सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Sunday, 16 December 2018

सागर की कहानी (55)

श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (55) – कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
नंगा रूक्ख की शुरुआत कुछ इस प्रकार होती है- ”वह कोई शिव नहीं था। वह एक रचनाकार था। परन्तु उसे भी विष पीना पड़ा।“ सुरों एवं असुरों द्वारा किये समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से सब परिचित हैं। सब जानते हैं जगत कल्याण हेतु समुद्र में से निकलने वाले विष को शिव ने अपने कण्ठ में धारण किया था। परन्तु क्या रचनाकार को भी विष पीना पड़ता है। नंगा रूक्ख इसी प्रश्न का उत्तर देता प्रतीत होता है।
समुद्र मंथन में से विष और अमृत दोनों निकले थे परन्तु नगर मंथन में से दुख, पीड़ा, वेदना, आघात, धुखन, विलाप और किरचों के सिवाए कुछ भी निकलता नज़र नहीं आता। नगर मंथन में से निकलने वाली बस्तुओं का विवरण उपन्यासकार ने कुछ इस प्रकार दिया है। - ”आंखों में सूरज की किरणों की लौ के स्थान पर लोभ और काम की धुखन, मुँह में मीठी जुबान के स्थान पर दो धारी बरछियां, बोलों के स्थान पर किरचें, हाथों के स्थान पर बेलचे और टांगों के स्थान पर स्वार्थ की बैसाखियां।”
अब उपन्यास के अन्तिम वाक्य को देखिये- ”दोनों चल पड़े उस सड़क पर जो सब की थी पर जिस का कोई नहीं था। जो सब को मिलाती थी परन्तु स्वयं अकेली थी।” सूक्ष्मता से सोचा जाये तो उपन्यास का अन्तिम वाक्य भी नगर के, नगर की सड़क के दर्द को उजागर करता है।
नंगा रूक्ख उपन्यास में सारथी जी ने नगर रूपी मुख्य पात्र की पीड़ा, वेदना, उस के शोषण और नगर तथा नगरबासयिों के उत्पीड़न एवं नगर रूपी मुक्ख पात्र के रोने, चिल्लाने तथा विलाप के स्वर को ही शब्द दिये हैं। पाठक को लगता है वह अपने ही नगर के शोषण एवं उत्पीड़न की एक चित्र प्रदर्शनी देख रहा है। इस चित्र प्रदर्शनी को देख पाठक को एक झटका सा लगता है और उस के भीतर एक विद्रोही मानव जन्म लेने लगता है।
नंगा रूक्ख का लेखक समाज के यथार्थ की ऐसी तस्बीर पेश करता है जिसे देख कर पाठक उत्तेजित हो समाज को बदल देना चाहता है पर समाधान के तौर पर सारथी जी सर्वप्रथम स्वयं के परिवर्तन की बात करते हैं। पाठक को लगा आघात आत्ममंथन एवं आत्मविश्लेषण में बदल जाता है।
उपन्यासकार ने उपन्यास में किसी भी पात्र को व्यक्ति वाचक संज्ञा नहीं दी है। किसी भी पात्र का कोई विशेष चरित्र चित्रण नहीं है। सभी पात्र प्रवृति के प्रतीक मात्र हैं। यही बात उन पात्रों को सार्वभौमिक बनाती है और लेखक उन बेनाम पात्रों के माध्यम से सभी के सांझे दुखों और तकलीफों को शब्द देता जाता है।
सारथी जी मिथक, प्रतीक और संकेतों का प्रयोग कर नंगे हो चुके नगर के प्रति हमारी सोई संवेदना को जगाते हैं। जनमानस नगर के दुख दर्द को समझे तथा उसे दूर करने हेतु पहले अपने आप को ठीक करे तथा फिर नगर के दुख दर्द को देर करने के लिए कमर कसे यही सारथी जी का ध्येय है।
जब राजनेता समाज को व्यवस्थित करने के स्थान पर अव्यवस्था फैला अपनी जेबें भरने लगें, जब धार्मिक संस्थान अनैतिक प्रवृतियों को बढ़ावा देने लगें, जब लोगों की समस्या के समाधान के स्थान पर हमारे मार्गदर्शक उन्हें खेल तमाशों में उलझाये रखें उस समय संवेदनशील लेखक व्यंग्य के अस्त्र द्वारा इन विकृतियों की चीर-फाड़ करता है, वह व्यंग्य और प्रतीकों की सहायता से वही दर्द पाठक में जगाता है जो वह स्वयं महसूस कर रहा होता है। ‘नंगा रुक्ख’ के लेखक ने अपने नगर के, जनसमूह के, इसी दर्द को अभिव्यक्त किया है।
जो पठन-पाठन को समय व्यतीत करने का साधन मानते हैं, उन के ध्येय की सिद्धी श्री सारथी जी की रचनाओं के द्वारा नहीं हो सकती। तिलस्मी, जासूसी, प्रेमपरक उपन्यासों के रसिकों के लिए भी उन का साहित्य नहीं बना। जो साहित्य को सब के हित का साधन मानते हैं, जो साहित्य के माध्यम से सामाजिक विकृतियों के मूल कारण को जानना चाहते हैं, जो एक मंच पर चढ़ कर अपने ही समाज का यथार्थ जानना चाहते हैं, आत्मविष्लेशण के पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं श्री सारथी जी का साहित्य उन्हीं लोगों के लिए हैं। संक्षेप में सजग एवं चिन्तनशील व्यक्तियों के लिए ही उन का साहित्य है।
........क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 19 June 2018

सागर की कहानी (54)

सागर की कहानी (54)
इसी बात को अपने ढंग से अभिव्यक्त करते हुए हिन्दी साहित्य मंडल द्वारा आयोजित उपरोक्त विमोचन के अवसर पर अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रोo सुभाष भारद्वाज कहते हैं – ‘सारथी के इस उपन्यास में सर्वोत्कृष्ट व्यंजना शैली का प्रयोग किया गया है। अभिनवगुप्त के अभिव्यंजनावाद में व्यंजना अथवा व्यंग्य को ही सर्वोत्कृष्ट माना गया है। प्रतीकों के सटीक इस्तेमाल एवं व्यंग्यात्मक शैली के कारण ही इस उपन्यास को डोगरी में ही नहीं अखिल भारतीय स्तर पर भी सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में रखा जा सकता है।‘
डा प्रीतम चन्द षास्त्री के अनुसार- ‘उपन्यास के उपक्रम में ही सारथी जी शिव शब्द द्वारा उपन्यास का मंगलाचरण करते हैं। शिव मंगल का वाचक है और शिव ही सत्य का दूसरा नाम भी है। कुछ आगे चल कर लेखक समुद्र मंथन की बात करता है। सत्य के अन्वेषण का प्रयास मात्र था समुद्र मंथन। उपन्यास में चर्चित नगर मंथन भी सत्य के अन्वेषण के प्रयास का दूसरा रूप है। समुद्र मंथन की भान्ति ही मति मंथन में भी कुछ विचार कौस्तुक हाथ लगते हैं। किन्तु कुछ आधुनिक मूल्यांकन की अपेक्षा है। देखना है कि वे इन कौस्तुकों को कण्ठहार बनाने में कितने लालायित हैं।‘
प्रख्यात समीक्षक राम प्रकाश राही ‘नंगा रुक्ख’ की समीक्षा करते हुए लिखते हैं- ‘साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत डोगरी उपन्यास का यह अनुवाद अपनी मूल कृति के इतना निकट है कि हिन्दी जगत के लिए भी यह प्रतीकात्मक शैली का अनूठा उपहार बन गया है जो हर दृष्टिकोण से यथार्थ के सभी संदर्भों का जीवन्त चित्रण करता है। इस अनुवाद से हिन्दी में जहां हर प्रकार की कृतियों अभाव पूरा होता दिखाई देता है वहां डोगरी भाषा के सर्वोच्च साहित्य की जानकारी भी प्राप्त होती है।‘
कर्नल शिवनाथ उपन्यास के अंग्रज़ी अनुवाद द चरनिंग ऑफ द सिटि (The churning of the city) की भूमिका में लिखते हैं - इस रचना में मानवीय स्थितियों के संबंध में कुछ मूलभूत प्रश्न उठाए गए हैं। इस की शैली भी आकर्षक एवं दिलचस्प है। द्रुत गति वाले छोटे छोटे वाक्य। अन्तः स्थापित संवाद, व्यंग्यात्मक भाषा एवं कथा शैली, सरल टिप्पणियों एवं असुविधाजनक प्रश्नों की कारीगरी द्वारा नगर के बदलवते स्वरूप एवं मूल्यों का गहरा और सशक्त प्रस्तुतीकरण। (this compostion raises certain fundamental questions about the human situation. The style is also interesting and engaging. Short clipped sentences, interspersed dialogues, brisk movement of line, a tongue in cheque stance and telling, effective strokes in the shape of naive comments and uncomfortable questions which strenthen and deepen the awareness of chanign face and values of the city.
एक साक्षात्कार की भूमिका में आशा अरोड़ा लिखती हैं- नंगा रूक्ख के हिन्दी अनुवाद की भूमिका पढ़ते हुए एक शब्द सारथी जी के लिए बड़ा सटीक लगा था-तीन आंखों वाला आदमी-जो चित्रकार है, संगीतज्ञ है और साहित्यकार है। इसमें कौन सा पक्ष ज़्यादा उभरा है यह तो आलोचक जानें पर डोगरी साहित्यकार के रूप में उन की प्रतिष्ठा बनी है और वे इस में जाने जाते हैं। बीसियों पुस्तकों के रचयिता सारथी अनुभवों के विशाल सागर के प्रतीक हैं। प्रख्यात साहित्यकार एवं समीक्षक भोलानाथ भ्रमर लिखते हैं - सारथी जी न केवल स्वयं प्रयोगधर्मीं हैं अपितु प्रयोग को आन्दोलन के रूप में प्रस्तुत करना भी अपना धर्म समझते हैं। वे एक सफल चित्रकार हैं, कवि हैं, कहानीकार हैं और उपन्यासकार हैं इसलिए उन की कला में काव्यात्मक्ता, कहानी कहने की कला और चित्र आकलन की विशेषताओं का समन्वित रूप मिलता है।
इतने सारे समीक्षकों एवं साहित्यकारों को यहां उद्धृत करने का एक ही लक्ष्य है कि चिन्तनशील पाठक तथाकथित पूर्वाग्रही आलोचकों की मौलिक टिप्पणी पर ही ‘नंगा रुक्ख’ जैसे उत्कृष्ट उपन्यास से वंचित न रह जाये।
...............क्रमशः ..................कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 14 June 2018

