सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 15 November 2017

सागर की कहानी (39)

सागर की कहानी (39) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।

सारथी जी के लिए प्रत्येक कार्य पूजा अर्चना से कम न होता। वे श्वानों के लिए ब्रैड में दूध मिला कर परोसने का साधारण सा दिखने वाला कार्य जब कर रहे होते तो इतने रमे हुए नज़र आते मानों यह संसार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य हो। रेखाचित्र बनाते हुए, किसी यंत्र की मुरम्मत करते हुए वे इतने निमग्न हो जाते कि लगता यह कार्य ही उन का घर-परिवार तथा संसार र्स्वस्व है। चाय बनाने के साधारण से दिखने वाले कार्य को भी वे सम्पूर्ण मनोयोग से करते और अक्सर कहा करते - बहुत से लोगों को यह भी ज्ञात नहीं कि रोटी का स्वाद कैसा होता है। पानी का स्वाद कैसा है? प्यास की चरमसीमा क्या होती है? वे चाय अथवा पानी का एक-एक घूँट ऐसे पीते मानों अमृतपान कर रहे हों। उन के सानिध्य में ऐसा प्रतीत होता मानों सब कुछ ठहर सा गया हो।
जब कहीं चुनाव करना हो तो साधारणतः लोग सरल विषय का चुनाव करते हैं परंतु इन सब के विपरीत सारथी जी कठिनाई को चुनते। वे मुश्किल पसंद थे और अक्सर कहा करते हैं- ‘मुश्किल पसंद बनो। चुनना हो तो कठिनतम कार्य को चुनो’। उनके इन शब्दों में जीवन संघर्ष का, जीवन को संपूर्ण जीवटता से जीने का मूल मंत्र है । उनके जीवन में प्रशिक्षण का आरंभ ही कठिनतम ताल सीखने से हुआ। फिर विविध तालों पर महारत ने ही उन्हें इल्म-ए-अरूज़ सीखने को प्रेरित किया। संगीत में श्रुतियों की समझ किसी विरले संगीतकार को ही होती है वे श्रुतियों के मर्मज्ञ थे तथा चित्रकला में परिपेक्ष जैसी कठिनतम विधा को भी उन्होंने ना केवल सीखा बल्कि परिपेक्ष को अपनी कृतियों में सम्माहित भी किया। उनकी सृजनात्मकता केवल साहित्य या कलाओं तक ही सीमित ना थी बल्कि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की संपूर्ण कार्यप्रणाली तथा उनके रिपेयर कार्य में भी उन्हें दक्षता हासिल थी। चाहे रेडियो, टीवी की मरम्मत का कार्य हो अथवा हारमोनियम तबला की रिपेयर का काम वे यह सब कार्य पूरे मनोयोग, संपूर्ण तन्मयता तथा रचनाधर्मिता से करते।
अपने एक संस्मरण में औम प्रकाश भूरिया जी लिखते हैं -दिसंबर मास में कोहरा पड़ रहा था। मैंने सारथी जी से कहा रंग भरो प्रतियोगिता में प्रथम द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर आए बच्चों की कार्यशाला लेनी है। कितने बच्चे होंगे - उन्होंने पूछा। मैंने कहा तीस – चालीस। कार्यशाला लगाओ मैं आऊंगा और फिर स्कूटर पर प्रतिदिन प्रातः 9:00 बजे संस्कृत विद्यापीठ शास्त्री नगर में कार्यशाला लेने हेतु पहुंचने लगे। सभी को सिखाया। एक एक बच्चे को अलग- अलग से चित्र बनाकर देते और कार्यशाला के समापन पर सभी बच्चों को रबड़ पेंसिलें बांटी, उन सभी का यादगार फोटो भी खींचा । आज भी उन बच्चों से पूछो तो कहते हैं हमने सारथी गुरुजी से सीखा है।
