस्का
! चस्का लीला का । नाटक का अमल नहीं छूटता।

मुझे अपने आप पर हंसी आ जाती है । कोई बर्तन साफ़ कर रहा हो, किसी उद्योग का कोई स्वामी हो । देखता हूँ, जुबान ठीक है, नाज़ नखरा ठीक है, बस मिन्नतें-खुशामदें कर के ले ही आता हूँ । भला कोई पूछे यदि यह अस्तबल न भरा जाए तो हर्ज़ भी क्या है ।

जानवर लाने और इंसान बनाने। उन्हें स्टेज पर चढ़ाना। चाहे उन कि एड़ियाँ पकड़ कर क्यों न रखनी पडें या बैसाखियाँ थाम कर खड़ा रखना पड़े पर लीला ज़रूर करवानी। सब से रूठना, फिर स्वयं ही मान जाना। कोई मनाने नहीं आता । फिर सोचता हूँ ईश्वर को कौन मनाने जाता है जो मुझे मनाने आये । अपना काम करते जाओ।

मुकुट लगा कर एक दिन सोमू मेरे सामने आ खड़ा हुआ । मैंने पुछा सोमू क्या बात है? कहने लगा -" सर जी मैं यह मुकुट पहन कर दूकान पर जाऊं। लाला जी को दिखा आऊं। " मुझे हंसी भी आई और क्रोध भी । मैंने बड़े प्यार से उसे समझाया- "सोमू यह मुकुट, तीर कमान, दुम-मूछ दाड़ी यहाँ स्टेज पर ही ठीक लगते हैं। इन्हें बाहर नहीं ले जाते । " पर सोमू ने जिद पकड़ी थी कि वह अपने मालिक को दिखाना चाहता है कि वह राम बन रहा है । सो सोमू हठात उन्हें दिखा ही आया।

लीला का दिन आ गया । सारे हैरान थे । सोमू ऐसा भ रहा था कि दर्शकों की ओर से तालियाँ ही तालियाँ बज रही थी । उस के हर संवाद पर वाह वाह तथा तालियाँ ।

शो खत्म हुआ तो दो चार लोगों ने सोमू के लिए ईनाम भेजे जो सोमू को मंच पर ले जा कर दिलाये ।

सोमू उल्लासित था । लक्ष्मण और सीता सर थाम कर बैठे थे ।

ग्रीन रूम में अफरा तफरी का माहौल था । सारे मेकअप साफ़ कर रहे थे । अस्त्र शस्त्र और वस्त्र संदूखों में रख रहे थे । मूछें, दाड़ियाँ समभाल रहे थे । पर सोमू कहीं नज़र नहीं आ रहा था ।

मैंने चौधरी से कहा । चौधरी ने आ कर बताया कि सोमू अशोक वाटिका में बैठा हुआ है और वहां से उठ नहीं रहा है । मैं गया, मेरे साथ बहुत से लोग थे। सोमू को मेकअप उतारने के लिए कहा । पर सोमू मुकुट, तीर -कमान छोड़ने को तैयार नहीं हुआ । वह कहता जा जा रहा था -"अब मैं रामचंद्र जी हूँ । अब मैं लौट कर दुकान पर नहीं जाऊँगा ।" हम सब ने उसे पकड़ कर मंच पर से घसीटा, उस का मुकुट उतारा। तीर कमान और पुष्प हार ज़बरदस्ती उतारे । फिर उसे बाहों और टांगों से पकड़ कर उस का कुर्ता धोती उतारे । पर सोमू निरंतर चिल्ला रहा था -"अब मैं रामचंद्र जी हूँ । अब मैं बापिस दुकान पर नहीं जाऊँगा । "हम सब ने उसे पकड़ कर मंच पर से घसीटा । पर सोमू निरंतर चिल्ला रहा था -"मैं अब रामचंद्र जी महाराज हूँ । मुझे लीला से नीचे न उतारो । मैं राम हूँ। मैं अब सोमू नहीं राम हूँ । हमारे सभी एक्टर हैरान परेशान थे ।
(अनुवाद : कपिल अनिरुद्ध )
Like · · · December 29, 2012 at 2:11pm

  • Nidhi Mehta Vaid yeh sansaar bhi to bhram jaal hai jahan manushya maira, main. ke chakar main fansa hai.
  • Atul Sharma Mmmmm ye acting ki latt badi buri hai jo ek baar lag jaaye to jaati nahi hai........ Coz i love acting fir chahe vo awful acting ho ya awesome good or bad bas i want to act act nd act
  • Kapil Anirudh गुरुदेव की प्रस्तुत कहानी "भ्रम जाल" उन के डोगरी कहानी संग्रह "यात्रा" से ली गई है । उस सब से बड़े रचनाकार ने हमें निभाने के लिए बिभिन्न भूमिकाएं दे रखीं हैं परन्तु अज्ञानतावश हम दी गई भूमिकायों को ही यथार्थ मान लेते हैं, यही हमारे विषाद का कारण है और...See More
  • Atul Sharma Mmmmm absolutely kapil sirji
  • Joginder Singh अति सुन्दर कथा है...और सन्देश भी अमूल्य... स्व्स्वरुपनुसंधानं भक्तिरितिभिधियते...