सागर की कहानी (39) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
सारथी जी के लिए प्रत्येक कार्य पूजा अर्चना से कम न होता। वे श्वानों के लिए ब्रैड में दूध मिला कर परोसने का साधारण सा दिखने वाला कार्य जब कर रहे होते तो इतने रमे हुए नज़र आते मानों यह संसार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य हो। रेखाचित्र बनाते हुए, किसी यंत्र की मुरम्मत करते हुए वे इतने निमग्न हो जाते कि लगता यह कार्य ही उन का घर-परिवार तथा संसार र्स्वस्व है। चाय बनाने के साधारण से दिखने वाले कार्य को भी वे सम्पूर्ण मनोयोग से करते और अक्सर कहा करते - बहुत से लोगों को यह भी ज्ञात नहीं कि रोटी का स्वाद कैसा होता है। पानी का स्वाद कैसा है? प्यास की चरमसीमा क्या होती है? वे चाय अथवा पानी का एक-एक घूँट ऐसे पीते मानों अमृतपान कर रहे हों। उन के सानिध्य में ऐसा प्रतीत होता मानों सब कुछ ठहर सा गया हो।
जब कहीं चुनाव करना हो तो साधारणतः लोग सरल विषय का चुनाव करते हैं परंतु इन सब के विपरीत सारथी जी कठिनाई को चुनते। वे मुश्किल पसंद थे और अक्सर कहा करते हैं- ‘मुश्किल पसंद बनो। चुनना हो तो कठिनतम कार्य को चुनो’। उनके इन शब्दों में जीवन संघर्ष का, जीवन को संपूर्ण जीवटता से जीने का मूल मंत्र है । उनके जीवन में प्रशिक्षण का आरंभ ही कठिनतम ताल सीखने से हुआ। फिर विविध तालों पर महारत ने ही उन्हें इल्म-ए-अरूज़ सीखने को प्रेरित किया। संगीत में श्रुतियों की समझ किसी विरले संगीतकार को ही होती है वे श्रुतियों के मर्मज्ञ थे तथा चित्रकला में परिपेक्ष जैसी कठिनतम विधा को भी उन्होंने ना केवल सीखा बल्कि परिपेक्ष को अपनी कृतियों में सम्माहित भी किया। उनकी सृजनात्मकता केवल साहित्य या कलाओं तक ही सीमित ना थी बल्कि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की संपूर्ण कार्यप्रणाली तथा उनके रिपेयर कार्य में भी उन्हें दक्षता हासिल थी। चाहे रेडियो, टीवी की मरम्मत का कार्य हो अथवा हारमोनियम तबला की रिपेयर का काम वे यह सब कार्य पूरे मनोयोग, संपूर्ण तन्मयता तथा रचनाधर्मिता से करते।
अपने एक संस्मरण में औम प्रकाश भूरिया जी लिखते हैं -दिसंबर मास में कोहरा पड़ रहा था। मैंने सारथी जी से कहा रंग भरो प्रतियोगिता में प्रथम द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर आए बच्चों की कार्यशाला लेनी है। कितने बच्चे होंगे - उन्होंने पूछा। मैंने कहा तीस – चालीस। कार्यशाला लगाओ मैं आऊंगा और फिर स्कूटर पर प्रतिदिन प्रातः 9:00 बजे संस्कृत विद्यापीठ शास्त्री नगर में कार्यशाला लेने हेतु पहुंचने लगे। सभी को सिखाया। एक एक बच्चे को अलग- अलग से चित्र बनाकर देते और कार्यशाला के समापन पर सभी बच्चों को रबड़ पेंसिलें बांटी, उन सभी का यादगार फोटो भी खींचा । आज भी उन बच्चों से पूछो तो कहते हैं हमने सारथी गुरुजी से सीखा है।
एक और संस्मरण में भूरिया जी लिखते हैं -विश्व हिंदू परिषद का कार्यक्रम था। सर्व देवमयी गाय का 8 फुट X 8 फुट का चित्र होना चाहिए। रामस्वरूप जी सारथी जी के पास पहुंचे। कथा कही । बोले तुरंत सामान ले आओ। प्रात आ कर चित्र ले जाना। शाम को पलाई पहुंची। हम सफेद कोट कर के चले आए । प्रातः चित्र कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहा था
..... मेरा कहने का तात्पर्य कि जिस किसी कार्य से भी उनके पास गए तुरंत उसका हाल उनके पास था। बीमार हो तो दवाई। गायक हो तो गायों, रिकॉर्डिंग तुरंत शुरू। तबला जानते हो तो लो बजाओ। गाते हो तो भजन सुनाओ। लिखते हो तो लिखो विषय देते-देते। चित्र बनाते हो तो कागज पेंसिल ले लो बनाओ।
उन का निबास स्थान ऐसी यज्ञशाला थी जहाँ हर समय सृजनात्मक्ता की आहुतियाँ दी जाती। उन के कार्य क्षेत्र की रचनात्मक्ता हर साधक को मुग्ध कर देती। बहिृमुखी व्यक्ति तो उन के बाहरी रख-रखाब तथा अस्त-व्यस्त पड़े सामान में ही उलझा रहता। जब कि एक साधक के लिए वह स्थान किसी तपोभूमि, किसी शांतिवन से कम न होता।
