सारथी कला निकेतन (सकलानि)

घड़ी साज ----सारथी
मौन - चुप रहना किस के लिए अच्छा है, कह नहीं सकता । परन्तु हमारे समाज में चुप रहने वालों को भी योगी, ऋषि और साधू और संत कहना शुरू कर देते हैं और चुप रहने वाला आदमी चुप रह कर रहस्य बनाये रखता है कि वह मूर्ख नहीं है, वह गूंगा, चोर और दण्डित आदमी नहीं है । चुप सच ही कमाल की साधना है और प्राप्ति के मामले में तो यह कहा जा सकता है कि यदि आदमी चुप हो जाए तो खुदा भी आ कर पूछता है - कहो भक्त ! क्या बात है ? बोलते क्यों नहीं ?
परन्तु पुत्र ! मैं एक पाखंडी 'चुप्पू' पीत वस्त्र धारी से मिला । लोग उस की प्रशंसा कमाल करते थे परन्तु यह कोई नहीं बताता था कि वह मौन है भी या नहीं । स्वयं जा कर उस से मिलना पड़ा और मिल कर पहला प्रश्न मैंने पुछा कि साधू महाराज आप अपनी पूजा करवाते चले जा रहे हैं, आप चुप हैं भी या नहीं ?
मेरा प्रश्न पूछना ही था कि वहां तूफ़ान मचा और मुझे जो गालियाँ पड़ी मैं बता नहीं सकूँगा । हर और से आवाज़ के बरछे मुझ पर बरसने लगे क्योंकि वहां वे तमाम लोग थे जिन्होंने उस को कभी भी बात करते हुए नहीं देखा था । अब एक समस्या थी, मुझे उस चुपचाप साधक और उस के हितैषी सज्जनों से यह कहना था कि वह चुप नहीं है । प्रिय बंधू! यह सच ही मौन नहीं था । न कभी हो सकता था । और न ही कोई बातों को वाक् को त्याग देने से चुप हो सकता है । क्योंकि बात तो भाव और विचार को शरीर देना हुआ । भाव और विचार सूक्षम हैं और उन्ही को जब स्थूल रूप दिया जाए तो प्रसंग बनता है । यदार्थ में बात और प्रसंग तो भाव और विचार ही हुए और यह असंभव है कि वह दिखने वाला मौन धारक भाव तथा विचारों पर इतना नियंत्रण किये हुए था कि इन्हें प्रयोग में लाये बिना जी रहा था । तो मैंने कुछ प्रश्न उस से किये जिन का उत्तर देने के स्थान पर वह अति क्रुद्ध हुआ ।
प्रिय बंधू ! मानव कि जीभ ही बात नहीं करती है । सब से पहले संकेत बात करते हैं । फिर कल्पना, विचार, भाव और तर्क आदि बात करते हैं । फिर कंठ बात करता है । फिर जीभा मूल बात करता है । फिर तालू, दन्त और ओष्ठ बात करते हैं । तुम जब रात्रि घिरने पर सोने के लिए तकिये पर सिर रखते हो, तो निद्रा में विलय तक तुम बातें ही बातें करते चले जाते हो । वह बातें तुम्हारे अपने साथ ही होती हैं । तुम स्वयं ही को सुनाते हो । परन्तु वह वाक्य ही होते हैं और उस समय कोई सुन नहीं रहा होता । किसी को ज्ञान भी नहीं होता कि तुम कुछ कह रहे हो अथवा कह सकते हो और उसी भाषा में भगवान और प्रभु से बातें और अपराध का श्री गणेश होता है । मात्र ऐसा ही नहीं है । जब तुम्हे भूख अथवा प्यास लगती है तो तुम अपने अंगों को आज्ञा देते हो कि वह तुम्हारे लिए दूध, चाय का गिलास, भोजन, फल उठायें । फिर तुम मुंह से कहते हो कि खुले और तुम खा सको । यदि इन सब क्रियाओं को कहीं पर, बल्कि बहुत सारे स्थानों पर इच्छा शक्ति कहा गया है तो उपनिषद कहता है -
इच्छा जायते सृष्टि । सृष्टि जायते स्थापितम। स्थापितम जायते प्रलयम। तो यदि तुम इच्छा करते हो तो उस की सृष्टि अवश्य होगी । वह स्थूल रूप में अवश्य आयेगी । कुछ शरीर देह रूप -आकार धारण करेगी और बात भी और कुछ नहीं है सृष्टि ही है । और बात का सूक्ष्म रूप इच्छा ही है । परन्तु बंधू ! तुम हर क्षण बात करते हो । दूसरे अर्थों में इच्छा करते हो । भगवद भजन की इच्छा भी बात ही है और योग की इच्छा भी बात ही है । और बंधन, मुक्ति, मोक्ष कि इच्छा भी बात ही है । और आदमी बात मृत्यु तक करता चला जाता है ।
इस के विपरीत मेरा विश्वास है कि प्रभु के नाम का जप बात नहीं है । यदि नाम ही भाव से ले कर वाक् तक यात्रा कर रहा हो तो वह सृष्टि का आह्वान नहीं है । वह सृष्टि के खंडन का आह्वान है । जप, तप, सुमिरन, साधना, ध्यान और कीर्तन यह सभी प्रभु के निमित्त, प्रभु के दर्शन हेतु, मोक्ष और मुक्ति हेतु, सांसारिक बन्धनों को काटने हेतु और त्याग तथा वैराग्य हेतु ही अपनाए जाते हैं । और जब प्रभु का नाम हर श्वास में निश्वास और प्रश्वास दोनों में चलने लगे तो आदमी बात, वाक्य. वाक् और इच्छा और सृष्टि इन सब में से स्वयं को निकाल लेता है । मैं यही कहूँगा कि जो राम के भजन में लगा है, जो भजन में लीन है , जो प्रभु कि दासता करना चाहता है, जो अकाल पुरख के सिमरन में व्यस्त है, जो प्रभु येशु के सुमिरन में आंसू वहा रहा है वह मौन है । वह चुप है । जो दुखों के इस समंदर से पार उतने के लिए भजन, कीर्तन और परोपकार में लगा है वही मौन है । वही खामोश है जो असहाय की सेवा में लगा है और फलस्वरूप दीन दुखी के दुःख का निवारण चाहता है, वही मौन है । गीता में यदि प्रभु ने कहा है कि तुम्हे कर्म का अधिकार तो देता हूँ परन्तु फल मुझ पर छोड़ दो तो सारांश मौन रहने का ही हुआ । इच्छा रहित कर्म ही मौन है और मौन ही भजन ।
(गुरुदेव का यह लेख दैनिक कश्मीर टाइम्स में 29 अगस्त 1990 में प्रकाशित हुआ )
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