एक और संस्मरण में भूरिया जी लिखते हैं -विश्व हिंदू परिषद का कार्यक्रम था। सर्व देवमयी गाय का 8 फुट X 8 फुट का चित्र होना चाहिए। रामस्वरूप जी सारथी जी के पास पहुंचे। कथा कही । बोले तुरंत सामान ले आओ। प्रात आ कर चित्र ले जाना। शाम को पलाई पहुंची। हम सफेद कोट कर के चले आए । प्रातः चित्र कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहा था
..... मेरा कहने का तात्पर्य कि जिस किसी कार्य से भी उनके पास गए तुरंत उसका हाल उनके पास था। बीमार हो तो दवाई। गायक हो तो गायों, रिकॉर्डिंग तुरंत शुरू। तबला जानते हो तो लो बजाओ। गाते हो तो भजन सुनाओ। लिखते हो तो लिखो विषय देते-देते। चित्र बनाते हो तो कागज पेंसिल ले लो बनाओ।
उन का निबास स्थान ऐसी यज्ञशाला थी जहाँ हर समय सृजनात्मक्ता की आहुतियाँ दी जाती। उन के कार्य क्षेत्र की रचनात्मक्ता हर साधक को मुग्ध कर देती। बहिृमुखी व्यक्ति तो उन के बाहरी रख-रखाब तथा अस्त-व्यस्त पड़े सामान में ही उलझा रहता। जब कि एक साधक के लिए वह स्थान किसी तपोभूमि, किसी शांतिवन से कम न होता।

Sunday, 12 November 2017

सागर की कहानी (38)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास ।
सागर की कहानी (38) 
हम लोगों ने देखा है श्री सारथी जी को वर्तमान का हर पल सुरक्षित करते हुए। कभी जब तपती धूप में उन के पास पहुँचते तो वे किसी बड़े कन्वास पर अपने रंगों का जादू बिखेर रहे होते। इस तपती दुपहरिया में वे बनैन एवं धोती पहन कर रंगों में ऐसे डूब गये होते कि उन की शांत मुद्रा को देख कर यह अहसास ही न होता कि बाहिर ज़ोरों की गर्मी पड़ रही है। और कभी जब बरसात में उन के पास पहुँचते तो वे राग मेघ-मलहार अथवा वर्षा ऋतु का अन्य कोई राग गा रहे होते। उनका निबास स्थान किसी कार्यशाला सा दिखाई देता। कहीं पेंट का सामान पड़ा रहता तो कहीं framing की लकड़ी। स्थान स्थान पर अनेकों कंवास पड़े रहते । कुछ कंवास भव्य चित्रों के रूप में परिवर्तित हो, फ्रेमिंग के लिए प्रतीक्षारत्त होते तो कुछ अंतिम परिष्करण finishing touches के इंतज़ार में । कहीं कोई भूदृश्य रंगों के लिए आतुर दिखता तो अन्यत्र कहीं चित्र आधा अधूरा ही छोड़ दिया गया होता। कोई कलाकृति धूप में सूख रही होती तो कोई सुखाने के लिए धूप में लाई जा रही होती। कमरे के दूसरे कोने में संगीत का साजो सामान रहता। एक तरफ हारमोनियम, तबला, तानपुरा, microphone इत्यादि रहते तो दूसरी ओर बड़े बड़े लाउडस्पीकर और बिजली की तारों का उलझा हुआ जाल मौजूद होता। पुस्तकें इतनी थीं कि लगता घर की चार दिवारी ईंटों से नहीं ब़ल्कि पुस्तकों से बनाई गई हो। इन सब के बीच कम्बलों की तह पर बैठे सारथी किसी न किसी रचनात्मक कार्य में व्यस्त होते।
