सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Friday, 31 August 2012


श्री सारथी उवाच ..................
"परम को प्रभु को 'प्रकाश का सागर' भी कहा गया है । और मुझे विश्वास है कि यदि एक कलाकार, चाहे वह कवि है, गद्यकार है, शिल्पी है, नर्तक है, अनुसन्धानकर्ता है अथवा चित्रकार है, यदि वह सत्य के लिए भटकता है । सत्य ही की खोज में रहता है और प्रकाश का साक्षात करने का पिपासु है तो वह भक्त है । भक्त ही है । और जो भी कलाकार सूक्ष्मभावी नहीं है , विनम्र नहीं है और सत्य का उपासक नहीं है वह उस विनम्र, सूक्षम और सत्य रुपी प्रकाश को जन्म जन्मान्तर देख नहीं पाता। न वह स्वयं को प्रकाशमय कर सकता है, न ही अपनी रचना द्वारा औरों को कोई अनुभूति ही दे सकता है। यही स्थिति भक्ति और भक्त, उपासना और उपासक की है । यदि उपासक उतना ही सूक्षम नहीं हो जाता जितना कि सत्य है, जितना कि प्रकाश है वह प्रकाश को न तो अनुभव ही कर सकता है और न ही दर्शा ही सकता है । साधना में आह्वान तथा आलंबन का विशेष महत्व है ।

तुम स्थूल हो । देह स्थूल है । तुम्हारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार यह सभी स्थूल पदार्थ हैं । मन, बुद्धि और चित्त भी स्थूल हैं और प्रकाश एक बहती हुई लय है । और प्रकाश एक निरंतर बहती हुई लय है । बहती हुई सूक्ष्म लय । और यही लय सृष्टि और सृजन की लय है । यदि साधक और कलाकार सूक्ष्म हो कर, लय स्वरुप और विनम्र हो कर अदृश्य और अस्तित्वहीन नहीं हो जाते वे प्राप्ति का कोई दावा नहीं कर सकते । "
 ·  · August 14 at 9:17am

Thursday, 30 August 2012


श्री सारथी उवाच ..................

मैं यह कहूँगा कि यदि केंद्र बिंदु दृढ़ता से पकड़ लिया जाए तो किसी भी समय गोलाकार बनाया जा सकता है । परन्तु यदि केंद्र बिंदु खोजा नहीं गया अथवा गलत, ढीला और दुर्बल खोजा गया है तो जितने भी गोलाकार और गोल आकृतियाँ बनेंगे वह विकृत होंगी । यदि केंद्र है तो आकृतियाँ हों चाहे न हों, कोई अंतर नहीं पड़ता । परन्तु यह सर्वदा असंभव है कि केंद्र न हो और आकृतियाँ और गोलाकार हों ।
 ·  · August 19 at 12:29am

    • Joginder Singh कबीर जी का कथन है:
      चलती चाकी देख कर दिया कबीरा रॉय,
      दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय,
      चाकी चाकी सब कहें कीली कहे न कोय,
      जो कीली से लाग रहे बाल न बांका होय...
      August 19 at 12:48am ·  · 2

    • Kapil Anirudh अति सुंदर.......

Monday, 27 August 2012


घड़ी साज ---- गुरुदेव सारथी जी


जब तुम तैयार ही नहीं हो, तो गुरु को क्या करोगे ? जब तुम स्वयं ही डांवाडोल हो, स्वयं में ही तुम्हे विश्वास नहीं है, दृढ़ता नहीं है, तुम्हे अपने ही कुछ होने पर संशय है तो गुरु आकर क्या करेगा? यह एक सिद्धांत है जिस को तुम्हे अपनाना होगा कि जब तक स्वयं में थोड़ी बहुत भी गलत या सही चेतना का आभास होता रहेगा, तुम्हे हर गुरु जड़ ही लगेगा । जब तक तुम स्वयं को थोडा बहुत विद्वान समझते रहोगे तब तक तुम्हे गुरु मूर्ख लगेगा। जब तक तुम स्वयं को 'कुछ' समझते रहोगे गुरु तुम्हे "कुछ नहीं" दिखाई देगा ।

