सारथी कला निकेतन (सकलानि)
ग़ज़ल
(गुरुदेव 'सारथी' जी )
नक्श थे जितने जनूं के सब पुराने हो गए
शौक़ वालों के तो मक़तल में ठिकाने हो गए
बाँध कर सर पर क़फ़न जाते थे सू - ए- दार भी
इश्क़ था दार -ओ - रसन थे क्या ज़माने हो गए
खुश हुआ कितना ज़माना मैं हुआ ज़रदार जब
दर्द जो आलम के थे मेरे खजाने हो गए
नाज़ जिस को अपने तन पर था वही मरता रहा
जो फ़िदा तुम पर हुआ उस के फ़साने हो गए
मौत का खटका रहा जब तक संभाला जिस्म को
ज़िन्दगी दे दी तो जीने को ज़माने हो गए
'सारथी' कैदी रहा, आफत में बीती हर घड़ी
आई आज़ादी तो सब मौसम सुहाने हो गए
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