सारथी जी के पंजाबी उपन्यास रणखेत्तर में मुख्य पात्र के कमरे का चित्रण सारथी जी के निबास स्थान की याद दिलाता है। वे लिखते हैं- मिट्टी ही मिट्टी। बन रही मूर्तियां। बन चुकी मूर्तियां। रंगदार मूर्तियां। बेरंग मूर्तियां, टूट रही मूर्तियां। मलबे के ढ़ेर पर पड़ी उल्टी, सीधी, टेढी और तिरछी पड़ी मूर्तियां। अधूरे छूटे रंग। किसी के मात्थे पे रंग। किसी के मुंह पर रंग। किसी के हाथों, पैरों पे रंग। किसी के लिबास का रंग आधा अधूरा। किसी के जिस्म का रंग अधूरा। 
सृजन प्रक्रिया के मर्म को समझाते हुए लिबास कहानी में वे लिखते हैं- यही संसार है। यही कुछ सृष्टि में हो रहा है। दिन रात यही काम चल रहा है। निर्माण और विनाश का। विनाश और निर्माण का। मैं इसीलिए मिट्टी के खिलौने बनाता रहता हूँ। क्योंकि बनाते हुए मुझे लगता है कि मैं बन रहा हूँ और टूट रहा हूँ। मैं यही अहसास तुम्हें करबाना चाहता हूँ। इसलिए कह रहा हूँ। बनाओ और तोड़ो। तोड़ो और बनाओ। बनाओ और तोड़ो। फिर बनाओ। फिर बनाओ।
यही सब उन के निवास स्थान पर भी देखने को मिलता । कभी कई दिनों तक बड़े से कंवास पर उन के रंगों का जादू बिखरता और एक भव्य कलाकृति बन कर तैयार हो जाती और फिर किसी दिन अचंभित हुए बिना न रहा जाता जब यह देखता कि उसी कलाकृति पर सफेद रंग आरोपित कर मिटाया जा रहा है । ... पूछना चाहता ऐसा क्यों किया जा रहा है, परंतु जिस तन्मयता और मनोयोग से चित्र बनने लगता, कुछ नहीं में से सब कुछ प्रकट होने लगता, सारी प्रक्रिया ऐसी मंत्र मुग्ध करने वाली होती कि अभी अभी नष्ट हुई कृति का ज़रा सा भी क्षोभ मन में न रहता और मन नव सृजन के आनंद से भर जाता । लगता मैं ही रंगा जा रहा हूँ । रंग मेरे ही अस्तित्व में भरे जा रहे हैं । मैं ही एक चित्र की, भव्य तस्वीर कि संज्ञा ग्रहण कर रहा हूँ॥
केाई पूछे कि भई यह सब क्या है। यह क्या कि दिन रात रचना, क्रियाशीलता , पल पल निर्माण, सृजन । पहले बनाना फिर उसी कृति को नष्ट कर पुण निर्माण कार्य आरम्भ। ऐसा क्यों भला। इस का उत्तर वे रणखेत्तर मंब भी देते हैं-मिट्टी से हट कर मिट्टी का सच कोई नहीं। इस का सच सिर्फ मिट्टी है। फिर भी एक आकर्षण है, एक रूचि है कि बनाता जाता हूँ। यह शायद मिट्टी का मोह है जो छूटता नहीं। कभी कभी विचार आता है कि सब कुछ तोड़-फोड कर मिट्टी को मिट्टी में मिला कर सब कुछ छोड़ दूँ। पर दूसरे ही पल हाथ पैर उबल पड़ते हैं, वेचैन हो जाते हैं। मेरे भीतर से एक शौर सा उठ खड़ा होता है कि बनाओ। जल्दी बनाओ। तू अपने आप के अनर्थ कर रहा है। तू अपराध कर रहा है। जिस आदमी को बनाना आता है, यदि न बनाये तो बड़ा अपराधी है। मैं अपनी ही आवाज़ से ड़र जाता हूँ। अपने ही श्वासों से भय लगने लगता है और मैं झट ही मिट्टी ले कर बैठ जाता हूँ।
........क्रमशः .......कपिल अनिरुद्ध

Saturday, 11 November 2017

सागर की कहानी (37)

श्री भुवनपति शर्मा जी के आशीष वचन नव उत्साह का संचार कर गए-
