सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Monday, 30 July 2012


घड़ी साज ----सारथी 
तुम्हारे सामने दो ही विकल्प हैं। या तो मास्टर के साथ रहो । जो कुछ भी वह कहे वही करो । और कहीं कुछ न करो । यूं रहो की मास्टर ही तुम में रहे । तुम न रहो । तुम रहते हुए भी न रहो । यही साधना का शुभारम्भ है । मास्टर के साथ होते हुए यदि तुम हर क्षण मास्टर ही के बारे में अथवा मास्टर ही के कहे के बारे में सोचना चाहते हो , ऐसे होना चाहते हो तो इस में भी समय लगेगा । यहाँ समय से अर्थ अवधि ही है । परन्तु अब वह अवधि तुम्हारे शरीर अस्तित्व की होगी । तो यूं कह लो की क्षण क्षण चिंतन पर पहुँचने के लिए तुम्हारा सारा शरीर लग जाएगा । खर्च हो जाएगा । और जब तक खर्च नहीं हो जाता तुम करने की, होने की, हो जाने की बात छोड़ोगे नहीं । जैसे तुम्हे यह कह दूं कि तुम जीवित भी रहो और मेरे निमित्त प्राण त्याग दो । करो ऐसा । करोगे ?

प्रिय पुत्र! कई वर्ष पूर्व मेरे मास्टर ने यही बात मुझ से कही थी । अब भी वही कह रहा है । बात वही है, शरीर और वाणी बदल गए हैं । और कहा था -- पहले । जो कुछ मैं कहता हूँ बिलकुल बैसा हो पाना तो असंभव है । उस का कारण तुम्हारा शक्ति लगाना है । तुम जब भी शक्ति लगाओगे तो व्यय होगे । व्यय हो कर थकोगे । थक कर संशय में पड़ोगे । संशय में पड़ कर, हम दोनों एक साथ, एक हो स्थान पर रहते हुए अलग अलग, बहुत दूर रहेंगे । । संशय एक ऐसा शत्रु है जो क्षणों में आदमी को आदमी से कई सौ प्रकाश वर्ष दूर ले जाता है । यदि तुम शक्ति नहीं लगाते, सहज रहते हो, और सोचते हो जो कुछ मैंने कहा है वह भी करोगे और साथ साथ जो कुछ है वह भी होता रहेगा, तो विश्वास करो कि मेरे कहे के अतिरिक्त जो कुछ भी तुम में होता है, घटता है उस के लिए मैं तुम्हारे पूरी पूरी सहायता कर सकता हूँ । और तुम देखोगे कि तुम मेरे अति समीप आ गए हो, दूरी कहीं भी नहीं रही । जो कुछ मैं बता रहा हूँ उस से भी सत्य ही घटित होता है, और तुम्हारे भीतर जो पहले ही से घटित हो रहा है वह भी कहीं न कहीं किसी सत्य से बंधा हुआ है । अब तुम्हे प्रयास यह करना है कि किसी भी विधि से जब भी कुछ और तुम्हारे अन्त:करण में आये तो सब कुछ छोड़ कर उसी के पीछे हो लो । बंधू ! यह एक सत्य है कि जब साधना की अग्नि जला कर उस में जलना तपना और शुद्ध होना चाहते हो तभी अग्नि को बुझाने, विघ्न डालने कितना कुछ चला आता है । भीड़ सी मस्तिष्क में लग जाती है और वास्तविक बिंदु तो जैसे लुप्त ही हो जाता है । और भीड़ भी उस समय लगती है जिस समय कुछ विशेष चिंतन करने के लिए कहा गया हो । यह मामला तो ऐसा ही हुआ जब तक जेब में अथवा घर में कौड़ी नहीं है, किसी को भी तुम्हारी जेब अथवा घर का कदापि ज्ञान नहीं होता । परन्तु जब भी तुम किसी बैंक में धन आदि जमा करवाना प्रारंभ करदो तो तुम्हे बहुत सारे लोग जानने लगेंगे । विशेषकर चोर डाकू जेब कतरे । कुछ जेब कतरों को तो तुम्हारा खाना-पीना, सोना- जागना, आना-जाना हर किसी कार्यक्रम का सुराग मिल जाता है । यह है कमाल एक फकीर बनने का दूसरा अमीर बनने का ।

तो तुम यह समझ लो कि जप, नाम और शब्द यह सारे ही धन हैं । जब तक तुम्हारे पास नहीं हैं, किसी चोर डाकू अथवा जेब कतरे (अहंकार, क्रोध, काम और वासनादि ) को तुम्हारा कुछ पता नहीं होगा । और जब तुम ध्यान शुरू करोगे यह जेब कतरे आ धमकेंगे । तभी एक मशवरा दिया है कि जब तुम चिंतन करो और यह जेब कतरे भिन्न भिन्न भोग, वस्तुएं, स्थितियां प्रस्तुत करना शुरू करें तो चिंतन को अपने मस्तिष्क की स्मृति के खाने में अथवा अचेतन मन की तह के नीचे डाल दो और स्वयं चेतना सहित, विवेक सहित, अहंकार, क्रोध, वासना और लोभ के साथ हो लो । और उन की मर्जी पूछो । हो तो यूं कि उस की चरम सीमा तक भागते चले जाओ और तुम देखोगे कि हर बार लौट आ आ कर, तंग पड़ कर एक न एक दिन उन के साथ जाना ही छूट जाएगा ।

और जब यह स्थिति आ जाए कि अपने ही अहंकार पर तुम्हे स्वयं ही हंसी आने लगे । अपनी वासना पर तुम्हे स्वयं ही लज्जा का आभास होने लगे और जब अपने ही लोभ और मोह को होंठो पर जीभ घुमाते देख कर तुम्हे उन पर दया आये या कि हंसी तो तुम मास्टर के साथ साथ चलना शुरू कर दोगे । मास्टर के कहने कि प्रतिक्रिया अक्षण ही तुम्हारे भीतर होने लगेगी । तुन्हारे अन्त:करण में पहले से ही बहुत कुछ भरा हुआ धुंधला होने लगेगा और मास्टर साफ़ होने लगेगा ।
 ·  ·  · July 22 at 12:08am

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