सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Monday, 7 May 2012


घड़ी साज ----सारथी 

प्रिय! गुरु मात्र वही नहीं जो ज्ञान और ध्यान और विनम्रता की प्रतिमूर्ति हो । गुरु तो संकेत भी होता है । गुरु तो परिवर्तन भी होता है । गुरु तो संकेत और परिवर्तन का कारण भी होता है । यदि तुम निष्ठा में हो, श्रद्धा से युक्त हो और गुरु की अनुकम्पा के प्रतीक्षक हो तो कहीं कोई मानव, जीव, पेड़, पौधा, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, नारी, पिता, वैश्या कोई भी गुरु का स्थान प्राप्त कर सकता है । विल्वमंगल और तुलसीदास के जीवन का आमूल परिवर्तन इस तथ्य का साक्षी है कि गुरु कोई भी, कहीं भी और कैसे भी हो सकता है ।
प्रिय बंधु! एक मेहतरन थी । वह राजकुमारी के महल में कार्य करती थी । एक बार मेहतरन बीमार पड़ी तो उस ने अपने पति को राजकुमारी के महल में कार्य हेतु भेज दिया। राजकुमारी का सौन्दर्य अनुपम था । मेहतर ने देखा तो स्वयं को भुला बैठा। प्रेम में गहरा गिर गया । परन्तु क्या कहे? किस से कहे? स्वयं भंगी और उधर प्रेमिका राजकुमारी । बीमार पड़ गया । और मरणासन्न हो गया । अब मेहतरानी ने पूछा कि इतना क्या जो गम है जो बताते नहीं । मरते मरते उस मेहतर ने बताया- मैंने एक झलक राजकुमारी कि देखी है और आसक्त हो गया हूँ । बस यही रोग है ।
मेहतरानी राजकुमारी के घर गयी और कहा मुझे चाहे प्राण दंड दें। परन्तु मेरा पति आप के कारण मृत्यु शैय्या पर पड़ा है । उस का क्या उपचार करूँ, कुछ समझ में नहीं आता ।
राजकुमारी बहुत मेधावी थी। कहा अपने पति से कहो चिंता न करे । एक झूठ-मूठ का प्रपंच उसे रचना पड़ेगा । नदी किनारे धूनी रमा का नाम लेने बैठ जाए । जब उस की चर्चा चलेगी । लोग दर्शन को जाने लगेंगे । तो मैं महाराज से पूछ कर दर्शन को जाऊंगी । 
मेहतरानी ने बात पति को सुनायी। पति के प्राण लौट आये । आव देखा न ताव (न आव देखा न उस की गर्मी) और कपड़े फूँक कर, भस्म रमा कर नदी किनारे धूनी लगा कर बैठ गया । प्रसिद्धी फैलने लगी । और फैलते फैलते महाराज तक पहुँच गयी । राजकुमारी पिता से अनुमति ले कर मेहतर की कुटिया में पहुंची । मेहतर समाधि में था । वह आँखें मूंदे ध्यान में रहा । रहा । और रहा । राजकुमारी को अपना परिचय देना पड़ा मैं वही राजकुमारी हूँ जिस को देख कर तुम पगला गए थे । और जिस के कारण तुम ने यह भेष बनाया है । और यह ध्यान यह भक्ति और यह साधुत्व का खेल रचाया है । मेहतर जो अब संत था उठ कर राजकुमारी के चरणों में गिर गया । और कहा तुम तो मेरी गुरु हुई । तुम्हारे कारण मुझे शब्द की प्राप्ति हुई । प्रभु चरणों में मन लगा । तुम तो गुरु हो । तुम तो मेरी माता हो । तुम धन्य हो ।
यह एक सुंदर कथा है परिवर्तन के कारण की। कारण तो कोई भी और कभी भी संभव हो सकता है । बस देखना यह है कि तुम कितने तैयार हो? कितने आशिक हो? तुम कितने मीरा और कैस हो? तुम कितने दिए जा चुके हो? तुम कितने समर्पित हो चुके हो?
यह भी अनिवार्य नहीं कि तुम गुरु कि प्रतीक्षा करो। प्रतीक्षा अपने आप में एक मात्र पीड़ा है । निरंतर पीड़ा है । और तुम पीड़ा का स्वरुप हो सकते हो । मीरा के शब्दों में 
काह करूँ कुछ बस नहीं मेरो पंख नहीं उड़ जावन की,यह दो नैनां कछु नहीं मानें नदिया बहे जैसे सावन की 
कोई कहियो रे प्रभु आवन की आवन की मन भावन की 
तुम्हे आश्चर्य होगा जब मैं तुम्हे यह बताऊंगा कि प्रतीक्षा में महानता तुम्हारे ही समर्पण की है । और यह एक ऐसे स्थिति है जिस में प्रतीक्षा ही गुरु रूप में परिवर्तित होने लगती है । और यह भी होता है कि प्रतीक्षा ही विकसित हो कर तुम्हारे लिए एक प्रकाश स्तम्भ हो जाए और तुम अपनी प्रतीक्षा में रहते - रहते इतने विशाल हो जायो कि सम्पूर्ण जगत तुम्हे में रहने लगे ।
परन्तु एक शर्त है । तुम इस प्रकार कि प्रतीक्षा तभी कर सकते हो जब प्रतीक्षा का प्रारंभिक लक्ष्य सत्य अथवा शिव हो । 
(गुरुदेव का यह लेख दैनिक कश्मीर टाइम्स में ९ सितम्बर १९९० में प्रकाशित हुआ )

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