सागर की कहानी (53)

सागर की कहानी (53)
सागर के आगोश में कितनी ही आस्थायें, परम्परायें, धारणायें एवं विश्वास पैदा होते हैं, पलते हैं, युवावस्था को प्राप्त होते हैं और फिर ढ़लती उम्र की तरह परिपक्व हो उसी में विलीन भी हो जाते हैं। सागर के बारे में अनेक भ्रान्तियां भी पैदा हो कर मिटती रही हैं। भ्रान्तियां सदैव अज्ञात के सम्बन्ध में ही पैदा होती हैं। और यह भ्रान्तियां ही कहीं भय का कारण भी बनती हैं। अज्ञात का भय। यही भय सागर को भेद भरा, रहस्मय आश्चर्य बना देता हैं। श्री सारथी जी से दूरी बनाये रखने वाले लोगों के लिए वे एक रहस्यमय व्यक्ति बने ही रहे। बहुत से तथाकथित आलोचकों ने श्री सारथी जी को रहस्यवादी की संज्ञा भी दे डाली। वास्तव में जब हम अपना आलोचना धर्म निभाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं तभी हम रचनाकार या साहित्यकार को विभिन्न गुटों एवं वर्गों में बाँट कर अपनी विद्वता का परिचय देना चाहते हैं। ऐसे ही आलोचकों ने कभी सूर्यकान्त त्रिपाटी निराला तथा महादेवी वर्मा को रहस्यवादी एवं छायावादी संज्ञाओं से नबाज़ा तो कभी प्रगतिवाद का चश्मा पहन कर सब रचनाकारों को देखने का प्रयत्न किया। परन्तु किसी रचनाकार की समीक्षा वाद-प्रतिवाद विशेष का चश्मा पहन कर नहीं हो सकती। इसी संदर्भ में डा राजकुमार जम्मू कश्मीर के स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी कवियों की यर्थाथवाद को देन नामक पुस्तक में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं-‘श्री ओ पी शर्मा सारथी के बारे में यही कहा जा सकता है कि वह आदर्शौंमुखी यर्थाथवादी है, रहस्यवादी भी, प्रगतिवादी भी चूँकि समिष्ट में व्यष्टि जो देख पाते हैं। सब में आत्मरूप ही देखने वाला ऊँच नीच के भेद भाव को सहन करने में असमर्थ होता है। श्री सारथी जी काव्य के क्षेत्र में विचार व भाव की दृष्टि से एक अविसमरणीय देन हैं।‘
वादों प्रतिवादों का चश्मा पहने हुए लोगों ने कभी उन्हे जानने की चेष्टा नहीं की। ऐसे ही कुछ पूर्वाग्रही लोगों ने श्री सारथी जी के बारे में बिना उन के साहित्य का अघ्ययन किये यह कहना आरम्भ कर दिया कि उन की लेखनी समझ में नहीं आती। यह बात उन के साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास ‘नंगा रुक्ख’ के बारे में अधिक कही गई, शायद चर्चित उपन्यास के बारे में टिप्पणी कर यह लोग चर्चा में आने के लोभ का त्याग न कर सकें।
शायद नंगा रुक्ख के तथाकथित आलोचक नहीं जानते कि इस उपन्यास को सर्वाधिक अनुदित डोगरी उपन्यास का दर्जा प्राप्त है। राष्ट्रीय स्तर के सभी अनुवादकों, आलोचकों एवं समीक्षकों ने इस उपन्यास के सार्वभौमिक कथ्य एवं नवीन शिल्प को न केवल सराहा बल्कि इसे डोगरी के साथ-साथ भारतीय साहित्य की अनुपम कृति भी बताया।
नंगा रुक्ख का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करने वाले साहित्यकार अशोक जेरथ उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं-
-ओ पी शर्मा सारथी का उपन्यास नंगा रूक्ख जिसे पिछले वर्ष का अकादमी पुरस्कार मिला है, डोगरी साहित्य में तो एक उपलब्ध कृति है ही, मैं समझता हूं कि हिन्दी पाठक वर्ग के लिए भी यह कृति नवीनता के सौपानों को उजागर करेगी। वैसे तो डोगरी भाषा में अनेक छुटपुट प्रयोग हो रहे हैं किन्तु किसी प्रयोग को आन्दोलन के रूप में प्रस्तुत करने कर श्रेय सारथी को जाता है। प्रतीकात्मक शैली के कनवास पर यथार्थ के चौखटे खड़े कर अपने सटीक विचारों के रंग भरना उन के पांचों उपन्यासों में मुखरित हुआ। ‘नंगा रुक्ख’ इस आन्दोलन का आरम्भ था तो मकान, रेशम दे कीडे, पत्थर ते रंग और अपना अपना सूरज इस आन्दोलन की आधारशिला।
‘नंगा रूक्ख’ के हिन्दी संस्करण के विमोचन के अवसर पर इस उपन्यास पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं - नंगा रूक्ख में जिस यर्थाथ रूप को रचनाकार ने हमारे समक्ष रखा है वह शायद ही किसी दूसरे डोगरी उपन्यास में आया हो। मैं तो समझता हूँ कुल भारत के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में ‘नंगा रूक्ख’ को रखा जा सकता है।
........क्रमशः .......... कपिल अनिरुद्ध

Monday, 4 June 2018

सागर की कहानी (52)