इस का कारण है । संसार में जितनी भी उपलब्धियां आज तक हुई हैं वे सारी साधक के अपने परिश्रम, अपनी लगन और अपने संघर्ष से हुई है । गुरु का महत्व प्रकाश का है । रास्ता अंधकारपूर्ण हो तो प्रकाश की अत्याधिक आवश्यकता पड़ती है । अन्धकार में तुम पग पग पर भटकते हो । ठोकर भी खाते ही हो । तो प्रकाश अनुपस्थित है । प्रकाश हो जाने की स्थिति में, परिस्थिति में, वातावरण में कुछ नहीं बदला। केवल इतना हुआ कि कौन वस्तु क्या और कैसी है और कहाँ पड़ी है , यह सब कुछ साफ़ दिखाई देने लगा है । तुम्हारे भीतर, तुम एक अँधेरे कमरे के समान हो और उस में तुम्हे स्वयं ही घूमना है । भीतर इतनी भयानकता है कि तुम भय के मारे अपने ही भीतर घुस नहीं सकते । भीतर झांकते हो तो तारीकी (अँधेरा) है, तुम्हे बस थोडा सा ज्ञान है कि उस कमरे में डरावने लोग रहते हैं । प्राय: वह तुम्हे अपने ही स्वार्थ, कामनाएं, वासनाएं, अभिलाषाएं तुम्हारे अपने ही काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकारदि ही हैं । परन्तु यह कमरा तुम्हारा ही है और तुम स्वामी हो कर इसकी और मुंह नहीं कर सकते । यह एक त्रासदी है । विघटन है। और दुखांत तुम्हारा है ।

गुरु केवल इतना ही करता है कि रौशनी जलाकर तुम्हारे अपने ही कमरे को प्रकाशमान कर देता है । और तुम देख सकते हो कि कहाँ कौन सा चोर बैठा है । यह तुम्हारा अपना कार्य है । गुरु को तुम्हारे घर से कोई गर्ज़ नहीं है जब तक कि तुम गुरु को इतना विश्वास नहीं दिलाते हो कि गुरु के बिना तुम बुरी मौत मरने वाले हो । और गुरु के मिलने पर ही तुम जीवन को प्राप्त हो सकते हो । और तुम एक उच्च कल्पना और धारणा के स्वच्छ जीवन, उस के द्वारा संघर्ष के लिए कटिबद्ध हो सकते हो ।

एक बात याद रखने की है पुत्र ! कोई यदि तुम्हे यह कहता फिरता है कि वह तुम्हारा उद्धार करेगा, उसे गुरु धारण करो । तो ऐसे महत्वकांक्षी आदमी को शिष्य भी बनाना शिष्य शब्द का अपमान है ।

एक बहुत ही प्रासंगिक कथा है । अति सुंदर! एक जागीरदार के भक्त नौकर ने कहा कि जागीरदार जी- आप के पास सब कुछ है । अच्छे से गुरु को धार कर जीवन सफल क्यों नहीं कर लेते ? जागीरदार के मन को बात लगी । चाबुक पकड़ी। घोड़ी पर चढ़ा । और दादू संत की कुटिया में पहुंचा । वहां शिष्यों से पुछा -महात्मा दादू, कहाँ हैं ? उत्तर मिला राह में कंकर पत्थर और कांटे चुन रहे हैं । जागीरदार लज्जित हुआ, कहा - मैं तो उन को गुरु धारण करने आया था । अब कौन सा मुंह ले कर उन के पास जाऊं । मैं आती बार उन्हें पांच सात चाबुक मार आया हूँ । उन से उन्ही का पता पूछा था । वह बोले नहीं । मुझे क्रोध आया । मैंने जड़ दी।

-हमारे गुरु दादू बड़े दयालु हैं । क्षमा की प्रतिमूर्ति हैं । आप जाएँ । वे आप की मनोकामना पूरी करेंगे । जागीरदार लौट कर गया और दादू जी के चरण पकड़ कर बोला - महाराज मुझे क्षमा करें । मैं तो आप को गुरु धारण करने आया था । परन्तु आप को पीट दिया ।

-तुम ने कुछ नहीं किया, दादू बोले । - एक आदमी चार आने की हंडिया खरीदता है तो बीस बार ठनका बजा कर । तुम तो गुरु धारण करोगे । परीक्षा लो