सारथी जी के लिए प्रत्येक कार्य पूजा अर्चना से कम न होता। वे श्वानों के लिए ब्रैड में दूध मिला कर परोसने का साधारण सा दिखने वाला कार्य जब कर रहे होते तो इतने रमे हुए नज़र आते मानों यह संसार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य हो। रेखाचित्र बनाते हुए, किसी यंत्र की मुरम्मत करते हुए वे इतने निमग्न हो जाते कि लगता यह कार्य ही उन का घर-परिवार तथा संसार र्स्वस्व है। चाय बनाने के साधारण से दिखने वाले कार्य को भी वे सम्पूर्ण मनोयोग से करते और अक्सर कहा करते - बहुत से लोगों को यह भी ज्ञात नहीं कि रोटी का स्वाद कैसा होता है। पानी का स्वाद कैसा है? प्यास की चरमसीमा क्या होती है? वे चाय अथवा पानी का एक-एक घूँट ऐसे पीते मानों अमृतपान कर रहे हों। उन के सानिध्य में ऐसा प्रतीत होता मानों सब कुछ ठहर सा गया हो।
जब कहीं चुनाव करना हो तो साधारणतः लोग सरल विषय का चुनाव करते हैं परंतु इन सब के विपरीत सारथी जी कठिनाई को चुनते। वे मुश्किल पसंद थे और अक्सर कहा करते हैं- ‘मुश्किल पसंद बनो। चुनना हो तो कठिनतम कार्य को चुनो’। उनके इन शब्दों में जीवन संघर्ष का, जीवन को संपूर्ण जीवटता से जीने का मूल मंत्र है । उनके जीवन में प्रशिक्षण का आरंभ ही कठिनतम ताल सीखने से हुआ। फिर विविध तालों पर महारत ने ही उन्हें इल्म-ए-अरूज़ सीखने को प्रेरित किया। संगीत में श्रुतियों की समझ किसी विरले संगीतकार को ही होती है वे श्रुतियों के मर्मज्ञ थे तथा चित्रकला में परिपेक्ष जैसी कठिनतम विधा को भी उन्होंने ना केवल सीखा बल्कि परिपेक्ष को अपनी कृतियों में सम्माहित भी किया। उनकी सृजनात्मकता केवल साहित्य या कलाओं तक ही सीमित ना थी बल्कि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की संपूर्ण कार्यप्रणाली तथा उनके रिपेयर कार्य में भी उन्हें दक्षता हासिल थी। चाहे रेडियो, टीवी की मरम्मत का कार्य हो अथवा हारमोनियम तबला की रिपेयर का काम वे यह सब कार्य पूरे मनोयोग, संपूर्ण तन्मयता तथा रचनाधर्मिता से करते।
अपने एक संस्मरण में औम प्रकाश भूरिया जी लिखते हैं -दिसंबर मास में कोहरा पड़ रहा था। मैंने सारथी जी से कहा रंग भरो प्रतियोगिता में प्रथम द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर आए बच्चों की कार्यशाला लेनी है। कितने बच्चे होंगे - उन्होंने पूछा। मैंने कहा तीस – चालीस। कार्यशाला लगाओ मैं आऊंगा और फिर स्कूटर पर प्रतिदिन प्रातः 9:00 बजे संस्कृत विद्यापीठ शास्त्री नगर में कार्यशाला लेने हेतु पहुंचने लगे। सभी को सिखाया। एक एक बच्चे को अलग- अलग से चित्र बनाकर देते और कार्यशाला के समापन पर सभी बच्चों को रबड़ पेंसिलें बांटी, उन सभी का यादगार फोटो भी खींचा । आज भी उन बच्चों से पूछो तो कहते हैं हमने सारथी गुरुजी से सीखा है।
एक और संस्मरण में भूरिया जी लिखते हैं -विश्व हिंदू परिषद का कार्यक्रम था। सर्व देवमयी गाय का 8 फुट X 8 फुट का चित्र होना चाहिए। रामस्वरूप जी सारथी जी के पास पहुंचे। कथा कही । बोले तुरंत सामान ले आओ। प्रात आ कर चित्र ले जाना। शाम को पलाई पहुंची। हम सफेद कोट कर के चले आए । प्रातः चित्र कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहा था
..... मेरा कहने का तात्पर्य कि जिस किसी कार्य से भी उनके पास गए तुरंत उसका हाल उनके पास था। बीमार हो तो दवाई। गायक हो तो गायों, रिकॉर्डिंग तुरंत शुरू। तबला जानते हो तो लो बजाओ। गाते हो तो भजन सुनाओ। लिखते हो तो लिखो विषय देते-देते। चित्र बनाते हो तो कागज पेंसिल ले लो बनाओ।
उन का निबास स्थान ऐसी यज्ञशाला थी जहाँ हर समय सृजनात्मक्ता की आहुतियाँ दी जाती। उन के कार्य क्षेत्र की रचनात्मक्ता हर साधक को मुग्ध कर देती। बहिृमुखी व्यक्ति तो उन के बाहरी रख-रखाब तथा अस्त-व्यस्त पड़े सामान में ही उलझा रहता। जब कि एक साधक के लिए वह स्थान किसी तपोभूमि, किसी शांतिवन से कम न होता।