सागर की कहानी (52) 
6 वर्ष के उपरांत 1990 में सारथी जी हिंदी की दो कृतियां साहित्य जगत के नाम करते हैं पहली हिंदी उपन्यास ‘बिन पानी के दरिया’ और दूसरी हिंदी काव्य ‘मरुस्थल’ के रूप में। इसके उपरांत 9 वर्ष के अंतराल के बाद वे डोगरी कहानी संग्रह ‘यात्रा’ का उपहार पाठकों को भेंट करते हैं। इन डोगरी कहानियों का उर्दू अनुवाद कुछ सभाओं में अनुवादक राज कुमार खजूरिया जी से सुनने को मिला तो लगा कि अपने विशिष्ट कथ्य एवं शिल्प के कारण यह कहानियाँ प्रतिनिधि भारतीय कहानियों में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। खजूरिया जी द्वारा उर्दू में अनूदित कहानियों को सारथी काला निकेतन ट्रस्ट द्वारा साहित्य अकादमी को उर्दू में प्रकाशनार्थ भेजा दिया गया परंतु साहित्य अकादमी अभी तक इस संबंध में मौन धारे हुए है । बीस कहानियों के संग्रह ‘यात्रा’ की प्रस्तावना में सारथी जी लिखते हैं –‘मैं अपने पर उस परम ब्रम्ह की बड़ी कृपा समझता हूं और यह भी मानता हूं कि मेरे जन्म जन्मांतर के संस्कार इतने ऊंचे हैं कि मैं साहित्य और कला से कभी भी थका नहीं। निरंतर भगवत प्रेरणा से लिख रहा हूं। राम कृपा से गा रहा हूं। कहानी ग़ज़ल निबंध उपन्यास निरंतर लिखने की शक्ति मुझे मिल रही है। मिलती आई है। .....मैं कहानी उसी भाव और प्रेम से लिखता हूं जिस प्रेम से मैं शास्त्रोक्त भजन गाता हूं।.... इस संग्रह की लगभग सभी कहानियां आज भी कहीं बीज बन कर मेरे अंतस में बैठी हुई और आज भी प्रतीक्षा कर रही हैं कि कोई और रुप स्वरुप लेकर वह पुनः सामने आएं।... कुछ कहानियां कश्मीर टाइम में प्रकाशित हो चुकी हैं जिनके लिए मैं अपने परम मित्र वेद भसीन और अपने भाई सुरेंद्र सागर का धन्यवादी हूं। साथ ही धन्यवादी हूं सहयोग हेतु ज्योति, कपिल और सूरज का।‘
वे आगे लिखते हैं- मेरी जिंदगी का सुनहरी काल अनुसंधान प्रयोगशाला का जमाना रहा है। मेरा होना, बनना संस्कारों की बात थी पर परिस्थितियां भी कमाल की मददगार रहीं। खास कर डॉ सीo केo अटल साहब का ज़माना में मेरे पनपने, बनने, मकबूल होने, बहुत बार सम्मानित होने का एक बेहतरीन अरसा था। इस कहानी संग्रह को भी उन्होने क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला ( अब क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला-Regional Research Laboratory का नाम बदल कर भारतीय समवेत औषधीय संस्थान -Indian institute of Integrative medicines कर दिया गया है) के पूर्व निदेशक एवं अपने मित्र डॉ सीo केo अटल को समर्पित किया है।
डॉ सीo केo अटल क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला के निदेशक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भी सारथी जी के निवास पर उनसे मिलने आते रहे। मुझे भी सारथी जी के देहावसान के उपरांत दो-तीन बार डॉ अटल के दिल्ली निवास पर जाने का अवसर मिला। उनका घर सारथी जी के चित्रों एवं कलाकृतियों का लघु संग्रहालय कहा जाए तो अतिशयोक्ति ना होगी। डॉ सीo केo अटल के सुपुत्र डॉक्टर नवीन अटल के मन में सारथी जी के प्रति वही श्रद्धा भाव है जो एक विद्यार्थी के मन में एक शिक्षक के प्रति होती है किस प्रकार सारथी जी उनके निवास पर आते रहे, कैसे उन्हें चित्रकला के साथ-साथ जीवन दर्शन भी सिखाते रहे ,यह सब बताते हुए डॉक्टर नवीन अटल भावुक से हो जाते हैं। आज डॉ सीo केo अटल बहुत अस्वस्थ हैं परंतु पहली बार जब सारथी जी पर छप रही स्मारिका के संबंध में उनसे मिलने उनके दिल्ली निवास पहुंचा तो उन्होंने सारथी जी के संबंध में अनेक संस्मरण सुनाए। वे कहते - जब मैंने प्रयोगशाला में निदेशक का पदभार संभाला तो मुझे बताया गया ओo पीo शर्मा सारथी हमारे कार्यालय का बहुत बड़ा कलाकार एवं लेखक है। उनसे मिलने हेतु मैंने चपडासी को भेजा। चपडासी उनके पास जाकर कहता है आपको डाइरेक्टर साहब ने बुलाया है। सारथी जी पूछते हैं - क्या कहा था डाइरेक्टर साहब ने। चपडासी सहज स्वभाव कह गया - उन्होंने कहा जाओ ओo पीo शर्मा को यहां आने को कहो। अतीत में झांकते हुए डॉ अटल बताते हैं वह आए मुझे दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया है मैंने भी हल्की सी गर्दन हिला कर उनका अभवादन किया। सारथी जी बड़े गंभीर स्वर में कहने लगे - डॉक्टर साहब हम आपको कितना सम्मान देते हैं, आपका नाम कितने सम्मान से लेते हैं परंतु आपको अपने किसी कर्मचारी को बुलाने का सलीक़ा तक भी नहीं आता। यह जवाब सुन डॉ अटल कहने लगे मेरे पांव के नीचे से जमीन खिसक गई। जिस समय मेरे नाम से ही लोग कांपने लगते थे और मुझ से आंख मिलाकर कोई बोलने का साहस ना कर पाता था, सारथी जी मुझे सलीका सिखा रहे थे। एक लंबे विराम के बाद डॉ अटल पुनः कहते हैं - उस पहली मुलाकात में मैंने सारथी जी के स्वाभिमानी स्वरुप के दर्शन किए हालांकि यह पहली मुलाकात अनेक मुलाक़ातों में रुपांतरित हुई और हम दोनों में गहरा संबंध स्थापित हो गया। डॉ अटल मुझे देख कर कहते हैं, जब स्मारिका छपे तो उसमें इस घटना का जिक्र अवश्य करें।.........क्रमशः ...............कपिल अनिरुद्ध

Monday, 21 May 2018

सागर की कहानी (51)

सागर की कहानी (51)

वर्ष 1984 में ही सारथी जी का पंजाबी भाषा का एक और उपन्यास रणक्षेत्र प्रकाशित हुआ। सारथी जी के अनुसार- ‘जीवन एक रणक्षेत्र है। समर है, युद्ध है, द्वंद्व है, निरंतर जंग है । जीवन में स्थित सत्य एवं असत्य के मध्य, सूक्षम एवं स्थूल के मध्य, आकांक्षा एवं त्याग के मध्य, कामना तथा यथार्थ के मध्य, ज्ञान तथा अज्ञान के मध्य, रूप तथा अरूप के मध्य, दृश्य तथा अदृश्य के मध्य, प्रकाश तथा अंधकार के मध्य, कल्पना तथा तर्क के मध्य। यह युद्ध, यह रण जब तक जीवन की अवधी है हर पल हर क्षण छिड़ा रहता है।‘
जब तक एक व्यक्ति पदार्थों में सुख खोजता रहता है तब तक जीवन रूपी यह युद्ध सार्थक नहीं होता। परंतु जब वह भौतिकता के चरम को जान कर पदार्थों से निकल, सार्वभौमिक चेतना में प्रवेश करता है तभी इस युद्ध की सार्थकता सिद्ध होती है । यही इस उपन्यास का मूल भाव भी है। इसीलिए उपन्यास के अंत में रचनाकार कहता है – यह जीवन एक युद्ध है। युद्ध मान कर लड़ा जाये तो हार जीत का ड़र बना है । खेल समझ कर खेला जाये तो ही यह युद्ध पूरा हो सकता है। उपन्यास की भूमिका में सारथी जी लिखते हैं – ‘सत्य की तलाश के लिए असत्य का संपूर्ण रूप सामने चाहिए। ऊंचाई के अनुभव के लिए गहराई की पूर्ण तस्वीर मस्तिष्क में होनी चाहिए। रणक्षेत्र में भौतिकता के अनुभव की चरम सीमा और फिर प्रतिकार के सारे परिवेश हैं। एक भाव की चरमसीमा ही परिवर्तन का कारण तथा मूल बन सकती है और एक बड़ा परिवर्तन या स्थानांतरण संभव है।‘
इस उपन्यास को श्रेय प्राप्त है कि यह गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब में स्नातकोत्तर स्तर पर पढ़ाया जाता रहा है। वर्ष 2014 में इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद प्रकाश में आया। भूमिका में अनुवादक प्रवीण शर्मा लिखती है - मेरे लिए गुरुदेव का प्रत्येक शब्द, प्रत्येक वाक्य किसी मंत्र से कम नहीं। अन्य पाठकों की भांति उन की लेखनी मेरा भी उत्थान करती रही है ।.... उन के परलोक गमन के कुछ वर्षों के उपरांत जब उन का पंजाबी उपन्यास पढ़ने को मिला तो मुझे लगा गागर में सागर को समेटे यह उपन्यास उन के जीवन दर्शन की मुंह बोलती तस्वीर है......इस उपन्यास को पढ़ते ही यह विचार मेरे अंतस में कौंध गया कि हिन्दी पाठक वर्ग प्रतीकात्मक शैली में लिखे गए इस अनूठे आध्यात्मिक-दार्शनिक उपन्यास से वंचित क्यों रहे।....विचार तर्क कि मथनी में मथा गया और निर्णय स्वरूप अनुवाद कार्य आरंभ हो गया। ... वास्तव में आज हर व्यक्ति चिरकालिक सुख और शांति कि तलाश में है। स्वयं को सुखी बनाए रखने हेतु मनुष्य भोग विलास एवं ऐश्वर्य के साधन जुटाने हेतु अनथक परिश्रम करता आ रहा है। ऐश्वर्य एवं भोग विलास के यही साधन मनुष्य को क्षीण करते जा रहे हैं । मनुष्य सोचता है वह भोगों को भोग रहा है परंतु यह सारा उल्टा चक्र है । वास्तव में मनुष्य भोगों को नहीं भोगता। भोग ही उसे भोग कर जर जर अवस्था में पहुंचा, उस पर हँसते चले जाते हैं । इस गूढ़ पहेली को सुलझाता यह उपन्यास एक साधक के भीतरी द्वंद्व को ज़ुबान देने के साथ साथ उस द्वंद्व के समाधान ओर की भी संकेत करता है ।
उपन्यास की भूमिका में सारथी जी पंजाबी साहित्य के प्रकाश स्तम्भ डॉ करतार सिंह सूरी एवं प्रख्यात साहित्यकार प्रो सुरिन्दर सिंह सीरत को कुछ इस प्रकार स्मरण करते हैं – ‘प्रो सुरिन्दर सीरत जो मुझे भाइयों से भी अधिक प्रिय है, पंजाबी उपन्यासों की चिंता मुझे कम थी और सीरत को ज़्यादा। हर पन्ने और खंड का हिसाब सीरत को देना पड़ता था।
मेरे साथ विचारक और मनोवैज्ञानिक तौर से जुड़ जाने वाले सीरत ने उपन्यासों को शीघ्र छपे हुए देखने की उत्कंठा जो उस के मन में थी, मेरे अंतस में भी भरी और समय से पहले मुझे उपन्यास पूरे करने पड़े।
अग्नि का गुण धर्म शोध है। वस्तु, पदार्थ चाहे कितना मैला, विकृत, गंदा हो अग्नि के साथ जुड़ कर अग्नि रूप ही हो जाता है। प्रकाशमान हो जाता है। जम्मू कश्मीर क्षेत्र में डॉ करतार सिंह सूरी जी का होना, इस क्षेत्र के लिए प्रेरणा का तथा रोशनी का स्तम्भ सिद्ध हो रहा है।
.......क्रमशः ...........कपिल अनिरुद्ध