पुत्र! गुरु को परखो । अंतिम बिंदु तक परखो । परीक्षा लो।
उस के ज्ञान और धैर्य की । क्योंकि तुम अपना सर्वस्व उसे सौंपने वाले हो ।
 ·  ·  · August 11 at 11:29am
    • Surbhi Kesar wah.. it takes a mahapursh, a divine soul, the greatest of gurus to say that. i feel myself blessed to be the disciple of this great Soul. Wah
      August 11 at 2:17pm ·  · 2
    • Parth Shradhanand शिष्य तो ऐसा चाहिए जो गुरु को सब कुछ दे
      गुरु तो ऐसा चाहिए जो शिष्य से कछु न ले ...........संत कबीर
    • Kapil Anirudh गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट
      अंतर हाथ सहार दे बाहर बाहे चोट .................. संत कबीर जी
      August 12 at 8:25am ·  · 1
    • Parveen Sharma गुरु परकाश है जो हमारे भीतर के तम को हरने आते है और ज्ञान बन कर पल पल हमारे साथ हो जाते है
      August 12 at 2:21pm ·  · 2
    • Kapil Anirudh ati sunder
    • Joginder Singh ईश्वर गुरुः आत्मेति मूर्तिभेद विभागिनः -- अर्थात ईश्वर, गुरु और आत्म इन में भेद केवल स्थूल दृष्टि से ही दिखाई देता है, वास्तव में कोई भेद है नहीं...
      August 15 at 11:08pm ·  · 2
    • Kapil Anirudh अति सुंदर .............. सत्य वचन

Sunday, 26 August 2012

श्री सारथी उवाच ..................

...... "तुम क्यों न ऐसी स्थिति के लिए साधना करो, जो न दुःख की स्थिति है और न ही सुख की स्थिति है। बल्कि दोनों के मध्य की स्थिति है । एक ऐसा बिंदु, एक ऐसा मुकाम जिस पर पहुँच कर यह अहसास हो कि दुःख यहाँ पर समाप्त हो गया है, और यहीं से सुख प्रारंभ होने वाला है । और जहाँ पर सुख समाप्त हो गया है, और दुःख प्रारंभ होने को है । तुम ऐसी स्थित पर पहुँच सकते हो जहाँ न सुख हो और न ही दुःख हो । और फिर तुम्हे एक नए जीवन का, एक नए विश्व का और एक नए मानव का साक्षात्कार हो । और यह स्थिति काफी सहज है । तुम्हारे जितने दुःख हैं उन में से सब से बड़ा दुःख पहचानो । उसे नाम दो । और उस कि तलाश करो । और तलाश करने पर तुम्हे ज्ञान होगा कि जीवन में सब से बड़े दुःख का निर्माण और किसी ने नहीं किया, स्वयं तुम ने ही किया है । तो दुखों कि फैक्ट्री मत बनो दुखों को manufacture मत करो ।"

Wednesday, 22 August 2012

श्री सारथी उवाच ..................

"परम को प्रभु को 'प्रकाश का सागर' भी कहा गया है । और मुझे विश्वास है कि यदि एक कलाकार, चाहे वह कवि है, गद्यकार है, शिल्पी है, नर्तक है, अनुसन्धानकर्ता है अथवा चित्रकार है, यदि वह सत्य के लिए भटकता है । सत्य ही की खोज में रहता है और प्रकाश का साक्षात करने का पिपासु है तो वह भक्त है । भक्त ही है । और जो भी कलाकार सूक्ष्मभावी नहीं है , विनम्र नहीं है और सत्य का उपासक नहीं है वह उस विनम्र, सूक्षम और सत्य रुपी प्रकाश को जन्म जन्मान्तर देख नहीं पाता। न वह स्वयं को प्रकाशमय कर सकता है, न ही अपनी रचना द्वारा औरों को कोई अनुभूति ही दे सकता है। यही स्थिति भक्ति और भक्त, उपासना और उपासक की है । यदि उपासक उतना ही सूक्षम नहीं हो जाता जितना कि सत्य है, जितना कि प्रकाश है वह प्रकाश को न तो अनुभव ही कर सकता है और न ही दर्शा ही सकता है । साधना में आह्वान तथा आलंबन का विशेष महत्व है । 

