सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Thursday, 24 May 2012



Please do click on the above mentioned link if you wish to listen to Goswami Tulsidaas Bhajan sung by Gurudev O.P.Sgharma" Sarathi" ji in raag khamaj.
Jankinath Sahai Karen Jab-a Bhajan by Goswami Tulsidaas sung by Gur
श्री सारथी उवाच ..................
प्रभु का भक्त कहता नहीं, सहता है । वह मारता नहीं, हारता है । वह सम्बन्ध बनाता नहीं, सम्बन्धी हो जाता है । वह अपनी ओर कुछ नहीं घसीटता, वह घिसटता चला जाता है । वह हर घटना, दुर्घटना, प्रिय घटना को प्रभु ही का वरदान मान लेता है । और प्रसाद समझ लेता है । वह एक का मित्र नहीं होता क्योंकि वह किसी का भी शत्रु नहीं होता । वह प्रभु को खोजने कहीं नहीं जाता । वह उस में गुम हो जाता है । वह अच्छा और बुरा कुछ नहीं कहता । वह जानता है वह यह सब प्रभु ही से कह रहा है । और प्रभु से क्या कहना है वह प्रभु ही से जान चुका है । वह समस्त सृष्टि को नमस्कार करता हुआ प्रभु ही को नमस्कार करता है । वह सारी सृष्टि का दास बनता हुआ प्रभु का दास बन जाता है ।

---धरती का गीत ---

रचनाकार ------- गुरुदेव (डा.) ओ. पी .शर्मा "सारथी"







जिसे कहतें हैं पुण्यमयी
मैं उस धरती का बेटा हूँ
जिसे कहतें हैं स्वर्गमयी
मैं उस धरती का बेटा हूँ

अनेकों नाम हैं जिस के
अनेकों धाम हैं जिस के
बहुत आयाम हैं जिस के
मैं उस धरती का बेटा हूँ
जिसे कहतें हैं ...........

भरतमुनि गीत गाते हैं
हैं पाणिनि अर्चना करते
हैं तुलसी वंदना करते
मैं उस धरती का बेटा हूँ
जिसे कहतें हैं ...........

शिवा ने जिस की रक्षा की
हुआ आज़ाद बलिदानी
है राणा की भी कुर्बानी
मैं उस धरती का बेटा हूँ
जिसे कहतें हैं ...........

करें सेवा सभी मिल कर
हो पूजन माँ का हिलमिल कर
करें श्रृंगार सब मिल कर
मैं उस धरती का बेटा हूँ
जिसे कहतें हैं ...........
 ·  ·  · Yesterday at 12:46am

  • You, Shivdev ManhasShashi Padha and Nidhi Mehta Vaid like this.

    • Shashi Padha करें सेवा सभी मिल कर
      हो पूजन माँ का हिलमिल कर
      करें श्रृंगार सब मिल कर
      मैं उस धरती का बेटा हूँ
      जिसे कहतें हैं ........... सुन्दर प्रेरक भाव कपिल जी
      धन्यवाद |

      Yesterday at 1:27am ·  ·  2

Sunday, 13 May 2012


घड़ी साज ----सारथी 
मुझे मेरे एक परिचित ने पूछा कि यदि राम नाम की रट लगाई जाए तो क्या होगा । मैंने उस से कहा कुछ नहीं होगा । कुछ भी नहीं घटेगा । तो उस ने दोवारा प्रश्न किया कि तुम बात बात पर - 'हे राम' और 'राम कृपा' क्यों कहते हो । अब उस ने स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर दे दिया । मैंने कहा -तुम रट मत लगाओ या फिर रट- रट के देखो क्या होता है ? यह मैं तुम्हे क्या बताऊँ कि क्या घटेगा । यदि राम का नाम लिए बिना कुछ घटनाएँ हो रहीं हैं तो यकीनन तुम्हे लगता है या तो तुम्हारे कारण हो रहीं हैं अथवा तुम पर आक्रमण के लिए हो रहीं हैं । अब तुम नाम रटो इतना रटो कि कबीर की भांति तुम्हारी जीभ पर छाले पड़ जाएं और जीभ दुखने लग जाए और मीरा की भांति तुम कुछ न रटो और चारो और से आवाज़ आने लगे ---हरी, हरी, कृष्ण, कृष्ण, राम, राम और सोचने के स्थान पर चिंता के स्थान पर हानि लाभ के स्थान पर पर मात्र हरे राम, हरे राम ही मन वचन और कर्म में घटित होता चला जाए तो तुम कहो की रट लगाने से क्या हुआ । कितना बदल गया । तुम्हारा दायित्व नाम में चला गया । तुम्हारी चिंता 'नाम' और 'हरे' में प्रविष्ट हो गयी । शर्त यह है कि जो कुछ भी तुम करते हो वही कुछ नाम को दे दी करने के लिए ।

