सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 22 August 2012

श्री सारथी उवाच ..................

"परम को प्रभु को 'प्रकाश का सागर' भी कहा गया है । और मुझे विश्वास है कि यदि एक कलाकार, चाहे वह कवि है, गद्यकार है, शिल्पी है, नर्तक है, अनुसन्धानकर्ता है अथवा चित्रकार है, यदि वह सत्य के लिए भटकता है । सत्य ही की खोज में रहता है और प्रकाश का साक्षात करने का पिपासु है तो वह भक्त है । भक्त ही है । और जो भी कलाकार सूक्ष्मभावी नहीं है , विनम्र नहीं है और सत्य का उपासक नहीं है वह उस विनम्र, सूक्षम और सत्य रुपी प्रकाश को जन्म जन्मान्तर देख नहीं पाता। न वह स्वयं को प्रकाशमय कर सकता है, न ही अपनी रचना द्वारा औरों को कोई अनुभूति ही दे सकता है। यही स्थिति भक्ति और भक्त, उपासना और उपासक की है । यदि उपासक उतना ही सूक्षम नहीं हो जाता जितना कि सत्य है, जितना कि प्रकाश है वह प्रकाश को न तो अनुभव ही कर सकता है और न ही दर्शा ही सकता है । साधना में आह्वान तथा आलंबन का विशेष महत्व है । 

तुम स्थूल हो । देह स्थूल है । तुम्हारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार यह सभी स्थूल पदार्थ हैं । मन, बुद्धि और चित्त भी स्थूल हैं और प्रकाश एक बहती हुई लय है । और प्रकाश एक निरंतर बहती हुई लय है । बहती हुई सूक्ष्म लय । और यही लय सृष्टि और सृजन की लय है । यदि साधक और कलाकार सूक्ष्म हो कर, लय स्वरुप और विनम्र हो कर अदृश्य और अस्तित्वहीन नहीं हो जाते वे प्राप्ति का कोई दावा नहीं कर सकते । "

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