सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Friday, 10 August 2012

श्री सारथी उवाच ..................
..."धीरे धीरे अभ्यास करो कि तुम किसी भी वस्तु, पदार्थ, तत्व और व्यक्ति को देखते ही प्रसन्नचित्त हो कर मुस्कुराओ । हंसो और एक क्षण को किसी बड़े त्योहार की भांति मना सको । यह तुम्हारे लिए बहुत ही सरल है, आसान है और तुम्हारे अस्तित्व को खोजने में तुम्हारी बड़ी सहायता कर सकता है । इस का मुख्य कारण यह है कि तुम्हारे भीतर हंसी, प्रसन्नता और मुस्कुराहट के समुद्र भरे पड़े हैं । तुम में जन्म जन्मान्तर से हंसने - मुस्कुराने और हंसी बांटने की असीम क्षमता है । परन्तु यह तभी हो सकेगा जब तुम अपने भीतर छुपे कई एक आदमियों के हंसी से सम्बंधित स्वार्थों कि हत्या कर दो और उन से परामर्श के तौर पर कह दो कि हँसना, मुस्कुराना और प्रसन्न होना कोई व्यवसाय अथवा प्रदर्शन नहीं हैं । यह प्राणों का, यह जीवन में घूमती हुई गति का अधिकार है और ऐसा अधिकार जो प्राणों के साथ बंधा हुआ हो, किसी भी प्रकार से प्रदर्शन, शोषण, विश्वासघात और संदेह के लिए प्रयोग में नहीं आना चाहिए । जब भी इन का प्रयोग हो, वह प्रयोग मात्र रस के लिए, मात्र आनंद के लिए । 

.... जब भी कोई तुम्हे मिले या जब भी तुम किसी को मिलो, पूरे के पूरे मुस्कुरा दो, पूरे के पूरे हंस दो । सम्पूर्ण हंसी का त्योहार आयोजित कर डालो । कुछ समय के लिए यह एक दुर्घटना जैसी लगेगी । शायद तुम्हे भी । फिर धीरे धीरे तुम अपने ही भीतर, अपने ही अन्त:करण में स्वच्छ, निर्मल, आनंद कि मृदुल धारा का अनुभव कर सकोगे और स्वयं को मात्र रस के क्षणों में, रस के तत्कालीन क्षणों में नाचता और गाता हुआ पाओगे" ।

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