राँझा राँझा कह्न्दियाँ मैं आपे राँझा होई .... वाला किस्सा हो जाए । एक बार कैस, लैला लैला पुकारते हुए बेतहाशा भागते जा रहे थे । रास्ते में एक शेख सिजदे की खातिर बैठे थे । अचानक कैस के आगे आ जाने पर कैस का पाँव शेख के सिर को छू गया । शेख ने सिजदा तो एक ओर फेंका और मजनू का पाँव पकड़ लिया और दो -चार चपत रसीद कर दी और कहा तुम ने मेरी बंदगी को पैर छुआ कर नापाक कर दिया है । हजरते मजनू ने मुआफी तलब की और कहा कि मैं कुसूरबार हूँ । शेख साहिब आप बताएं कि आप किस के हजूर में बंदगी कर रहे थे ? शेख ने जवाब दिया - मैं परवर दिगार खुदाबन्द करीम के हजूर में सिजदा कर रहा था । तो मजनू ने हैरानगी जाहिर करते हुए कहा - शेख साहिब एक लड़की है लैला । मैं उस के इश्क में गिरफ्तार हूँ और उस के इश्क में सारी दुनिया को भूल चूका हूँ और एक आप हैं कि तमाम जहान के हजूर की याद में सिजदा कर रहे थे और होश इतना कि मेरा पाँव पकड़ लिया और दो चार घूंसे भी जमा दिए । यह इश्क कैसा ? यह सिजदा कैसा और बंदगी कैसी ?

किसी का भी दामन पकड़ लो । मैं तो कहता हूँ पता ही न चले कि तुम लफ्ज़ में डूब चुके हो । शब्द और तुम एक हो चुके हो । राम और रहीम में तुम समा चुके हो । तुम्हारी नस नस में वह शब्द घूम जाए । राम, अल्लाह, प्रभु, गाड, चालक,रहीम, गोपाल, परशिव, परमेश्वर, करीम, दया सिन्धु, कृपासिधु । कुछ भी । कोई भी शब्द । इसीलिए शब्द को ब्रहम कहते हैं । पकड़ में आ जाये तो स्वयं में तुम्हे डुबो लेता है । अपने में तुम्हे गिरा लेता है । बस पकड़ो । उच्चारण नहीं करना । जैसे तुम्हारे आगे आगे तुम्हारा माशूक भागा जा रहा है और तुम्हे उसे पकड़ना है । तो तुम लाख चिल्लाते रहो, उस का नाम रटते रहो । रटने का अभिप्राय हरगिज़ पकड़ना नहीं होगा । उस कि गति में जाना होगा । और उस कि गति चिल्लाने में नहीं है । चिल्लाना तो अपनी ही उर्जा को व्यर्थ खर्च करना है । रटना है, परन्तु जीभ जब थक जाए छाले पड़ जाएँ और रटते हुए दर्द हो तो फिर जीभ रटना छोड़ देती है और श्वास ही रटता है और श्वास हो कर नाम, मन में और चित्त में उतरता है । यह एक प्रक्रिया है । रटने से क्या होगा ? इस बात का उत्तर तुम्हे स्वयं मिल सकता है । मैं तुम्हे उत्तर के संकेत दे सकता हूँ कि यदि तुम रट रहे हो और अब रटने कि आवश्यकता नहीं रही है और नाम शब्द या लफ्ज़ तुम्हारे ध्यान में चला गया है तो यह तुम्हारी सफलता की पहली सीढ़ी है ।

