सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (35)
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते हैं- मैं पंजाबी साहित्य सभा का प्रधान चुना गया। सत्तर तक प्रधान रहा। कुछ कहानियाँ, ग़ज़लें और लेख लिखे जो मुझ से पंजाबी के एडीटर अमरीक सिँह ने लिखबाये। अमरीक एक प्रेरक मानव मित्र और दरियादिल लेखक सम्पादक है।
यह राम कृपा का फल है जो मैं जम्मूं की सभी भाषाओं की संस्थाओं से जुड़ता चला गया। हर संस्था और हर भाषा ने मुझे अपना जान कर अपनाया। मैं बज़्म-ए-फरोगे उर्दू, अंजुमन-ए-उर्दू अदब, डोगरी संस्था, अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन और हिन्दी साहित्य संगम से सम्बद्ध होता चला गया।
एक साक्षात्कार में आशा अरोड़ा उन से पूछती हैं- सारथी जी आप चित्रकार, संगीतकार और साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं - यह तो खण्ड़ों में जीना हुआ। अच्छा होता आप एक ही धरती को पकड़ते और उसी में निखार पाते। श्री सारथी जी कहते हैं- यह आदमी के वश में नहीं। मैंने अपने बचपन से कला में जीवन गुज़ारा है ये तो उस के विभिन्न रूप हैं। मुख्य बात है भावना की। अभिव्यक्ति किसी भी रूप में क्यों न हो। मैं समझता हूँ कि मैं सब कुछ में एक ही कर रहा हूँ
सफरनामा में वे पुण लिखते हैं - चंचल शर्मा के स्नेह, प्रेम और प्रेरणा से मैं हिन्दी-उर्दू में लिखता रहा। फिर रिपब्लिक अकादमी में पढ़ाते हुए जम्मू के जाने-माने विद्वान और उर्दू के उस्ताद शायर जनाव कैलाश नाथ कोल- मैकश कश्मीरी के सम्पर्क में आया। तबले का काफी ज्ञान होने के कारण ग़ज़ल के अरूज़ सीखने में मुझे दिक्कत न आई। ताल के गुरू एवं उच्चतम जानकार श्री सारथी जी कहा करते की अरूज़ लय-ताल है और लय-ताल अरूज है। इल्में अरूज का मतलब है लय-ताल में निपुण होना क्योंकि काव्य गेय है। काव्य, ग़ज़ल गीतमय नगमा है। नगमगी है। और नगमा तब तक नहीं फूटता जब तक क्रम बद्ध न हो। हर प्रकार की रचना जो गेय है वह लय-ताल और स्वर को समेट कर जब तक संगीत का रूप धारण नहीं करती वह भ्रम मात्र है। लय-ताल जहाँ आदमी के शरीर की रीढ़ की हड्डी है वहीं यह दिन रात अंधेरे और सबेरे की रीढ़ की हड्डी भी है। जहाँ ऋतुओं के परिवर्तन की रीढ़ की हड्डी है वहाँ लय-ताल, आनन्द तथा परमानन्द को स्वयं में विलय कर लेने की स्वर्णिम सीढ़ी भी है।
लय-ताल श्री सारथी जी के प्राण थे और वे लय-ताल को सोते-जागते, खाते-पीते, औढ़ते और विछाते थे। अरूज़ उन के लिए एक छोटा सा शब्द था जिसे वे प्रतिदिन बीसीयों बार हर स्थान पर इस्तेमाल करते थे। उन की दिनचर्या में अरूज़ का इतना गूढ़ सामजस्य होता कि वे तबले पर रोटी डाल कर कहते -स्टोब एक ताल में जल रहा है। रोटी डालने के बाद अगर इस की ज्वाला कम अथवा अधिक करोगे तो इस का अर्थ होता है लय-ताल का कम अधिक करना। यदि ऐसा करोगे तो रोटी अधकचरी रह जायेगी क्योंकि रोटी के पकने का भी सुनिश्चित लय-ताल है। वे कहते- ताल का अरूज़ से और अरूज़ का ग़ज़ल से वही सम्बन्ध है जो शरीर का हृदय से और हृदय का श्वास से है। हृदय ताल है, श्वास लय है। दोनों के सहारे शरीर खड़ा है। जिस प्रकार ताल के बिना, अरूज़ के बिना, आदमी मुर्दा है, शव है, उसी प्रकार ग़ज़ल अरूज़ के बिना मुर्दा है, शव है।
..........क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (35)
