सारथी कला निकेतन (सकलानि)
An article by Gurudev

घड़ी साज ---- गुरुदेव सारथी जी
दुःख काई की तरह है । जिसे हटाओ तो बीच में से जल रुपी जीवन निकल आता है । परन्तु एक तथ्य यह भी है कि यदि काई हटाओ तो थोड़े समय के लिए हट कर फिर छा जायेगी। काई यत्न से तो हट सकती है परन्तु पानी पर से या पानी में से उसे समाप्त करना असंभव है । क्योंकि काई ही जल है । जल ही काई का जनक है । यदि कहीं से काई समाप्त करनी ही पड़े तो वहां से जल ही हटा देना पड़ेगा । गुरु नानक ने कहा है -
पुष्प मध्य जो बॉस बसत है मुकुर माहि जस काई
तैसे ही हरी बसे निरंतर घाट ही खोजो भाई
और दूसरी और मिर्ज़ा नौशा कहते हैं ..
सब्जे को जब कहीं जगह न मिली बन गया रु -ए-आव पर काई
प्रिय बंधू ! यह अज्ञान का ही दृष्टान्त होगा कि जीवन पर दुःख छाया रहता है जो जीवन को दुखमय बनाये रखता है । वास्तव में यदि जल जीवन है तो उसे ढक कर रखने वाला दुःख काई कि भांति है जो ऊपर तो मात्र दिखाई देता है । यह तो जल में जल के जीवन कि भांति विद्यमान है । दुःख को यदि जीवन से विलग जानोगे तो वह अपने अनुपात में बढ जाएगा । बड़ा होता चला जाएगा और फिर तुम जीवन को भोगने के स्थान पर केवल युद्ध करने और और दुखों को पराजित करने में ही आयु गवा दोगे। और यदि दुःख को जीवन का ही एक सत्य मानोगे, जीवन का ही विशेष अंश मानोगे तो संभवत: तुम्हे दुःख का अहसास कम हो और यही एक धारणा है जिसे ले के कर तुम किसी स्वीकारात्मक मार्ग को अपना सकते हो और दुःख के वे खूंटे जो उस ने जीवन के प्राणों में गाड़ रखे हैं उन्हें उखाड़ने में सफल हो सकते हो । यह एक अत्यंत सुलभ और प्रतक्ष्य बात है कि जिस भाव को मानव जीवन में अधिक मान्यता देता है, उस का जीवन उसी सांचे में ढल जाता है और यह सम्भावना इस ओर संकेत करती है कि दुःख को दुःख के निरंतर अहसास को किसी और रुख अथवा भाव में बदला जा सकता है और यह तभी संभव है जब दुःख के स्रोत इस जीवन ही को नींव से ही विश्लेषण और अनुसन्धान के लिए हाथ में ले लिया जाये ।
बुद्ध कुछ और करते हैं । वे दुःख को महादुख में डाल कर अनुपात को बड़ा कर दुःख की तीव्रता को कम करते हैं । सारे जीवन को ही दुखों का मूल जान कर वे क्षीण शरीर और समस्त जीवन को घोर संकट में, घोर तपस्या और घोर उपवास में डाल देते है और उस कि चरमसीमा पर पहुँचते पहुँचते दुःख और सुख को, दोनों से दूर हट कर उन की जीवन पर प्रतिक्रिया देखने लगते हैं और फिर एक मार्ग प्रशस्त कर देते हैं और वह मार्ग विश्व विख्यात हो जाता है । सार विश्व ही जान जाता है कि मानव के अन्त:करण में छुपी हिंसा ही उस के दुःख का सब से बड़ा कारण है ।
मानव दुखी है और अपने दुःख को सुख में परिवर्तित करने के लिए मानव ने सदैव हिंसा की है । और हिंसा से सदैव हिंसा ही बढती है । और यदि दुःख के संक्रमण हेतु स्वयं को ही दुःख के समुद्र में डाल दिया जाए तो दुःख कट सकता है ।
तुम्हे आँख खुलने से लेकर सूर्यास्त तक जो कुछ उपलब्ध होता है, उस में एक बड़ा भाग उन घटनायों और विवरणों का होता है जो या तो दुःख को जन्म देते हैं या फिर दुःख को बढ़ा देते हैं । परन्तु मेरा अनुभव कुछ और है । मुझे लगता है कि दिन भर जो कुछ तुम करते हो, उन में से अधिकतर कार्य ऐसे होते हैं जिनसे तुम दुःख को आमंत्रित कर रहे होते हो । और जब भी तुम सुख की कल्पना करते हो तो दुःख का रूप उग्र हो जाता है । जब भी तुम सुखी होने कि बात सोचने लगते हो तो वही वर्तमान जिस में तुम एक सामान्य जीवन जी रहे होते हो, वही वर्तमान अधिक, और अधिक दुःख का परिचायक बनता जाता है और दुःख और सुख के मध्य जो अंतर है, जो खाई है, वह बढती जाती है और इस प्रक्रिया का शिकार कोई और नहीं, तुम स्वयं होते हो और इस निरंतर क्रिया और प्रतिक्रिया के वर्तुल से निकलने का एक उपाय इन प्रतिक्रियाओं पर किसी और प्रक्रिया का ठूंस देना भी है । कोई ऐसे प्रक्रिया जो सभी अनुभवों-अनुभूतियों और सूक्ष्म अनुभवों के अनुपात को कम कर दें और वह प्रक्रिया दुःख और सुख दोनों से भिन्न होना सुनिश्चित है और वह प्रक्रिया त्याग कि प्रक्रिया हो सकती है । त्याग का अर्थ किसी भी वस्तु को फ़ेंक देना, दूर हटाना अथवा तोड़ फोड़ से नहीं है । और न ही किसी वस्तु को अपने से दूर हटाने ही को त्याग कहा जा सकता है । त्याग अंतर्मन का अन्तकरण और अर्ध चेतन मन का एक सूक्षम और अदृश्य संकल्प है । भीतर का संकल्प हो कर यह बहिर्जगत कि स्थिति को महत्वहीन करता जाता है । जिस वस्तु का जितना बड़ा महत्व है उससे उतना ही बड़ा दुःख का भय भी संभव है । और यदि बड़ी से बड़ी वस्तु के प्रति महत्वहीन जैसी धारणा है तो उसी वस्तु के दुःख अथवा सुख कि प्रतिक्रियाओं से अपने को सहज ही उभारा जा सकता है ।
त्याग कि स्थिति वास्तव में मौन कि स्थिति है । आमतौर पर अभिव्यक्ति भी दुःख और सुख की अनुभूति को बढाती है । इस में 'चुप' की भूमिका एक अंकुश की भूमिका है जो सुख और दुःख दोनों पर लग जाता है । प्रिय पुत्र ! दुःख इतना है की गणना नहीं । ऐसा है कि अभिव्यक्ति साथ नहीं देती और कोई ऐसी दिशा नहीं है, जहाँ इस का फैलाव, इस का विस्तार न हुआ हो । यह माया और अविद्या की भांति सर्वविद्यमान और सर्वव्यापी है । इस से निवृति जीवन से ही निवृति है । और यह निवृति जीते जी भी हो सकती है और यह विधि है अन्त:करण से त्याग की भावना । सभी कुछ देखते, सुनते, खाते पीते व् भोगते हुए त्याग की भावना का निरंतर प्रवाहित रहना ।
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