ग़ज़ल (गुरुदेव 'सारथी' जी )
खुद जल के तेरा हुस्न सजाने के लिए हूँ
चेहरे पे नई धूप उगाने के लिए हूँ
खुद जल के तेरा हुस्न सजाने के लिए हूँ
चेहरे पे नई धूप उगाने के लिए हूँ
दरिया के किनारों की तरह मिल न सकेंगे
तू मेरे लिए हैं मैं ज़माने के लिए हूँ
मैं राह ढूंढता हूँ नई मुझ को सजा दो
ईसा हूँ मैं सलीब उठाने के लिए हूँ
होंठों पे तेरे गीत हों हर आँख में जलबा
नगमें वो "सारथी" मैं सुनाने के लिए हूँ
तू मेरे लिए हैं मैं ज़माने के लिए हूँ
मैं राह ढूंढता हूँ नई मुझ को सजा दो
ईसा हूँ मैं सलीब उठाने के लिए हूँ
होंठों पे तेरे गीत हों हर आँख में जलबा
नगमें वो "सारथी" मैं सुनाने के लिए हूँ
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