सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Sunday, 12 November 2017

सागर की कहानी (38)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास ।
सागर की कहानी (38) 
हम लोगों ने देखा है श्री सारथी जी को वर्तमान का हर पल सुरक्षित करते हुए। कभी जब तपती धूप में उन के पास पहुँचते तो वे किसी बड़े कन्वास पर अपने रंगों का जादू बिखेर रहे होते। इस तपती दुपहरिया में वे बनैन एवं धोती पहन कर रंगों में ऐसे डूब गये होते कि उन की शांत मुद्रा को देख कर यह अहसास ही न होता कि बाहिर ज़ोरों की गर्मी पड़ रही है। और कभी जब बरसात में उन के पास पहुँचते तो वे राग मेघ-मलहार अथवा वर्षा ऋतु का अन्य कोई राग गा रहे होते। उनका निबास स्थान किसी कार्यशाला सा दिखाई देता। कहीं पेंट का सामान पड़ा रहता तो कहीं framing की लकड़ी। स्थान स्थान पर अनेकों कंवास पड़े रहते । कुछ कंवास भव्य चित्रों के रूप में परिवर्तित हो, फ्रेमिंग के लिए प्रतीक्षारत्त होते तो कुछ अंतिम परिष्करण finishing touches के इंतज़ार में । कहीं कोई भूदृश्य रंगों के लिए आतुर दिखता तो अन्यत्र कहीं चित्र आधा अधूरा ही छोड़ दिया गया होता। कोई कलाकृति धूप में सूख रही होती तो कोई सुखाने के लिए धूप में लाई जा रही होती। कमरे के दूसरे कोने में संगीत का साजो सामान रहता। एक तरफ हारमोनियम, तबला, तानपुरा, microphone इत्यादि रहते तो दूसरी ओर बड़े बड़े लाउडस्पीकर और बिजली की तारों का उलझा हुआ जाल मौजूद होता। पुस्तकें इतनी थीं कि लगता घर की चार दिवारी ईंटों से नहीं ब़ल्कि पुस्तकों से बनाई गई हो। इन सब के बीच कम्बलों की तह पर बैठे सारथी किसी न किसी रचनात्मक कार्य में व्यस्त होते।
सारथी जी के पंजाबी उपन्यास रणखेत्तर में मुख्य पात्र के कमरे का चित्रण सारथी जी के निबास स्थान की याद दिलाता है। वे लिखते हैं- मिट्टी ही मिट्टी। बन रही मूर्तियां। बन चुकी मूर्तियां। रंगदार मूर्तियां। बेरंग मूर्तियां, टूट रही मूर्तियां। मलबे के ढ़ेर पर पड़ी उल्टी, सीधी, टेढी और तिरछी पड़ी मूर्तियां। अधूरे छूटे रंग। किसी के मात्थे पे रंग। किसी के मुंह पर रंग। किसी के हाथों, पैरों पे रंग। किसी के लिबास का रंग आधा अधूरा। किसी के जिस्म का रंग अधूरा। 
सृजन प्रक्रिया के मर्म को समझाते हुए लिबास कहानी में वे लिखते हैं- यही संसार है। यही कुछ सृष्टि में हो रहा है। दिन रात यही काम चल रहा है। निर्माण और विनाश का। विनाश और निर्माण का। मैं इसीलिए मिट्टी के खिलौने बनाता रहता हूँ। क्योंकि बनाते हुए मुझे लगता है कि मैं बन रहा हूँ और टूट रहा हूँ। मैं यही अहसास तुम्हें करबाना चाहता हूँ। इसलिए कह रहा हूँ। बनाओ और तोड़ो। तोड़ो और बनाओ। बनाओ और तोड़ो। फिर बनाओ। फिर बनाओ।
यही सब उन के निवास स्थान पर भी देखने को मिलता । कभी कई दिनों तक बड़े से कंवास पर उन के रंगों का जादू बिखरता और एक भव्य कलाकृति बन कर तैयार हो जाती और फिर किसी दिन अचंभित हुए बिना न रहा जाता जब यह देखता कि उसी कलाकृति पर सफेद रंग आरोपित कर मिटाया जा रहा है । ... पूछना चाहता ऐसा क्यों किया जा रहा है, परंतु जिस तन्मयता और मनोयोग से चित्र बनने लगता, कुछ नहीं में से सब कुछ प्रकट होने लगता, सारी प्रक्रिया ऐसी मंत्र मुग्ध करने वाली होती कि अभी अभी नष्ट हुई कृति का ज़रा सा भी क्षोभ मन में न रहता और मन नव सृजन के आनंद से भर जाता । लगता मैं ही रंगा जा रहा हूँ । रंग मेरे ही अस्तित्व में भरे जा रहे हैं । मैं ही एक चित्र की, भव्य तस्वीर कि संज्ञा ग्रहण कर रहा हूँ॥
केाई पूछे कि भई यह सब क्या है। यह क्या कि दिन रात रचना, क्रियाशीलता , पल पल निर्माण, सृजन । पहले बनाना फिर उसी कृति को नष्ट कर पुण निर्माण कार्य आरम्भ। ऐसा क्यों भला। इस का उत्तर वे रणखेत्तर मंब भी देते हैं-मिट्टी से हट कर मिट्टी का सच कोई नहीं। इस का सच सिर्फ मिट्टी है। फिर भी एक आकर्षण है, एक रूचि है कि बनाता जाता हूँ। यह शायद मिट्टी का मोह है जो छूटता नहीं। कभी कभी विचार आता है कि सब कुछ तोड़-फोड कर मिट्टी को मिट्टी में मिला कर सब कुछ छोड़ दूँ। पर दूसरे ही पल हाथ पैर उबल पड़ते हैं, वेचैन हो जाते हैं। मेरे भीतर से एक शौर सा उठ खड़ा होता है कि बनाओ। जल्दी बनाओ। तू अपने आप के अनर्थ कर रहा है। तू अपराध कर रहा है। जिस आदमी को बनाना आता है, यदि न बनाये तो बड़ा अपराधी है। मैं अपनी ही आवाज़ से ड़र जाता हूँ। अपने ही श्वासों से भय लगने लगता है और मैं झट ही मिट्टी ले कर बैठ जाता हूँ।
........क्रमशः .......कपिल अनिरुद्ध

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