Monday, 23 April 2018

सागर कि कहानी (50)


सागर कि कहानी (50) 
आप के सुझाव आमंत्रित हैं।
वर्ष 1980 में सारथी जी का एक और डोगरी उपन्यास ‘रेशम दे कीड़े’ प्रकाश में आया जिसे जम्मू कश्मीर कला, भाषा एवं संस्कृति अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। जब नीति आधारित शासन के स्थान पर शासन आधारित नीतियाँ बनने लगें, जब सत्ता सेवा के लिए न हो कर स्वार्थ सिद्धि हेतु इस्तेमाल होने लगे तो संवेदनशील रचनाकार इस शोषण वृति पर कुठराघात करने को विवश हो जाता है । रेशम दे कीड़े उपन्यास में सारथी जी ने इसी स्वार्थ लोलुपता एवं शोषण वृति पर कुठराघात किया है । यह उपन्यास आज की राजनीति के अधोगमन का विश्लेषण करने के साथ-साथ आदर्श राज्य की प्रस्थापना की ओर भी संकेत करता है। इस उपन्यास का अँग्रेजी अनुवाद (power plays) कर्नल शिवनाथ द्वारा किया गया जिसे डोगरी संस्था ने वर्ष 2006 में प्रकाशित किया । वर्ष 1984 में दो उपन्यास सारथी जी कलमबद्ध करते हैं पहला उपन्यास पंजाबी का बिन पैरा दे धरती जो सांस्कृतिक राजनीतिक और धार्मिक गिरावट को बड़ी सशक्तता के साथ पेश करता है दूसरा डोगरी भाषा का उपन्यास ‘पत्थर ते रंग है। रचनाकार का मानना है कि समाज निर्माण में कलाकारों संगीतकारों एवं साहित्यकारों का अमूल्य योगदान होता है परंतु समाज उनके योगदान से सर्वदा अनभिज्ञ रहता है। उपन्यास एक परिकल्पना पर आधारित है नगर के सारे कलाकार हड़ताल पर चले जाते हैं। नए गीतों का सृजन रुक जाता है, नए चित्र साकार रूप ग्रहण नहीं करते, नई धुनें सुनने को नहीं मिलती। नगर रंगहीन, सुरहीन होने लगता है । साहित्य, कला और संगीत के बिना नगर का विकृत एवं बेनूर होते जाना, इसका बेहद मार्मिक चित्र उपन्यास में पढ़ने को मिलता है। यह उपन्यास सारी कालयों में एकरूपता स्थापित करने के साथ-साथ ललित कलाओं के महत्व एवं उपयोगिता को रेखांकित करता है। सारथी जी नगर के विकास को कला और साहित्य के विकास से जोड़ कर देखा करते। उनके अनुसार जिस नगर में से परिपेक्ष (perspective) जानने वाले चित्रकार अलोप होते जाएँ, जिसमें अरूज़ जानने वालों को अपनी इज्जत बचानी पड़ रही हो, जिसमें साहित्य के साथ प्यार करने वालों की गिनती घटती जा रही हो वह नगर क्या विकास करेगा। वह कहते हैं विकास नाम है साहित्य के विकास का, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य एवं वादन के विकास का। जीवन में ललित कलाओं के महत्व का गान करते हुए वे अक्सर भर्तृहरि का यह श्लोक सुनाया करते-
साहित्य संगीत कला विहीन:।
साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन:।।
अर्थात साहित्य (गद्य एवं पद्य), संगीत (गायन, वादन एवं नर्तन)
एवं कला (चित्रकला, मूर्तिकला, वस्तु कला) से विहीन मनुष्य उस पशु के समान है जिस के सींग और पूंछ ह न हो। समाज निर्माण में एक रचनाकार एवं कलाकार के योगदान को वह सर्वोपरि मानते परंतु कलाकार के संस्कृति एवं संस्कार शून्य होने को पर नैतिक मूल्यों के ह्रास का सबसे बड़ा कारण मानते।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 17 April 2018

सागर की कहानी( 49)