'प्रिय कपिल सारथी जी की जीवनी तुम जिस आत्मीय भाव से लिख रहे हो और जिस सुंदर भाषा में उस के लिये हार्दिक बधाई। इस की पुस्तक रूप में छपने की प्रतीक्षा रहेगी मैं हर किश्त की उत्सुकता से प्रतीक्षा करता हूँ,साधुवाद।'
......धन्यवाद मान्यवर
सागर की कहानी (37)
इस बात ने सदा ही मेरे भीतर कौतुहल पैदा किया है कि श्री सारथी जी विश्राम कब करते हैं? मैंने उन्हें कभी थक कर बैठे हुए नहीं देखा। कभी निष्क्रिय नहीं देखा। उन की निरन्तर सक्रियता मेरे साथ-साथ अन्य लोगों की भी जिज्ञासा एवं आश्चर्य का कारण रही है। उन का प्रत्येक क्षण शब्दों, रंगों एवं सुरों से खेलते हुए ही बीतता। कभी-कभी लगता वे तो मात्र एक प्रक्रिया हैं, निरन्तरता हैं, गति हैं, चेतना हैं। निरन्तर प्रक्रिया एवं निरन्तर सक्रियता का मूल मंत्र उन के इन शब्दों में निहित है। ‘मेरा अनुभव है कि जब भी मैं और तुम या कोई अन्य आधे संकल्प से, आधे सत्य से, आधी-अधूरी निष्ठा और आधी-अधूरी श्रद्धा से कार्य करेगा तो वह शीघ्र शक्ति खो कर थक जाएगा। थकेगा वही जो हां और नहीं के मध्य फसा हुआ, आशा और निराशा के बीच फसा हुआ, ईमानदारी और बेईमानी के मध्य फंसा हुआ कार्य कर रहा हो’।
वे कहते – ‘एक उत्कृष्ट क्षमता जो कार्य के साथ-साथ तुम्हें भी स्वभाविक और प्राकृतिक बनाये रखती है, वह है कार्य को समर्पित चिन्तन। अपनी पूरी शक्ति और एकाग्रता का केवल कार्य में ही होना। स्वयं कार्य ही हो जाना। स्वयं ही एक अन्तहीन प्रक्रिया में परिवर्तित हो जाना जिस में कर्ता और क्रिया की भिन्नता का अन्त हो जाए। और वह तभी सम्भव है जब तुम मात्र वर्तमान में रहने का निरन्तर प्रण करो। निरन्तर अभ्यास करो। निरन्तर वर्ततान ही को अपने श्वासों में भर कर रखो और जिस क्षण तुम्हें कुछ करना है वही क्षण पहला और अंतिम क्षण जान लो। जिस क्षण में तुम्हें जीना है वही क्षण तुम्हारा र्स्वस्व हो जाए। तुम्हारा और तुम्हारे कार्य का कोई अतीत न हो, कोई भविष्य न हो। कोई परिणाम भी न हो। परिणाम, अतीत, भविष्य मात्र वर्तमान हो।‘
जो कार्य उन के लिए सर्वाधिक महत्व का दीखता, जिसे वे अपने सम्पूर्ण मनोयोग से कर रहे होते, उसी कार्य के सम्पूर्ण हो जाने पर वे उस कार्य से इस प्रकार अलग हो जाते मानों कार्य विशेष से उन का दूर-दूर का भी सरोकार न हो। संदेह होता इस प्रकार का निर्लिप्त व्यक्ति क्या कभी कार्य में संलिप्त भी था या वह मात्र आँखों का धोखा था। जिस चित्र को बनाने में उन्होंने कई दिनों तक अपनी पूरी शक्ति लगा दी होती उसे ऐसे उठा कर किसी को दे देते मानों कलाकृति से उन का कोई सम्बन्ध ही न हो। उन के बनाये चित्र आज भी अनेक घरों, मन्दिरों तथा संस्थानों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