जैसे एक शराबी दिन भर कार्य करते हुए यही सोचा करता है कि शाम होगी तो शराब लूँगा, पियूँगा और झूमुंगा । वह शराब का शब्द रटता नहीं है । वह ध्यान में ही शराब को रखता है । उसे ध्याता है और वास्तविक शराबी तो वही होता है जिसे शराब पीने को मिले या नहीं मिले परन्तु जो हर क्षण शराब के ध्यान में फंसा रहे ।

आशिकों की दास्तानों का किस्सा भी खुदाई किस्सा है । सोहनी- महिवाल, हीर- राँझा, लैला- मजनू इन्हीं के बारे में किसी शाअर का शे' र है

जिन्हों को इश्क है सादिक
वो कब फ़रियाद करते हैं ।
लबों पे मुहर - ए- ख़ामोशी
दिलों में याद करते हैं ।

उस से आगे की स्थिति और भी विचित्र होगी । जब ध्यान में राम होंगे तो दिनचर्या में उठने, बैठने, सो,ने जागने में, खाने पीने में, हर कर्म में वही राम होंगे और तुम्हारे मन की दशा ऊधर्व होगी । वह कर्म और ज्ञान दोनों को दोनों प्रकार की इन्द्रियों को नीचे छोड़ चुका होगा । उपनिषद तभी कहता है - उन्मानी भावा पाद्यम । ऊपर की ओर मन बहता है । तो यह दशा तुम्हारे अस्तितिव में अंतर्मुखी दशा है । जिस की कोई नुमाईश नहीं है । मात्र चिन्ह है की यदि तुम्हारा मन और ध्यान राम के रंग में पूरे भीगे हैं तो संसार से उदासी के, विराग के चिन्ह वही लोग समझ सकेंगे जो सहयात्री होंगे । वर्ना संभव है कि तुम्हे मूर्खानंद की उपाधि से अलंकृत कर दिया जाए । जैसे महारानी मीरा अपनी व्यथा सुनाती है --
लोग कहे मीरा भई बावरी
सास कहे कुल नासी रे
मैं तो अपने नारायण की
हो गई आप ही दासी रे

प्रिय बंधू ! यह मत पागलों और मूर्खों का है ।
यह तो मत की डिग्री और qualification है कि तुम मुर्ख हो ।

(गुरुदेव का यह लेख दैनिक कश्मीर टाइम्स में 22 नवम्बर १९९० में प्रकाशित हुआ )
 ·  ·  · May 9 at 4:30pm
  • You, Shashi PadhaVarun Joshi and 2 others like this.
    • Varun Joshi जिन्हों को इश्क है सादिक
      वो कब फ़रियाद करते हैं ।
      लबों पे मुहर - ए- ख़ामोशी
      दिलों में याद करते हैं ।........................ kya baat ......
      May 9 at 5:12pm ·  ·  2
    • Vijay Ojha बहुत ही सटिक धन्यवाद ये लेख हम तक पहुचाने के लिए।
      May 9 at 6:01pm via mobile ·  ·  1