तुम स्थूल हो । देह स्थूल है । तुम्हारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार यह सभी स्थूल पदार्थ हैं । मन, बुद्धि और चित्त भी स्थूल हैं और प्रकाश एक बहती हुई लय है । और प्रकाश एक निरंतर बहती हुई लय है । बहती हुई सूक्ष्म लय । और यही लय सृष्टि और सृजन की लय है । यदि साधक और कलाकार सूक्ष्म हो कर, लय स्वरुप और विनम्र हो कर अदृश्य और अस्तित्वहीन नहीं हो जाते वे प्राप्ति का कोई दावा नहीं कर सकते । "

Sunday, 19 August 2012


घड़ी साज ----सारथी
तुम में आदर मान की भावना बड़ी प्रबल है । आदर को स्थापित करने और मान प्राप्त करने के लिए तुम क्या नहीं करते। कई बार तुम कुर्बानी भी दे देते हो, धन की । धन छोड़ देते हो परन्तु सत्कार और सम्मान स्थापित कर लेते हो । कई बार तो तुम सादर भूखा रहना भी सहन और स्वीकार कर लेते हो ।

आदर शब्द बड़ा abstract शब्द है । मेरी समझ में कभी नहीं आया। यह क्या होता है ? क्यों होता है ? और कैसे होता है ? मनुष्य आदर प्राप्त कने के लिए क्या क्या पापड बेलता है ? और आदर सत्कार न मिले तो मानव कैसे शौक करता है, विलाप करता है ?आदर और निरादर को ले कर मानव ने कैसे भयंकर युद्ध किये हैं ? आदर को प्रिय जानते हुए जान तक की बाजी लगा दी । आदर से युक्त और सम्मानित आदमी समाज में श्रेष्ठ समझा जाता है । यह एक व्याकरण है theory है जो बहुत ही प्रचलित हो गयी है । पहले तो अच्छे और परस्वार्थ, परमार्थ और उपकार करने वाला व्यक्ति कर्म निष्ठ और ज्ञान विज्ञान केन्द्रित मनुष्य अपना आदर समाज में बना सकता था । यह परम्परा आज भी है । मानव के पतन का यह भी एक कारण है कि वह आदर ग्रहण करते हुए सच्चे और झूठे अर्थात किसी भी प्रकार के मार्ग को अपनाने में संकोच नहीं करता ।

आदर एक नशा है । बार बार आक्रमण करने वाला नशा । बार बार सुलाने और जगाने वाला नशा । बार बार मानव को सत्य से पलायन की ओर ले जाने वाला नशा । मानव को पागल बना देने वाला नशा । और यहाँ तक कि आदमी को किसी का वध करने को उत्तेजित करने वाला नशा ।

आदर का प्रारूप बनाने अथवा समझाने के लिए इसे दो पक्षों में देखना महत्वपूर्ण होगा और फिर बात आगे बढ़ेगी । आदर का एक चित्र यह संभव है कि आदर स्वयं ही में एक पूजा, एक अर्चना और वंदना में परिवर्तित हो जाए । यदि किसी महापुरुष ने परमार्थ के मार्ग पर चल कर जन- कल्याण, लोक -कल्याण अथवा विश्व- कल्याण हेतु वृहत विपुल कार्य किया है तो वह कार्य उसे योग्य एवं पूज्य एवं श्रद्धा का पात्र निर्मित करता है, स्थापित करता है । और हर वह व्यक्ति जो समाज, देश, राष्ट्र और विश्व के प्रति जागरूक है, ऐसे महापुरुष जो स्वयं को और विश्व को किसी बहुत बड़े सत्य से जोड़ना चाहते हैं उन में तपस्या तथा साधना का अंश अधिक होने के कारण या तो वे आदर से परे हो जाते हैं अथवा आदर मिलते हुए भी उसे ग्रहण करने और अपने अस्तित्व के ऊपर पहनने से संकोच करते हैं ।

दूसरा पक्ष आदर का बड़ा भयानक है । कोई व्यक्ति परोपकारी न हो, समाज सेवी न हो, संत महात्मा न हो । और आदर की कामना निरंतर उस के मन में बनी रहे । फिर वह उचित अनुचित ढंग से आदर बटोरने का और आदरणीय होने का प्रयत्न करे ।