प्रवीण जी गुरू आश्रम पहुँचती हैं। श्री सारथी जी को दण्ड़वत् प्रणाम कर वह बैठ जातीं हैं और उनके द्वारा बनाये भूदृष्य को मंत्रमुग्ध सी एकटक देखती जाती हैं। वे मुस्कुराते हुए प्रवीण जी से पूछते हैं- स्वामी जी, इय चित्र में ऐसा क्या विशेष है जो आप इसे लगातार देखते चले जा रहे हो। प्रवीण जी कहती हैं- गुरूदेव, ऐसा सौन्दर्य मैंने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। जी चाहता है बस इसे देखती रहूँ। मैं तो इस भूदृष्य की सुन्दरता को जीवन भर निहार सकती हूँ। सारथी जी कुछ आदेशात्मक स्वर में कहते हैं- भई, कपिल यह चित्र पैक कर दो। अब यह चित्र प्रवीण जी के घर की दीवार पर लगेगा। प्रवीण जी विरोध करती हैं और फिर कुछ संकुचाते हुए कहती हैं- गुरूदेव मैं चाहती हूँ यह चित्र इसी स्थान पर सौन्दर्य बिखेरे। सारथी जी पुणः कहते हैं- मैं जानता हूँ यह चित्र कहाँ होना चाहिए। फिर कुछ मुस्कुराते हुए कहते हैं- क्या आप नहीं चाहते हो यह चित्र उस स्थान पर लगे जहां अधिक लोग उस का आनन्द ले सकें और मुझे सम्बोधित करते हुए कहते हैं- भई आप क्या कर रहे हैं, इस चित्र को आज ही प्रवीण जी के हाँ पहुँचा दो। प्रवीण जी अब कुछ नहीं कह पाती। उन की मौन स्वीकृति में अद्भुत हर्ष को भी देखा जा सकता था। चित्र उनके घर पहुँचा दिया गया और आज भी वह चित्र जिस में सर्दियों की एक सुबह को तेल रंगों में चित्रित किया गया है प्रवीण जी के घर की शोभा बढ़ा रहा है।
.................क्रमशः ........ कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 9 November 2017

सागर की कहानी (36)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास। आप के सुझाबों का इंतज़ार रहेगा।
सागर की कहानी (36)
महान विराट एवं अनन्त सागर कभी अकर्मण्यता का शिकार नहीं होता। कभी थक के नहीं बैठता। कभी आलस्य एवं प्रमाद में नहीं घिरता। अनन्त एवं विराट सदा कर्मठ बना रहता है। सदा ही कुछ करने की प्रक्रिया में रहता है यह रत्नाकर। ऊपरी दृष्टि से देखने पर लगता है कि कर्महीन सागर कर्म से पलायन कर रहा है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा ही सागर की सक्रियता को, सतत् प्रक्रिया को देखा जा सकता है। यह सागर ही कभी भाष्प बन कर वायुमण्ड़ल में तैरता है और बारिश की बूंदों में भी तो सागर ही होता है। यदि दृष्टि हो तो नदियों और नालों के प्रवाह में भी सागर को देखा जा सकता है।
मन्दिरों के शहर जम्मू में जैन बाज़ार का अपना एक विशेष स्थान है। इसी जैन बाज़ार में स्वर्णकारों के रहीम जी के शब्दों में अन्न (कनक) से सौ गुणा अधिक मादकता प्रदान करने वाले कनक अर्थात स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित शौ रूम हैं और इसी जैन बाज़ार में स्थित रावलपिंडी स्वीट शॉप भी सब की जानी पहचानी है।