Monday, 7 May 2012


घड़ी साज ----सारथी 

प्रिय! गुरु मात्र वही नहीं जो ज्ञान और ध्यान और विनम्रता की प्रतिमूर्ति हो । गुरु तो संकेत भी होता है । गुरु तो परिवर्तन भी होता है । गुरु तो संकेत और परिवर्तन का कारण भी होता है । यदि तुम निष्ठा में हो, श्रद्धा से युक्त हो और गुरु की अनुकम्पा के प्रतीक्षक हो तो कहीं कोई मानव, जीव, पेड़, पौधा, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, नारी, पिता, वैश्या कोई भी गुरु का स्थान प्राप्त कर सकता है । विल्वमंगल और तुलसीदास के जीवन का आमूल परिवर्तन इस तथ्य का साक्षी है कि गुरु कोई भी, कहीं भी और कैसे भी हो सकता है ।
प्रिय बंधु! एक मेहतरन थी । वह राजकुमारी के महल में कार्य करती थी । एक बार मेहतरन बीमार पड़ी तो उस ने अपने पति को राजकुमारी के महल में कार्य हेतु भेज दिया। राजकुमारी का सौन्दर्य अनुपम था । मेहतर ने देखा तो स्वयं को भुला बैठा। प्रेम में गहरा गिर गया । परन्तु क्या कहे? किस से कहे? स्वयं भंगी और उधर प्रेमिका राजकुमारी । बीमार पड़ गया । और मरणासन्न हो गया । अब मेहतरानी ने पूछा कि इतना क्या जो गम है जो बताते नहीं । मरते मरते उस मेहतर ने बताया- मैंने एक झलक राजकुमारी कि देखी है और आसक्त हो गया हूँ । बस यही रोग है ।
मेहतरानी राजकुमारी के घर गयी और कहा मुझे चाहे प्राण दंड दें। परन्तु मेरा पति आप के कारण मृत्यु शैय्या पर पड़ा है । उस का क्या उपचार करूँ, कुछ समझ में नहीं आता ।
राजकुमारी बहुत मेधावी थी। कहा अपने पति से कहो चिंता न करे । एक झूठ-मूठ का प्रपंच उसे रचना पड़ेगा । नदी किनारे धूनी रमा का नाम लेने बैठ जाए । जब उस की चर्चा चलेगी । लोग दर्शन को जाने लगेंगे । तो मैं महाराज से पूछ कर दर्शन को जाऊंगी । 
मेहतरानी ने बात पति को सुनायी। पति के प्राण लौट आये । आव देखा न ताव (न आव देखा न उस की गर्मी) और कपड़े फूँक कर, भस्म रमा कर नदी किनारे धूनी लगा कर बैठ गया । प्रसिद्धी फैलने लगी । और फैलते फैलते महाराज तक पहुँच गयी । राजकुमारी पिता से अनुमति ले कर मेहतर की कुटिया में पहुंची । मेहतर समाधि में था । वह आँखें मूंदे ध्यान में रहा । रहा । और रहा । राजकुमारी को अपना परिचय देना पड़ा मैं वही राजकुमारी हूँ जिस को देख कर तुम पगला गए थे । और जिस के कारण तुम ने यह भेष बनाया है । और यह ध्यान यह भक्ति और यह साधुत्व का खेल रचाया है । मेहतर जो अब संत था उठ कर राजकुमारी के चरणों में गिर गया । और कहा तुम तो मेरी गुरु हुई । तुम्हारे कारण मुझे शब्द की प्राप्ति हुई । प्रभु चरणों में मन लगा । तुम तो गुरु हो । तुम तो मेरी माता हो । तुम धन्य हो ।
यह एक सुंदर कथा है परिवर्तन के कारण की। कारण तो कोई भी और कभी भी संभव हो सकता है । बस देखना यह है कि तुम कितने तैयार हो? कितने आशिक हो? तुम कितने मीरा और कैस हो? तुम कितने दिए जा चुके हो? तुम कितने समर्पित हो चुके हो?
यह भी अनिवार्य नहीं कि तुम गुरु कि प्रतीक्षा करो। प्रतीक्षा अपने आप में एक मात्र पीड़ा है । निरंतर पीड़ा है । और तुम पीड़ा का स्वरुप हो सकते हो । मीरा के शब्दों में 
काह करूँ कुछ बस नहीं मेरो पंख नहीं उड़ जावन की,यह दो नैनां कछु नहीं मानें नदिया बहे जैसे सावन की 
कोई कहियो रे प्रभु आवन की आवन की मन भावन की 
तुम्हे आश्चर्य होगा जब मैं तुम्हे यह बताऊंगा कि प्रतीक्षा में महानता तुम्हारे ही समर्पण की है । और यह एक ऐसे स्थिति है जिस में प्रतीक्षा ही गुरु रूप में परिवर्तित होने लगती है । और यह भी होता है कि प्रतीक्षा ही विकसित हो कर तुम्हारे लिए एक प्रकाश स्तम्भ हो जाए और तुम अपनी प्रतीक्षा में रहते - रहते इतने विशाल हो जायो कि सम्पूर्ण जगत तुम्हे में रहने लगे ।
परन्तु एक शर्त है । तुम इस प्रकार कि प्रतीक्षा तभी कर सकते हो जब प्रतीक्षा का प्रारंभिक लक्ष्य सत्य अथवा शिव हो । 
(गुरुदेव का यह लेख दैनिक कश्मीर टाइम्स में ९ सितम्बर १९९० में प्रकाशित हुआ )

Duggarland in Oil Colour by the 'Master'