सागर की कहानी( 49) ......कृपया अपने सुझावों से अवगत अवश्य करवाएँ ।
चेतन, माया, जगत और मकान मालिक के नाम से संबोधित उपन्यास के यह चार पात्र क्रमशः एक साधक, भ्रम, संसार और गुरू का प्रतीक बन कर उभरते हैं। उपन्यास का शीर्षक ‘मकान’ भी एक ही समें मे कई तथ्यों की ओर संकेत करता है हमारा मन शरीर रूपी मकान में टिका हुआ है। मन रूपी मकान में चेतना बास करती है और चेतना रूपी मकान में ही परमचेतना का बसेरा है। दूसरी तरफ इस शरीर को भी रहने हेतु स्थूल मकान की आवश्यकता है। यह स्थूल मकान ब्रह्मण्ड़ रूपी मकान का ही छोटा सा हिस्सा है। यह उपन्यास के शिल्प का ही कमाल है कि वह एक ही समें में इन सभी संदर्भों और अर्थों को स्पष्ट करता जाता है। इस के लिए अपनी विशिष्ट प्रतीकात्मक शैली और भाषा का चुनाव भी उपन्यास स्वयं ही करता है।
सारथी जी के उपन्यासों की सब से बड़ी विशेषता उन के सार्वभौमिक कथ्य की है और यह बात उनके दूसरे उपन्यासों के साथ साथ ‘मकान’ नामक उपन्यास पर भी खरी उतरती है। इस उपन्यास में एक साधक के भीतरी द्वन्द्वों, त्रुट्टियों और उपलब्ध्यिों का चित्रण तो है ही परन्तु साधना पद्धति किसी विषेश पंथ या सम्प्रदाय के साथ जुड़ी हुई नहीं है। मकान मालिक के कमरे में लगे हुए चित्र किसी विशेष पंथ या सम्प्रदाय का पता नहीं देते बल्कि यह उपन्यास मानव जाति की अनबूझ पहेलियों को ही सुलझाता नज़र आता है। मकान मालिक के कमरे के रचनात्मक और कलात्मक वातावरण को चित्रित करती यह पंक्तियां देखिये-‘अनेक ग्रंथ, कितनी ही पोथिया और फिरी लौ की तस्बीरें, सूरज के चित्र। दिन के चित्र और चारो तरफ व्याप्त इक खुशबू यह सब कुछ एक कमरे में था जिस के मध्य बैठा मकान मालिक किसी ग्रंथ को खोल कर देख रहा था।‘
उपन्यासकार ने इस उपन्यास में एक बहुत महत्व वाले तथ्य की ओर संकेत किया है। एक व्यक्ति काम बासना के कारण दुविधाग्रस्त नहीं है बलिक कामनाओं के और भोगों के सूक्ष्म विचार, भाव और कल्पनायें ही उसे भ्रमित करते हैं। यह भाव, विचार और कल्पनायें ही उसे वर्तमान के धरातल पर नहीं रहने देते । भोगों को भोग कर, उन की क्षणभुंगरता का चिन्तन कर यदि एक साधक उनके विचारों से छूट जाता है तो यह एक उपलब्धि होगी। परन्तु जो भोगता है उस के भीतर और भोगने की इच्छा पैदा होती है और जो भोगों की क्षणभुंगरता का चिन्तन करते हुए बिना भोगे उन से बचना चाहता है वह भी मानसिक तौर पर भोगों से, उनके विचारों, भावों एवं कलपनाओं से छूटता नहीं।
उपन्यास के अन्त में मुख्य पात्र चेतन, मकान मालिक अर्थात गुरु के मार्गदर्शन में माया के पर्दे को हटा कर जगत के रहस्य को समझ कर जिस्म के टूटने फूटने वाले मकान को छोड़ कर हमेशा बने रहने वाले मकान में प्रवेश कर अमरता प्राप्त कर लेता है। बह एक बूँद की तरह समुद्र में समा कर समुद्र ही हो जाता है। बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब- इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फना हो जाना अर्थात एक बूँद की सब से बड़ी मौज, सब से बड़ा आनन्द समुद्र में समा कर समुद्र ही हो जाना है। चेतन भी परम चेतना के सागर में समा कर सागर ही हो जाता है।
मकान उपन्यास अस्थिरता अशान्ति भ्रम और संशय रूपी मानसिक मकान से स्थिरता शान्ति और आनन्द रूपी मकान तक की यात्रा है। यदि यह कहा जाये कि सारथी जी ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभूतियों को 97 पन्नों के इस उपन्यास में समेटा हुआ है तो अतिशयोक्ति न होगी।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 27 March 2018

सागर कि कहानी (48)


सागर कि कहानी (48)
गद्य के क्षेत्र में उन्होंने धीरे-धीरे कहानी के लघु प्रारूप से उपन्यास के बड़े प्रारूप में प्रवेश किया। इस दिशा में उनका पहला उपन्यास डोगरी भाषा में ‘त्रेह समुंदरे दी’ शीर्षक से छपा। यह उपन्यास शिक्षा क्षेत्र के अवमूल्यन को रेखांकित करता है। इसकी प्रस्तावना में सारथी जी लिखते हैं - कहानी की लंबी यात्रा के उपरांत यह उपन्यास मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूं। डोगरी भाषा के आंदोलन तथा प्रोफेसर शास्त्री के स्नेहिल संपर्क में आने के उपरांत मैंने लेखन यात्रा आरंभ की थी और यहां पहुंचा हूं। मैंने यह उपन्यास डोगरी भाषा के आधार कर्मियों को समर्पित किया है। आपके कर कमलों में इस आशा के साथ सौंप रहा हूं कि भाषा के विकास में पाठक का अधिक योगदान होता है। आज जितना दायित्व भाषा का लेखक पर है उतना पाठक पर भी है। वर्ष 2003 में इस उपन्यास को सूरज रत्न ने हिन्दी भाषा में अनूदित किया तथा इसी वर्ष सारथी कला निकेतन ट्रस्ट द्वारा इस का प्रकटन हुआ इसकी भूमिका में सूरज रत्न अपने उद्गार कुछ इस प्रकार प्रकट करता है - गुरुदेव डॉ ओo पीo शर्मा ‘सारथी’ जी द्वारा लिखित डोगरी उपन्यास ‘त्रेह समुंदरे दी’ पढ़ने के उपरांत मन में यह विचार उठा कि यह उपन्यास अपने भीतर अनेक बहुमूल्य सुझाव लिए हुए है। शिक्षा प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव, विद्यार्थियों में अनुशासन तथा उत्तम संस्कार हेतु सुझाव, शिक्षक समुदाय में शिष्यों के प्रति स्नेह एवं स्वयं में कर्मठता उत्पन्न करने हेतु सुझाव तथा मानव समाज में गिरते हुए मूल्यों के उत्थान हेतु सुझाव। साथ ही मन में यह विचार आया की उपन्यास मूलतः डोगरी भाषा में होने के कारण अधिकतर पाठकों तक नहीं पहुंच पाएगा तथा अधिकतर पाठक इस प्रेरणादायक कृति से वंचित रह जाएंगे। सो एक दिन गुरुदेव के समक्ष अपने मन की बात कह डाली है तथा इस उपन्यास का अनुवाद करने की आज्ञा भी ले ली। 
उपन्यास के कथ्य, भाषा एवं दर्शनिकता की कुछ झलक नीचे दिये गए कुछ उद्धरनों से मिलती है।
*मनुष्य को चाहे सारी उम्र किसी चश्मे का ही पानी पीने को मिले परंतु उसे प्यास समुद्र की होनी चाहिए।
*कमरा मनुष्य की शोभा व क्षृंगार नहीं होता। कमरे का क्षृंगार वह मनुष्य होता है जो उस में निवास करता है।
*चुपचाप यदि किसी को कार्य करते देखना हो तो समय को देखो। कोई श्वास की आवाज़ नहीं। हाथों की हिलझुल नहीं। किसी चरखे, यंत्र, हथकरघे की कोई आवाज़ नहीं। और सब कुछ होता जा रहा है।
* विश्राम मस्तिष्क की शांति व मस्तिष्क के मौन का दूसरा नाम है। मस्तिष्क विश्राम करे तो मनुष्य भी विश्राम करता है।
*संसार का यह नियम है कि उसी बाज़ार में सुगंधित फूलों का मोल पड़ता है जहां पर कागज के फूल अधिक हों।
* जिन मनुष्यों के कारण तुम दुविधा में हो उन्हें अपनाए बिना तुम अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं कर सकते। तुम्हारा लक्ष्य पूर्ण नहीं हो सकता। तुम कहीं पहुँच नहीं सकते। वह लोग जो तुम्हारा विरोध करते हैं, वास्तव में वही तुम्हें मार्ग दिखाते हैं ।
1979 में ही सारथी जी का दूसरा डोगरी उपन्यास ‘नंगा रुख’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इस उपन्यास को अपने विलक्षण कथ्य एवं अनूठे शिल्प के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया। अगले ही वर्ष उनका एक और डोगरी उपन्यास ‘मकान’ प्रकाश में आया। इस उपन्यास में भारतीय दर्शन के विस्तार को ही सार रूप प्रदान किया गया है। भारतीय दर्शन के अनुसार जीव पर माया का पर्दा है। यही पर्दा जीव का ब्रह्म से साक्षात्कार नहीं होने देता और यह पर्दा बिना ईश्वर कृपा के, विना गुरू ज्ञान के दूर नहीं हाता। सन्त कबीर कहते है - घूँघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे। यह घूंघट के पट भ्रम /माया की ओर संकेत करते हैं। जीव को माया कैसे भ्रमित करती है और किस प्रकार जीव गुरू का मार्गदर्शन प्राप्त कर, भ्रम के पर्दे को हटा कर, ब्रह्म का साक्षात्कार करता है इस का बेहद सूक्ष्म विवेचन उपन्यास मकान में पढ़ने को मिलता है।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध

Monday, 19 March 2018

सागर की कहानी( 47)