रावलपिंडी स्वीट शॉप से नीचे ढलान की तरफ जाती गली बाबा लाल जी की गली कहलाती है। वैसे इस गली को ढक्की हजामा और विजयगढ़ के नाम से जाना जाता रहा है। शेकस्पेयर तो कह गए हैं व्हट इज़ इन ए नेम (whats in a name) अर्थात नाम में क्या रखा है। शेकस्पेयर की इस दलील से अधिक्तर लोग सहमत होंगे परन्तु नाम के महत्व एवं उपयोगिता से इन्कार भी नहीं किया जा सकता। फिर भारतीय दर्शन तो नाम के महत्व का गुणगान सदियों से करता आ रहा है। खैर इस समय बाबा लाल जी की गली ही इस का प्रचलित नाम है और बाबा लाल जी का प्रसिद्ध मन्दिर गली की पहचान भी। आईये इस गली में प्रवेश करते हैं। दस बीस कदम चलने के उपरान्त दायीं ओर बीर जी की करियाने की दुकान है। थोड़ा सम्भल के ढलान ज्यादा है। यह दूध वाले मनसुक्ख की दुकान है तथा और पाँच सात कदम चलने के बाद जब गली अपना कोण हल्का सा बदलती है, उसी स्थान पर एक घर है। इस घर में प्रवेश करते ही आप स्वयं को एक बरामदे में पाओगे जिस की बायीं ओर खुला द्वार स्वागत करता प्रतीत हो रहा है। इस के सामने एक और द्वार है। स्वागत कर रहे द्वार में प्रवेश करते हैं। गर्मियों के दिन हैं। शाम 6-7 के बीच का समां। कमरे में कुछ अंधेरा होने के कारण टयूब लाईट जल रही है। टयूब लाईट का दुधिया प्रकाश कमरे में फैल रहा है कमरे की एक तरफ कम्बलों की तह पर थोड़ा झुक कर बैठे सारथी साहब दीवार के साथ सटे कन्वास पर रंगों का जादू बिखेर रहे हैं। उन्हें घेर कर बैठे जिज्ञासु आवाक से हैं, कोई हिलजुल नहीं, जैसे वो सब पत्थर के बुत हों। इधर सारथी जी का ब्रश कन्वास पर घूम रहा है। छोटी सी पैलेट को लगातार देखने पर भी यह पता लगाना मुश्किल है कि रंग कौन सा किस में मिला कर कन्वास पर लगाया जा रहा है, परन्तु परिणाम गज़ब का है। टयूब लाईट के दुधिया प्रकाश और पंखे की विलम्बित गति में उन्हें काम करते देखना भी एक उपलब्धि है। कन्वास पे रंगों का चमत्कार देखते ही बाहर की मारू गर्मी का अहसास भूल सा जाता है। कमरे की दीवारें रचनाकार की रचनात्मक्ता की सशक्त प्रमाण हैं। कहीं त्रिकुटा पर्वत सुशोभित है तो कहीं तवी की रवानगी का आनन्द लिया जा सकता है। कर्नल सर आर एन चोपड़ा, रविन्द्र नाथ टैगोर तथा सारथी जी के पिता पंडित मनसा राम जी के portriat भी कमरे की सृजनात्मक्ता को बढ़ा रहे हैं। कमरे के एक भाग में लटकी घड़ी की टिक टिक की आवाज़ भी कमरे के मौन को तोड़ती है और आभास हेाता है कमरे की सृजनात्मक्ता की साक्षी यह टिक टिक पुरातन काल से चलती आ रही है और इसी प्रकार चलती रहेगी।
..............क्रमशः ................कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 8 November 2017

सागर की कहानी (35)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (35) 
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते हैं- मैं पंजाबी साहित्य सभा का प्रधान चुना गया। सत्तर तक प्रधान रहा। कुछ कहानियाँ, ग़ज़लें और लेख लिखे जो मुझ से पंजाबी के एडीटर अमरीक सिँह ने लिखबाये। अमरीक एक प्रेरक मानव मित्र और दरियादिल लेखक सम्पादक है।