आधुनिक युग में दो प्रकार के आदरणीय लोग दृष्टिगोचर होते हैं । प्रथम वे हैं जिन के साथ जनसंख्या और बहुमत है । उन का आचरण, नैतिकता और करतब चाहे कैसे हों, वे आदरणीय माने जा रहे हैं । दुसरे वे जिन के पास धन है । जो संसार की हर वस्तु धन के बल पर खरीदने की क्षमता रखतें हैं । वे खरीदते हुए सोफे, बीबी और हवेली की तरह आदर भी खरीद कर रख लेते हैं और समय समय पर उस का प्रयोग करते हैं ।

प्रिय पुत्र! यह त्रासदी है । समाज का दुखांत है कि ऐसे लोग भक्त भी हो जाते हैं । भगवान के प्यारे भी और संतों महात्माओं के लिए आदरणीय भी हो जाते हैं । आज के संसार कि सामूहिक धारणा यह है कि जिस व्यक्ति के पास धन है, संपत्ति है, बहुमत है, वही भक्त भी है । महात्मा भी और प्रभु भी ।

परन्तु प्रिय! इसी समाज में एक समुदाय ऐसा भी रहता है आया है, रह रहा है और रहता रहेगा जो सत्य जानता है व् जो आदर और अनादर दोनों का अर्थ जानता है । जो आदर बटोरता नहीं परन्तु आदरणीय है । और जिसे यह ज्ञान है कि आधुनिक युग में यदि मानव किसी भाव का शत्रु है , जिस का वध किसी भी कीमत पर कर डालना चाहता है और जिसे वह कदापि सहन नहीं कर सकता वह है निरादर का भाव ! अपमान !

प्रिय श्री! आज 'काम' का कारण निरादर है । क्रोध का कारण निरादर है । मोह, अहंकारदि और लोभ का कारण निरादर ही है का अपमान ही है ।

एक पहेली सुलझाना चाहता हूँ । तुम्हारे लिए एक मार्ग प्रशस्त करना चाहता हूँ । यदि निरादर का मूल 'काम' है तो चिकित्सा करो । यदि क्रोध, अहंकार और लोभ का मूल निरादर है तो चिकत्सा करो ।और चिकत्सा के तौर पर निरादर और अपमान का त्याग कर दो । इन भावों का, चुभन का, हीनता का और विकार का त्याग । बहुत आसान है कि यदि अपमान और निरादर को सहन कर लेने से यह पाँचों विकार, यह पाँचों शत्रु भागते हैं तो मंहगे नहीं हैं । यदि निरादर और अपमान को पी जाने से, सहन करने से, सामान्य भाव और साधारण घटना कि भांति लेने से यम और नियम दोनों को पहचानने में सहायता मिलती है तो यह एक साधना कि पहली सीढ़ी होगी, ऐसी सीढ़ी जो बहुत दृद है पक्की है ।

तुम आओ । और अभी से, इसी क्षण से अनादर, अपमान और झूठे मान को फाड़ फेंकना आरम्भ करो । आदर को भी स्थान न दो । और अपने भीतर आदर के प्रति जो मोह है, जो आकांक्षा है, यदि उसे भी अंतस से हटा दो तो तुम्हे परम पद कि प्राप्ति 'सहज' अवस्था की प्राप्ति शीघ्र हो सकती है ।
 ·  ·  · August 8 at 10:42am
    • Joginder Singh वास्तविकता में आदरणीय लेख हमारे साथ बांटने के लिए धन्यवाद मित्र!
    • Kapil Anirudh हार्दिक आभार,मित्र!
    • Parth Shradhanand ati sunder
      August 9 at 9:12am ·  · 1
    • Parth Shradhanand मान अपमान दोउ घर त्यागी
      निकसी प्रेम गली ......मीरा जी
      August 9 at 9:17am ·  · 1
    • Raghav Sharma मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे की दाना खाक में मिलकर गुलेगुल्ज़र होता है
      August 9 at 7:19pm ·  · 1
    • Jai Deep Bakshi apmaan ka zehar mujhe zahreela n bana sake main is ka abhyaas karunga
    • Kapil Anirudh is se sunder baat aur kya ho saktee hai...
    • Parth Shradhanand अनाभ्यासे विषम शास्त्रं ... ऐसा शास्त्र जिसे हम ने रट लिया है परन्तु अभ्यास में नहीं लाया वह विष समान हो जाता है, क्योंकि उस का उपयोग हम दूसरों को नीचा दिखने के लिए करते है स्वयं के अभ्यास के लिए नहीं.....