सागर की कहानी( 47)
यात्रा कहानी संग्रह की भूमिका में सारथी जी लिखते हैं – ‘कहानी का जन्म आदमी के साथ ही हुआ जब वह कंदराओं गुफाओं में रहता था। पता नहीं था क्या खाना है, क्या नहीं खाना। बोलने के लिए भाषा तो एक तरफ इशारे भी नहीं थे। कहानी तो उस समय भी उसके अंग संग थी और फिर सभ्यता की पहली सुबह से लेकर अब तक मनुष्य आगे आगे और कहानी परछाई की तरह पीछे पीछे। पहली कहानी में हर बात चमत्कारपूर्ण थी और अब हर बात काम की। पर कहानी का मूल केंद्र व्यक्ति की वृतियों का उद्घाटन रहा है। चाहे वह सारात्मक थी या विस्तारात्मक। आज कहानी विस्तार की कम और सार की अधिक मांग करने वाली रचना होती जा रही है चाहे सार तबील हो, लंबा हो।
साहित्य क्षेत्र में उनका प्रवेश कहानी के माध्यम से ही होता है। सेना के कार्यकाल के दौरान 1965 उनका प्रथम कहानी संग्रह ‘उमरे’ और उसके 1 वर्ष बाद उर्दू कहानी संग्रह ‘लकीरें’ प्रकाशित हुआ। ‘उमरे’ कहानी संग्रह में उनके राष्ट्रप्रेम सैनिक जीवन के अनुशासन और सैनिक की कर्तव्यनिष्ठा के स्पष्ट दर्शन दर्शन होते हैं। इसी कहानी संग्रह की एक कहानी ‘बड़ी मां’, में मां के वात्सल्य, प्रेम, त्याग तथा लेखक के धरती मां के प्रति अपना सर्वस्व अर्पित कर देने के भाव ने मां को लिखी एक चिट्ठी के रुप में अभिव्यक्ति पाई है। उनकी प्रयोगधर्मिता के संकेत उनकी इस कहानी में भी देखे जा सकते हैं। इस कहानी की कुछ पंक्तियां उद्धृत हैं ‘तू तो मेरी माँ है ही, लेकिन एक माँ तुझ से बड़ी है, सब माताओं से बड़ी - यह चलते फिरते सभी शरीर उस की देन हैं - उस ने बहुत संकट झेलें हैं हम सब के लिए । आज उस पर फिर से संकट है । आज वह भी अपना क़र्ज़ मुझ से मांग रही है’।
फिर 4 साल के अंतराल के उपरांत डोगरी भाषा में उनका पहला कहानी सुक्का बरुद 1971 में छपकर सामने आता है और इसके 1 वर्ष बाद 1972 में वे डोगरी का एक अन्य कहानी संग्रह लोक गै लोक मां बोली के चरणों में अर्पित करते हैं।इस बीच 1972 में ही उन्हें डोगरी कहानी संग्रह सुक्का बरूद के लिए जम्मू कश्मीर काला, भाषा एवं संस्कृति अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया। इसी वर्ष उनका एक काव्य संग्रह ‘तन्दां’ प्रकाशित हुआ। इस काव्यसंग्रह के संबंध में पदम श्री राम नाथ शास्त्री जी लिखते हैं - डोगरी भाषा की साहित्य साधना के यज्ञ में ओ पी शर्मा इन्हीं कहानियों के फूलों की भेंट लेकर सम्मिलित हुए। एक ही वर्ष में दो कहानी संग्रहों के अतिरिक्त 40-42 पन्नों तक फैली ‘तन्दां’ उन की एक लंबी स्वच्छंद कविता है। डोगरी भाषा में यह अपनी तरह की पहली कवितामयी रचना है। 50 पन्नों की यह लघु रचना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस रचना की भूमिका उनकी बड़ी बहन श्रीमती सुशीला शर्मा ने लिखी है इसमें वह लिखती हैं- ‘वह मेरा छोटा भाई है। मैंने उसे उठा उठा कर खेल खिलाये हैं। मेरे से तीसरे स्थान पर छोटा होने के बावजूद जिस समय उसके साथ साहित्य संबंधी और आध्यात्मिक चर्चा चलती है तो लगता है कि वह बड़ा है। बहुत बार उसके मुंह से सुना है बोबो, दुनिया के व्यापार में यही अच्छा है कि दूसरे से कुछ लेना ही बाकी रहे, देना कुछ ना रह जाए। बहुत बार वह कहता है मैं स्वयं लिखकर बहुत बार अनुभव करता हूं कि लिखने वाला कोई और था, मैं मात्र देख रहा था।‘
1974 में उनका तीसरा डोगरी कहानी संग्रह ‘पागल दा ताजमहल छपकर आया तथा इसी वर्ष उनका एक और का डोगरी काव्य संग्रह ‘परतां’ प्रकाशित हुआ । सारथी जी ने चारों भाषाओं यदा हिंदी, उर्दू, पंजाबी और डोगरी में कहानियां
लिखी है हालांकि उनकी अधिकतर कहानियां डोगरी भाषा में है। इन कहानियों में युद्ध द्वारा लाए गए विनाश (लाम), असहाय किसान(सुक्का बरुद ), जमीदारों के उत्पीड़न(सलामती ताई), आधुनिक युग की पेचीदगियों ( परिवर्तन), आंतरिक यात्रा (परते), राजनीतिक षड्यंत्र(भेत), स्वयं की तलाश(त्राह) तथा अन्य राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक एवं अध्यात्मिक विषयों ने अभिव्यक्ति पाई है । इस बीच उन्होंने मंच एवं आकाशवाणी दोनों के लिए नाटक लिखे। उनके तीन उर्दू नाटक राष्ट्रीय प्रसारण हेतु भी चुने गए। वे थिएटर के साथ लेखक और निर्देशक के नाते भी जुड़े रहे।
.......क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध

Saturday, 17 March 2018

सागर की कहानी( 46)

सागर की कहानी( 46) ......कृपया अपने सुझावों से अवगत अवश्य करवाएँ ।
अपनी साहित्यिक यात्रा का विवरण देते हुए श्री सारथी जी लिखते हैं- दो सम्पादक मेरी साहित्यिक यात्रा में बहुत महत्वपूर्ण एवं सहयोगी स्थान रखते हैं। पहले सम्पादक श्री मोहन याबर हैं जिन्होंने मेरी ऊर्दू रचनाएं रफतार पत्रिका में प्रकाशित की। उन से मेरा परिचय परम आदरणीय नीलाम्बर देव शर्मा जी ने करबाया। दूसरे सम्पादक फुलबाड़ी केहैं जो हिन्दी साहिन्य मंड़ल के प्रधान रहे। उन्होंने पत्रिका एवं समाचार पत्र में मेरी रचनायें प्रकशित कीं।
फिर दोस्तों की दुआ और रामकृपा से हर भाषा की हर रचना बाहिर भी प्रकाशित होने लगी। हिन्दुस्तान, कौमी राज, सारिका, जागृति, माया, प्रेरणा, जनकल्याण, वीर अर्जुन, मोर्चा आदि में रचनायें प्रकाशित होने लगी।
श्री सारथी जी ने उच्चतम कोटि का साहित्य सृजन किया है। सारे का सारा साहित्य संवेदनाओं से भरा पड़ा है। समाज में होते हुए मूल्यों के हनन की संवेदना। मानव की कथनी एवं करनी में अन्तर की संवेदना। मानव के भीतर सक्रिय पाश्विक वृतियों की संवेदना।
उन का कहना है कथा सागर में प्रवेश करने से पहले उन्होंने बहुत अच्छे लेखक पढ़े। शरतचन्द्र, प्रेमचन्द्र, बंकिम, टैगोर, राहुल सांस्कृत्यायन, कृष्ण चन्द्र, ख्बाजा अहमद अब्बास, कमलेश्वर, Ernest Hemingsway, Perles buck, Thomas bodkan,Tolstoy और Gorky इत्यादि। संसार की सुप्रसिद्ध कहानियों के अध्ययन से ही उन्होंने जाना की समय, परिस्थितियों और राजनीतिक व्यवस्था अथवा उथल-पुथल के अनुसार क्या लिखा जा रहा है। उन के अनुसार उन्होंने कोई ऐसी रचना नहीं पढ़ी जिस का गौण अथवा मुखर सम्बन्ध राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों अथवा अर्थव्यव्स्था से न हो। उन के अनुसार कहानी में बात चाहे इतिहास की हो, विज्ञान की, भूगोल की, आत्मविश्लेषण की, भीतर की पीड़ाओं की अथवा राजनीति की हो, प्रतीक रूप में ही उस का आना उचित है और दूसरी बात है कि राजनीति का परिवर्तन मानव के लिए हर प्रकार का परिवर्तन ला खड़ा कर देता है। उन के अनुसार उन्होंने सभी कुछ इसी रूप-रेखा, इसी भाव को ले कर प्रतीकों एवं संकेतों में लिखा है। ऐसी अर्न्तधारायें भी हैं जो आदमी का पीछा नहीं छोड़ती। आदमी नये को अपना लेता है पुराने को भुला नहीं सकता। दोनों को साथ ले कर चलता है तो उस का वर्तमान उस से छूटता है। उन्होंने बहुत कुछ अर्न्तधारा प्रवाह और चेतन धारा प्रवाह में लिखा है।
अपनी सब से प्रिय विधा के बारे में वे कहते हैं- मेरी सब से प्यारी विधा रही है नावल। मैं समझता हूँ कि लेखन दो प्रकार का होता है। सार का बिस्तार और बिस्तार का सार। जब हम काव्य लिखते हैं तो विस्तार का सार हमारे पास होता है। हमारा अभिप्राय बड़ा सीमित होता है और कईं बार हमारे पास केवल सार होता है और वह विस्तार चाहता है तो रचनाकार उपन्यास लिखता है। मैंने भी उपन्यास लिखे। इस में मेरी ज्यादा रूचि है। वह इसलिए कि उपन्यासों में भी कलातमक्ता लाई जा सकती है जब वह संकेतात्मक हों। सारथी जी के उपन्यासों में सार का विस्तार तो है परन्तु वह विस्तार भी उनके अनुभवों एवं अनुभूतियों का सार रूप ही कहा जाएगा। प्रतीकात्मक शैली में लिखे उनके दार्शनिक सार को समझने हेतु इन उपन्यासों पर समीक्षात्मक एवं अनुसंधानात्मक कार्य की बहुत अधिक ज़रूरत है।
.........क्रमशः ...........कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 11 February 2018