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते हैं- मैं पंजाबी साहित्य सभा का प्रधान चुना गया। सत्तर तक प्रधान रहा। कुछ कहानियाँ, ग़ज़लें और लेख लिखे जो मुझ से पंजाबी के एडीटर अमरीक सिँह ने लिखबाये। अमरीक एक प्रेरक मानव मित्र और दरियादिल लेखक सम्पादक है।
यह राम कृपा का फल है जो मैं जम्मूं की सभी भाषाओं की संस्थाओं से जुड़ता चला गया। हर संस्था और हर भाषा ने मुझे अपना जान कर अपनाया। मैं बज़्म-ए-फरोगे उर्दू, अंजुमन-ए-उर्दू अदब, डोगरी संस्था, अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन और हिन्दी साहित्य संगम से सम्बद्ध होता चला गया।
एक साक्षात्कार में आशा अरोड़ा उन से पूछती हैं- सारथी जी आप चित्रकार, संगीतकार और साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं - यह तो खण्ड़ों में जीना हुआ। अच्छा होता आप एक ही धरती को पकड़ते और उसी में निखार पाते। श्री सारथी जी कहते हैं- यह आदमी के वश में नहीं। मैंने अपने बचपन से कला में जीवन गुज़ारा है ये तो उस के विभिन्न रूप हैं। मुख्य बात है भावना की। अभिव्यक्ति किसी भी रूप में क्यों न हो। मैं समझता हूँ कि मैं सब कुछ में एक ही कर रहा हूँ
सफरनामा में वे पुण लिखते हैं - चंचल शर्मा के स्नेह, प्रेम और प्रेरणा से मैं हिन्दी-उर्दू में लिखता रहा। फिर रिपब्लिक अकादमी में पढ़ाते हुए जम्मू के जाने-माने विद्वान और उर्दू के उस्ताद शायर जनाव कैलाश नाथ कोल- मैकश कश्मीरी के सम्पर्क में आया। तबले का काफी ज्ञान होने के कारण ग़ज़ल के अरूज़ सीखने में मुझे दिक्कत न आई। ताल के गुरू एवं उच्चतम जानकार श्री सारथी जी कहा करते की अरूज़ लय-ताल है और लय-ताल अरूज है। इल्में अरूज का मतलब है लय-ताल में निपुण होना क्योंकि काव्य गेय है। काव्य, ग़ज़ल गीतमय नगमा है। नगमगी है। और नगमा तब तक नहीं फूटता जब तक क्रम बद्ध न हो। हर प्रकार की रचना जो गेय है वह लय-ताल और स्वर को समेट कर जब तक संगीत का रूप धारण नहीं करती वह भ्रम मात्र है। लय-ताल जहाँ आदमी के शरीर की रीढ़ की हड्डी है वहीं यह दिन रात अंधेरे और सबेरे की रीढ़ की हड्डी भी है। जहाँ ऋतुओं के परिवर्तन की रीढ़ की हड्डी है वहाँ लय-ताल, आनन्द तथा परमानन्द को स्वयं में विलय कर लेने की स्वर्णिम सीढ़ी भी है।
लय-ताल श्री सारथी जी के प्राण थे और वे लय-ताल को सोते-जागते, खाते-पीते, औढ़ते और विछाते थे। अरूज़ उन के लिए एक छोटा सा शब्द था जिसे वे प्रतिदिन बीसीयों बार हर स्थान पर इस्तेमाल करते थे। उन की दिनचर्या में अरूज़ का इतना गूढ़ सामजस्य होता कि वे तबले पर रोटी डाल कर कहते -स्टोब एक ताल में जल रहा है। रोटी डालने के बाद अगर इस की ज्वाला कम अथवा अधिक करोगे तो इस का अर्थ होता है लय-ताल का कम अधिक करना। यदि ऐसा करोगे तो रोटी अधकचरी रह जायेगी क्योंकि रोटी के पकने का भी सुनिश्चित लय-ताल है। वे कहते- ताल का अरूज़ से और अरूज़ का ग़ज़ल से वही सम्बन्ध है जो शरीर का हृदय से और हृदय का श्वास से है। हृदय ताल है, श्वास लय है। दोनों के सहारे शरीर खड़ा है। जिस प्रकार ताल के बिना, अरूज़ के बिना, आदमी मुर्दा है, शव है, उसी प्रकार ग़ज़ल अरूज़ के बिना मुर्दा है, शव है।
..........क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध
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