सारथी कला निकेतन (सकलानि)
ग़ज़ल
(गुरुदेव 'सारथी' जी )
जिस्म से निकला जो मैं तो इक समां हो जाऊँगा
शौक़ गर मुझ से छुटा तो ला मकां हो जाऊँगा
क़त्ल की साज़िश तुम्हारी रंग लायेगी ज़रूर
मैं वतन को छोड़ दूंगा इक जहाँ हो जाऊँगा
साज़िश -ए-लम्हात है तारीकियों का हूँ असीर
रोशनी के रास्ते फिर भी बयां हो जाऊँगा
इश्क़ मिट्टी का है मुझ में हादिसा कुछ भी नहीं
तुम मिटायोगे यहाँ पैदा वहां हो जाऊँगा
गर सफ़र में कश्ती -ए -अहसास को खतरा हुआ
खुद हवा बाजू तो खुद ही बादबां हो जाऊँगा
"सारथी" अब जिस्म की कोई ज़रुरत हो न हो
आस्मां की फ़िक्र थी अब आस्मां हो जाऊँगा
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