सागर की कहानी( 45)

सागर की कहानी( 45)
साहित्य संगीत और कला जगत के जितने भी लोग सारथी जी से जुड़े रहे उन सब के मन में उन के प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव रहता ही । एक संस्मरण में प्रसिद्ध तबला वादक ब्रह्म स्वरूप सच्चर जी लिखते हैं- ओo पीo शर्मा सारथी के साथ मेरा परिचय लगभग 45 वर्षों के ऊपर का है। श्री सारथी जी के पास जब मैं बैठता तो मुझे ऐसा प्रतीत होता कि मैं कला के समुद्र में आ गया हूं। मैंने अपने जीवन में इन जैसा प्रतिभा संपन्न व्यक्ति शायद ही कोई पाया हो। आजकल के युग में जैसे हम टेप रिकॉर्डर को टू इन वन कहते हैं इसी तरह से सारथी जी को मैं सेवन इन वन कहा करता था।
एक अन्य संस्मरण में डोगरी के प्रख्यात गीतकार यश शर्मा जी लिखते हैं -एक रोज गांधी भवन में बच्चों के मुकाबले हो रहे थे वहीं पर कल्चर अकादमी का जन्म हुआ था वहां सारथी साहब बतौर जज उपस्थित थे। जिस समय एक रुपए का मूल्य लगभग 20 रुपए के बराबर था उन्होंने सीमा (मेरी गायक लड़की) को 20 रूपए का इनाम दिया था। उन्हीं दिनों ही उन्होंने सीमा को हरमोनियम के तीन सप्तकों पर हाथ रखा कर आशीर्वाद दिया था पर अपने पिता का स्वास्थ्य खराब होने के कारण सीमा को अधिक सिखा नहीं सकते थे। परंत इन के कारण ही मुझे संगीत के ताल का ज्ञान हो गया।
सारथी जी का ध्येय यही रहता कि व्यक्ति संगीत अथवा काव्य के द्वारा लय ताल को समझ कर अपने भीतर के लय ताल से जुड़ जाए। वे मानते कला कला के लिए नहीं, जीवन के लिए है । उन के अनुसार वह ज्ञान जो हमें भीतरी यात्रा की ओर अग्रसर नहीं करता किसी काम का नहीं। सारथी विचार मंच (sarathi school of thought) का एक मात्र लक्ष्य व्यक्ति को साहित्य, संगीत अथवा कलायों के माध्यम से भीतरी अज्ञात संसार से जोड़ना रहता। सारथी जी के अनुसार गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत ही साहित्य संगीत और कलायों का विकास हुआ है और इसी परंपरा के द्वारा आगे भी भीतर और बाहर का, अर्थात साधक का और कलायों का विकास संभव है । इसी परंपरा के अंतर्गत ग़ज़ल के अरूज़ सीखने वाले निरंतर उन से जुड़े रहे । डोगरी शीराज़ा – ग़ज़ल अंक - 2 (फरवरी- मार्च 1989) में डोगरी ग़ज़ल की विकास यात्रा की बात करते हुए डोगरी साहित्यकार ओम गोस्वामी जी लिखते हैं - ग़ज़ल की बात करते हुए एक बात जिसे भुलाया नहीं जा सकता वह है ओo पीo शर्मा सारथी की डोगरी ग़ज़ल को देन। शर्मा जी की ग़ज़ल का रंग रूप और बात कहने का अंदाज उनका अपना है । उन से इस्लाह लेने वाले युवा शायरों का एक रेला डोगरी ग़ज़ल के आंदोलन में शामिल हुआ है। इन शायरों में वीरेंद्र केसर तो बहुत पहले से डोगरी में लिखता आ रहा है पर सारथी जी के संपर्क में शाम तालिब, मोहम्मद अमीन वनहाली, दीपक आरसी, चमनलाल परवाना, प्यासा अंजुम का योगदान विशिष्ट और अलग पहचान बनाने वाला है । इन की ग़ज़ल के अंदाज पर सारथी जी की छाप बड़ी नुमाया है। इन्होंने अपनी उर्दू की पृष्ठभूमि के कारण ग़ज़ल को ग़ज़ल के अधिक नजदीक लाया है और एक अलग पहचान कायम की है।
........क्रमशः ..........कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 16 January 2018

सागर की कहानी( 44)

सागर की कहानी( 44)
शास्त्रीय संगीत की विवेचना करते हुए वे कहा करते- शास्त्रीय संगीत एक समुद्र है और सुगम संगीत उस समुद्र से निकल कर बहती हुई एक छोटी सी नदी जैसे समुद्र के बिना नदी का कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता, ठीक उसी प्रकार शास्त्रीय संगीत के बिना सुगम संगीत का अलग अस्तित्व है ही नहीं। सुगम संगीत में ठुमरी, दादरा, भजन, ग़ज़ल, कब्वाली इत्यादि जो कुछ भी हम सुनें वह कहीं न कहीं अपना आधार शास्त्रोक्त राग पर रखे हुए होता है।
वे कहते भारतीय संगीत की सर्वोपारि विशेषता यह है कि ताल के विविध रूप समय की बाँट के विविध रूप हैं। समय अर्थात दिन-रात के विविध रूप। दिन के पहरों, क्षणों, पलों के रूप। जैसे 24 घन्टों में पृथ्वि का एक चक्र बदल नहीं सकता है। ऐसे ही पृथ्वि जो सूर्य की प्रदक्षिणा में चारों ओर एक चक्र 365 दिन में पूरा करती है, वह एक क्षण भी आगे-पीछे नहीं जा सकती। इसी तरह काव्य, गायन-वादन में एक क्षण भी आगे-पीछे जाना सम्भव नहीं है। लय-ताल उस समय से है जो प्रकाश से उत्पन्न होता है। इसीलिये लय-ताल से जुड़े व्यक्ति को प्रकाश की उपलब्धि होती है। वे कहते प्रकाश की उपलब्धि ही लय-ताल की उपलब्धि है। प्रकाश की उपलब्धि ही रंगों की उपलब्धि है।
सागर और प्रकाश का अटूट सम्बन्ध है। प्रकाश का साथी यह जलनिधि अपने स्थूल रूप में हमें विशाल जलराशि के रूप में दिखाई देता है जबकि प्रकाश के आकर्षण में बंधा यह रत्नाकर जब भाष्प बन कर वायुमण्ड़ल में व्याप्त हो जाता है तो यह स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा पर अग्रसर होता है। ऐसी यात्रा में यह प्रकाश का सहायक बन जीवन चक्र में अपनी सक्रिय भूमिका निभाता है। भाष्प रूप में विद्यमान जल का समूह ही बादलों में रूपांतरित होता है। वही बादल धरती की प्यास बुझाने हेतु जब बरसते हैं तो सभी जलस्त्रोतों से होता हुआ यह जल पुणः सागर में ही जा मिलता है तभी तो सागर को प्रकाश का सहचर कहा है। श्री सारथी जी जब भी संगीत की बात करते तो लय-ताल की बात अवश्य करते और लय-ताल के प्रकाश से सम्बन्ध की चर्चा भी आ ही जाती। वे कहते-संगीत नाद से उत्पन्न है। नाद ब्रह्म है। ब्रह्म का वाहन प्रकाश है। प्रकाश की गति सुनिश्चित है। प्रकाश की गति एक लाख छयालीस हज़ार मील प्रति सैकेंड़ है। संसार में जो भी गतिमान है चाहे पदार्थ, चाहे अपदार्थ, चाहे शरीर, चाहे अशरीर उस की गति सुनिश्चित है।
वे कहते-संगीत योग है। ब्रह्म तक पहुँचने का साधन है। प्रकाशमय होने का माध्यम है। हमारे सारे मंत्र जो देवी-देवताओं को साक्षात करने की क्षमता रखते हैं, सभी की गति अति तीव्र है। वह गति इस कारण है कि मंत्र लय-ताल में निबद्ध है। पिंगल में उन की रचना हुई है। संगीत काव्य तथा स्वर की संगति है। काव्य शास्त्रोक्त है। काव्य का अरूज़ में होना, लय-ताल में होना ही उसे भजन, प्रार्थना, कविता, बंदिश आदि बनाता है। मुझे विश्वास है कि लय-ताल के बिना गाने की, राग की और संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। संगीत में लय-ताल के महत्व से बढ़ कर लय-ताल की अनिवार्यता है। आवश्यकता है।
बिना लय-ताल के संगीत का एक रूप बनेगा। मात्र सुरीली आवाज़। डुग्गर में पीर पंचाल और त्रिकुटा के शिवालिक इलाके में एक गायन शैली (folk lore type) जिसे आंचलिक भाषा में भाख कहते हैं। उस में लय है परन्तु ताल अनुपस्थित है। शायद यही कारण है कि लोक गीत तो गाये और सीखे जाते हैं और प्रचलित भी हुए हैं परन्तु भाख की फार्म बहीं की बहीं खड़ी है।
संगीत अवश्यमेव आत्मा है। content है। और काव्य, भजन, बंदिश उस का शरीर। यह सब पिंगल में बंधा है। अरूज़ में, मात्राओं में बंधा है। समय में बंधा है। क्योंकि लघु (1) का अर्थ एक सैकेंड़ है और गुरु (S) 2 सैकेंड़ है। तो काव्य लघु-गुरु के मूलाधार पर खड़ा है। समय की बाँट पर खड़ा है। संगीत में लय-ताल का वही महत्व है जो आत्मा के लिए शरीर का होता है।
......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध

