श्री सारथी उवाच ..................
प्रभु का भक्त कहता नहीं, सहता है । वह मारता नहीं, हारता है । वह सम्बन्ध बनाता नहीं, सम्बन्धी हो जाता है । वह अपनी ओर कुछ नहीं घसीटता, वह घिसटता चला जाता है । वह हर घटना, दुर्घटना, प्रिय घटना को प्रभु ही का वरदान मान लेता है । और प्रसाद समझ लेता है । वह एक का मित्र नहीं होता क्योंकि वह किसी का भी शत्रु नहीं होता । वह प्रभु को खोजने कहीं नहीं जाता । वह उस में गुम हो जाता है । वह अच्छा और बुरा कुछ नहीं कहता । वह जानता है वह यह सब प्रभु ही से कह रहा है । और प्रभु से क्या कहना है वह प्रभु ही से जान चुका है । वह समस्त सृष्टि को नमस्कार करता हुआ प्रभु ही को नमस्कार करता है । वह सारी सृष्टि का दास बनता हुआ प्रभु का दास बन जाता है ।
प्रभु का भक्त कहता नहीं, सहता है । वह मारता नहीं, हारता है । वह सम्बन्ध बनाता नहीं, सम्बन्धी हो जाता है । वह अपनी ओर कुछ नहीं घसीटता, वह घिसटता चला जाता है । वह हर घटना, दुर्घटना, प्रिय घटना को प्रभु ही का वरदान मान लेता है । और प्रसाद समझ लेता है । वह एक का मित्र नहीं होता क्योंकि वह किसी का भी शत्रु नहीं होता । वह प्रभु को खोजने कहीं नहीं जाता । वह उस में गुम हो जाता है । वह अच्छा और बुरा कुछ नहीं कहता । वह जानता है वह यह सब प्रभु ही से कह रहा है । और प्रभु से क्या कहना है वह प्रभु ही से जान चुका है । वह समस्त सृष्टि को नमस्कार करता हुआ प्रभु ही को नमस्कार करता है । वह सारी सृष्टि का दास बनता हुआ प्रभु का दास बन जाता है ।
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