यह राम कृपा का फल है जो मैं जम्मूं की सभी भाषाओं की संस्थाओं से जुड़ता चला गया। हर संस्था और हर भाषा ने मुझे अपना जान कर अपनाया। मैं बज़्म-ए-फरोगे उर्दू, अंजुमन-ए-उर्दू अदब, डोगरी संस्था, अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन और हिन्दी साहित्य संगम से सम्बद्ध होता चला गया।
एक साक्षात्कार में आशा अरोड़ा उन से पूछती हैं- सारथी जी आप चित्रकार, संगीतकार और साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं - यह तो खण्ड़ों में जीना हुआ। अच्छा होता आप एक ही धरती को पकड़ते और उसी में निखार पाते। श्री सारथी जी कहते हैं- यह आदमी के वश में नहीं। मैंने अपने बचपन से कला में जीवन गुज़ारा है ये तो उस के विभिन्न रूप हैं। मुख्य बात है भावना की। अभिव्यक्ति किसी भी रूप में क्यों न हो। मैं समझता हूँ कि मैं सब कुछ में एक ही कर रहा हूँ
सफरनामा में वे पुण लिखते हैं - चंचल शर्मा के स्नेह, प्रेम और प्रेरणा से मैं हिन्दी-उर्दू में लिखता रहा। फिर रिपब्लिक अकादमी में पढ़ाते हुए जम्मू के जाने-माने विद्वान और उर्दू के उस्ताद शायर जनाव कैलाश नाथ कोल- मैकश कश्मीरी के सम्पर्क में आया। तबले का काफी ज्ञान होने के कारण ग़ज़ल के अरूज़ सीखने में मुझे दिक्कत न आई। ताल के गुरू एवं उच्चतम जानकार श्री सारथी जी कहा करते की अरूज़ लय-ताल है और लय-ताल अरूज है। इल्में अरूज का मतलब है लय-ताल में निपुण होना क्योंकि काव्य गेय है। काव्य, ग़ज़ल गीतमय नगमा है। नगमगी है। और नगमा तब तक नहीं फूटता जब तक क्रम बद्ध न हो। हर प्रकार की रचना जो गेय है वह लय-ताल और स्वर को समेट कर जब तक संगीत का रूप धारण नहीं करती वह भ्रम मात्र है। लय-ताल जहाँ आदमी के शरीर की रीढ़ की हड्डी है वहीं यह दिन रात अंधेरे और सबेरे की रीढ़ की हड्डी भी है। जहाँ ऋतुओं के परिवर्तन की रीढ़ की हड्डी है वहाँ लय-ताल, आनन्द तथा परमानन्द को स्वयं में विलय कर लेने की स्वर्णिम सीढ़ी भी है।
लय-ताल श्री सारथी जी के प्राण थे और वे लय-ताल को सोते-जागते, खाते-पीते, औढ़ते और विछाते थे। अरूज़ उन के लिए एक छोटा सा शब्द था जिसे वे प्रतिदिन बीसीयों बार हर स्थान पर इस्तेमाल करते थे। उन की दिनचर्या में अरूज़ का इतना गूढ़ सामजस्य होता कि वे तबले पर रोटी डाल कर कहते -स्टोब एक ताल में जल रहा है। रोटी डालने के बाद अगर इस की ज्वाला कम अथवा अधिक करोगे तो इस का अर्थ होता है लय-ताल का कम अधिक करना। यदि ऐसा करोगे तो रोटी अधकचरी रह जायेगी क्योंकि रोटी के पकने का भी सुनिश्चित लय-ताल है। वे कहते- ताल का अरूज़ से और अरूज़ का ग़ज़ल से वही सम्बन्ध है जो शरीर का हृदय से और हृदय का श्वास से है। हृदय ताल है, श्वास लय है। दोनों के सहारे शरीर खड़ा है। जिस प्रकार ताल के बिना, अरूज़ के बिना, आदमी मुर्दा है, शव है, उसी प्रकार ग़ज़ल अरूज़ के बिना मुर्दा है, शव है।
..........क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध