श्री भुवनपति शर्मा जी के आशीष वचन नव उत्साह का संचार कर गए-
'प्रिय कपिल सारथी जी की जीवनी तुम जिस आत्मीय भाव से लिख रहे हो और जिस सुंदर भाषा में उस के लिये हार्दिक बधाई। इस की पुस्तक रूप में छपने की प्रतीक्षा रहेगी मैं हर किश्त की उत्सुकता से प्रतीक्षा करता हूँ,साधुवाद।'
......धन्यवाद मान्यवर
सागर की कहानी (37)
इस बात ने सदा ही मेरे भीतर कौतुहल पैदा किया है कि श्री सारथी जी विश्राम कब करते हैं? मैंने उन्हें कभी थक कर बैठे हुए नहीं देखा। कभी निष्क्रिय नहीं देखा। उन की निरन्तर सक्रियता मेरे साथ-साथ अन्य लोगों की भी जिज्ञासा एवं आश्चर्य का कारण रही है। उन का प्रत्येक क्षण शब्दों, रंगों एवं सुरों से खेलते हुए ही बीतता। कभी-कभी लगता वे तो मात्र एक प्रक्रिया हैं, निरन्तरता हैं, गति हैं, चेतना हैं। निरन्तर प्रक्रिया एवं निरन्तर सक्रियता का मूल मंत्र उन के इन शब्दों में निहित है। ‘मेरा अनुभव है कि जब भी मैं और तुम या कोई अन्य आधे संकल्प से, आधे सत्य से, आधी-अधूरी निष्ठा और आधी-अधूरी श्रद्धा से कार्य करेगा तो वह शीघ्र शक्ति खो कर थक जाएगा। थकेगा वही जो हां और नहीं के मध्य फसा हुआ, आशा और निराशा के बीच फसा हुआ, ईमानदारी और बेईमानी के मध्य फंसा हुआ कार्य कर रहा हो’।
वे कहते – ‘एक उत्कृष्ट क्षमता जो कार्य के साथ-साथ तुम्हें भी स्वभाविक और प्राकृतिक बनाये रखती है, वह है कार्य को समर्पित चिन्तन। अपनी पूरी शक्ति और एकाग्रता का केवल कार्य में ही होना। स्वयं कार्य ही हो जाना। स्वयं ही एक अन्तहीन प्रक्रिया में परिवर्तित हो जाना जिस में कर्ता और क्रिया की भिन्नता का अन्त हो जाए। और वह तभी सम्भव है जब तुम मात्र वर्तमान में रहने का निरन्तर प्रण करो। निरन्तर अभ्यास करो। निरन्तर वर्ततान ही को अपने श्वासों में भर कर रखो और जिस क्षण तुम्हें कुछ करना है वही क्षण पहला और अंतिम क्षण जान लो। जिस क्षण में तुम्हें जीना है वही क्षण तुम्हारा र्स्वस्व हो जाए। तुम्हारा और तुम्हारे कार्य का कोई अतीत न हो, कोई भविष्य न हो। कोई परिणाम भी न हो। परिणाम, अतीत, भविष्य मात्र वर्तमान हो।‘
जो कार्य उन के लिए सर्वाधिक महत्व का दीखता, जिसे वे अपने सम्पूर्ण मनोयोग से कर रहे होते, उसी कार्य के सम्पूर्ण हो जाने पर वे उस कार्य से इस प्रकार अलग हो जाते मानों कार्य विशेष से उन का दूर-दूर का भी सरोकार न हो। संदेह होता इस प्रकार का निर्लिप्त व्यक्ति क्या कभी कार्य में संलिप्त भी था या वह मात्र आँखों का धोखा था। जिस चित्र को बनाने में उन्होंने कई दिनों तक अपनी पूरी शक्ति लगा दी होती उसे ऐसे उठा कर किसी को दे देते मानों कलाकृति से उन का कोई सम्बन्ध ही न हो। उन के बनाये चित्र आज भी अनेक घरों, मन्दिरों तथा संस्थानों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
प्रवीण जी गुरू आश्रम पहुँचती हैं। श्री सारथी जी को दण्ड़वत् प्रणाम कर वह बैठ जातीं हैं और उनके द्वारा बनाये भूदृष्य को मंत्रमुग्ध सी एकटक देखती जाती हैं। वे मुस्कुराते हुए प्रवीण जी से पूछते हैं- स्वामी जी, इय चित्र में ऐसा क्या विशेष है जो आप इसे लगातार देखते चले जा रहे हो। प्रवीण जी कहती हैं- गुरूदेव, ऐसा सौन्दर्य मैंने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। जी चाहता है बस इसे देखती रहूँ। मैं तो इस भूदृष्य की सुन्दरता को जीवन भर निहार सकती हूँ। सारथी जी कुछ आदेशात्मक स्वर में कहते हैं- भई, कपिल यह चित्र पैक कर दो। अब यह चित्र प्रवीण जी के घर की दीवार पर लगेगा। प्रवीण जी विरोध करती हैं और फिर कुछ संकुचाते हुए कहती हैं- गुरूदेव मैं चाहती हूँ यह चित्र इसी स्थान पर सौन्दर्य बिखेरे। सारथी जी पुणः कहते हैं- मैं जानता हूँ यह चित्र कहाँ होना चाहिए। फिर कुछ मुस्कुराते हुए कहते हैं- क्या आप नहीं चाहते हो यह चित्र उस स्थान पर लगे जहां अधिक लोग उस का आनन्द ले सकें और मुझे सम्बोधित करते हुए कहते हैं- भई आप क्या कर रहे हैं, इस चित्र को आज ही प्रवीण जी के हाँ पहुँचा दो। प्रवीण जी अब कुछ नहीं कह पाती। उन की मौन स्वीकृति में अद्भुत हर्ष को भी देखा जा सकता था। चित्र उनके घर पहुँचा दिया गया और आज भी वह चित्र जिस में सर्दियों की एक सुबह को तेल रंगों में चित्रित किया गया है प्रवीण जी के घर की शोभा बढ़ा रहा है।
इस बात ने सदा ही मेरे भीतर कौतुहल पैदा किया है कि श्री सारथी जी विश्राम कब करते हैं? मैंने उन्हें कभी थक कर बैठे हुए नहीं देखा। कभी निष्क्रिय नहीं देखा। उन की निरन्तर सक्रियता मेरे साथ-साथ अन्य लोगों की भी जिज्ञासा एवं आश्चर्य का कारण रही है। उन का प्रत्येक क्षण शब्दों, रंगों एवं सुरों से खेलते हुए ही बीतता। कभी-कभी लगता वे तो मात्र एक प्रक्रिया हैं, निरन्तरता हैं, गति हैं, चेतना हैं। निरन्तर प्रक्रिया एवं निरन्तर सक्रियता का मूल मंत्र उन के इन शब्दों में निहित है। ‘मेरा अनुभव है कि जब भी मैं और तुम या कोई अन्य आधे संकल्प से, आधे सत्य से, आधी-अधूरी निष्ठा और आधी-अधूरी श्रद्धा से कार्य करेगा तो वह शीघ्र शक्ति खो कर थक जाएगा। थकेगा वही जो हां और नहीं के मध्य फसा हुआ, आशा और निराशा के बीच फसा हुआ, ईमानदारी और बेईमानी के मध्य फंसा हुआ कार्य कर रहा हो’।
वे कहते – ‘एक उत्कृष्ट क्षमता जो कार्य के साथ-साथ तुम्हें भी स्वभाविक और प्राकृतिक बनाये रखती है, वह है कार्य को समर्पित चिन्तन। अपनी पूरी शक्ति और एकाग्रता का केवल कार्य में ही होना। स्वयं कार्य ही हो जाना। स्वयं ही एक अन्तहीन प्रक्रिया में परिवर्तित हो जाना जिस में कर्ता और क्रिया की भिन्नता का अन्त हो जाए। और वह तभी सम्भव है जब तुम मात्र वर्तमान में रहने का निरन्तर प्रण करो। निरन्तर अभ्यास करो। निरन्तर वर्ततान ही को अपने श्वासों में भर कर रखो और जिस क्षण तुम्हें कुछ करना है वही क्षण पहला और अंतिम क्षण जान लो। जिस क्षण में तुम्हें जीना है वही क्षण तुम्हारा र्स्वस्व हो जाए। तुम्हारा और तुम्हारे कार्य का कोई अतीत न हो, कोई भविष्य न हो। कोई परिणाम भी न हो। परिणाम, अतीत, भविष्य मात्र वर्तमान हो।‘
जो कार्य उन के लिए सर्वाधिक महत्व का दीखता, जिसे वे अपने सम्पूर्ण मनोयोग से कर रहे होते, उसी कार्य के सम्पूर्ण हो जाने पर वे उस कार्य से इस प्रकार अलग हो जाते मानों कार्य विशेष से उन का दूर-दूर का भी सरोकार न हो। संदेह होता इस प्रकार का निर्लिप्त व्यक्ति क्या कभी कार्य में संलिप्त भी था या वह मात्र आँखों का धोखा था। जिस चित्र को बनाने में उन्होंने कई दिनों तक अपनी पूरी शक्ति लगा दी होती उसे ऐसे उठा कर किसी को दे देते मानों कलाकृति से उन का कोई सम्बन्ध ही न हो। उन के बनाये चित्र आज भी अनेक घरों, मन्दिरों तथा संस्थानों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
प्रवीण जी गुरू आश्रम पहुँचती हैं। श्री सारथी जी को दण्ड़वत् प्रणाम कर वह बैठ जातीं हैं और उनके द्वारा बनाये भूदृष्य को मंत्रमुग्ध सी एकटक देखती जाती हैं। वे मुस्कुराते हुए प्रवीण जी से पूछते हैं- स्वामी जी, इय चित्र में ऐसा क्या विशेष है जो आप इसे लगातार देखते चले जा रहे हो। प्रवीण जी कहती हैं- गुरूदेव, ऐसा सौन्दर्य मैंने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। जी चाहता है बस इसे देखती रहूँ। मैं तो इस भूदृष्य की सुन्दरता को जीवन भर निहार सकती हूँ। सारथी जी कुछ आदेशात्मक स्वर में कहते हैं- भई, कपिल यह चित्र पैक कर दो। अब यह चित्र प्रवीण जी के घर की दीवार पर लगेगा। प्रवीण जी विरोध करती हैं और फिर कुछ संकुचाते हुए कहती हैं- गुरूदेव मैं चाहती हूँ यह चित्र इसी स्थान पर सौन्दर्य बिखेरे। सारथी जी पुणः कहते हैं- मैं जानता हूँ यह चित्र कहाँ होना चाहिए। फिर कुछ मुस्कुराते हुए कहते हैं- क्या आप नहीं चाहते हो यह चित्र उस स्थान पर लगे जहां अधिक लोग उस का आनन्द ले सकें और मुझे सम्बोधित करते हुए कहते हैं- भई आप क्या कर रहे हैं, इस चित्र को आज ही प्रवीण जी के हाँ पहुँचा दो। प्रवीण जी अब कुछ नहीं कह पाती। उन की मौन स्वीकृति में अद्भुत हर्ष को भी देखा जा सकता था। चित्र उनके घर पहुँचा दिया गया और आज भी वह चित्र जिस में सर्दियों की एक सुबह को तेल रंगों में चित्रित किया गया है प्रवीण जी के घर की शोभा बढ़ा रहा है।
.................क्रमशः ........ कपिल अनिरुद्ध
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