Monday, 1 January 2018

सागर की कहानी( 42)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी( 42)
श्री सारथी जी ललित कलायों को ईश्वर प्राप्ति का ही साधन मानते परन्तु संगीत के लिए उन के मन में विशेष प्रेम था। ललित कलाओं में वे संगीत को सर्वोच्च स्थान देते और कहा करते-‘बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि यदि वे श्री कृष्ण को रिझा लेंगे तो फलस्वरूप क्या होगा? भगवान शंकर को रिझा लेंगे, भगवान विष्णु की उन पर अनुकम्पा होगी तो उपलब्धि और प्राप्ति क्या होगी? हर देवता के साथ संगीत का एक चिन्ह है जो आप की साधना के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। भगवान श्री कृष्ण जो परब्रहम हैं, कर्णधार हैं, विश्व के, ब्रहाण्ड़ के, जब उन की कृपा होती है तो साधक धीरे धीरे बाँसुरी का स्वर सुनने लगता है। वे कहते महारानी मीरा को सब से पहले जब उपलब्धि होती है तो वह कहती है- सुनी री मैंने हरि आवन की आवाज़। उन्हें बाँसुरी की धुन सुनाई देती है। भगवान शिव के भक्तों को डमरू तथा भगवान विष्णु के भक्तों को शंखनाद सुनाई देता है ’।
सागर की लहरें संगीत की स्वरलहरियों को साथ ले सागर के वक्ष पर ही नृत्य किया करती हैं। जल तरंगों की मधुर ध्वनियां तो सागर की स्तुति हेतु ही बजा करती है। बड़े भाग्यशाली हैं वे लोग जिन्होंने सागर के इस संगीत को सुना है। जिन लोगों को श्री सारथी जी द्वारा गाये गये भजनों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है वे जानते हैं सारथी जी जिस धुन में भजन गाते वह धुन भजन के शब्दों तथा उन शब्दों के सभी अथों को साथ ले कर सुनने वाले के अन्तस में प्रवेश कर जाती और कुछ ही क्षणों में सुनने वाले की मनोदशा एवं मनोदिशा बदल जाती।
सर्दियों के दिन थे। श्री सारथी जी भूरे रंग का शाल ओढ़ कर बैठे थे। गोगी-बिल्ली का छोटा बच्चा उन की गोद में बैठा उन के प्रेममय स्पर्श का आनन्द उठा रहा था। कमरें में सूरज जी, केवल जी तथा ओम प्रकाश भूरिया जी भी उपस्थित थे। केवल जी अपनी नज़रे तबले पर गढ़ाये बैठे थे और सारथी जी के गायन के साथ तबला बजाने की अपनी आतुरता को छुपा नहीं पा रहे थे। केवल जी कहने लगे-गुरुदेव कुछ सुनाईये परंतु गुरुदेव विनोद भाव से सूरज जी को भजन सुनाने को कह रहे थे। उसी समय मैंने कमरे में प्रवेश किया तो गुरुदेव कहने लगे- लो सूरज जी, गुरु जी भी आ गए, अब तो कुछ सुना ही दीजिये। सब जानते थे गुरुदेव का यह सम्बोधन सब में सहज उल्लास एवं प्रेम भरने के लिए है। संकोच का आवरण उतारते हुए सूरज जी भी उन से कुछ सुनाने का आग्रह करने लगे और केवल जी भी सूरज जी के आग्रह में अपनी प्रार्थना का स्वर मिलाने लगे। मेरा सारा शरीर तप रहा था। गला खराब होने की बजह से बुखार ने आ घेरा था परंतु उस दिव्य आभामण्डल के आलोक में आते ही सब भूल गया।
गुरुदेव ने हारमोनियम पकड़ा, नन्हा बिल्ली का बच्चा समझ गया अब उसे कुछ देर के लिए उन की गोद से विलग होना पड़ेगा। वह उठ कर दूसरे कमरे में चला गया। श्री सारथी जी ने महारानी मीरा का भजन गाना आरम्भ किया।
- मोरे नैना बाण पड़ी------- भूरिया जी कैंसियां बजाने लगे और केवल जी ने तबला सम्भाल लिया। पूरा वातावरण संगीत और भक्ति की स्वरलहरियों से गूँज उठा। भजन समाप्त होते ही उन्होंने संत कबीर जी के भजन को संगीत की स्वरलहरियों से मिश्रित कर अपने मधुर कण्ठ से गायन आरम्भ किया
-चुनरिया झीनी रे झीनी। राम नाम रस भीनी।
फिर जब गोस्वामी तुलसीदास जी का भजन- तू दयालु दीन हों तू दानी हों भिखारी आरम्भ हुआ तो सब की आँखों से प्रेमाश्रुयों की धारायें वह निकली। मुझे महसूस हो रहा था मेरे शरीर के सारे संक्रामक किटाणु, सारी व्याकुलता, सारा ताप अश्रुयों में बहता चला जा रहा है। मेरा तन और मन निखरता चला जा रहा था।
फिर भक्त श्रिरोमणि सूरदास जी का वात्सल्य रस बिखेरता यह भजन सब पर भक्ति रस बरसाने लगा- मैय्या मोरी मैं नहीं माखुन खायो। अन्ततः अश्रुधारा आनन्दधारा में परिवर्तित हो चुकी थी। मानो सारा वातावरण ही आनन्दमय हो नृत्य कर रहा हो। मेरे शरीर का सारा ताप दूर हो चुका था। ऐसे चमत्कार अनेक लोगों ने अनेक बार उन के सानिध्य में, उन के वचनों में अनुभव किये हैं
......क्रमशः ..........कपिल अनिरुद्ध

सागर की कहानी (41)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास। आप के सुझाबों का इंतज़ार रहेगा।
सागर की कहानी (41)
....वैसे सारथी जी की करूणा के घेरे में मूक प्राणियों के साथ साथ निर्जीव बस्तुओं को भी स्थान प्राप्त होता । इस के प्रमाण उनके साहित्य में विपुल मात्रा में मिलते हैं। जादुई यर्थाथवाद (magical realism) की छाप सारथी जी के लगभग सभी उपन्यासों में मिलती है। जादुई यर्थाथवाद सौन्दर्य या साहित्य की ऐसी शैली है जिस में यथार्थ को अधिक रोचक तथा पाठक में अधिक संवेदना जगाने हेतु असली दुनिया के साथ साथ जादुई तत्वों जैसे चमत्कारिकता, कौतुहल, तथा आलोकिकता का मिश्रण रहता है। इसी शिल्प के अर्न्तगत कहीं सारथी जी अपने उपन्यासों में खण्डरों के साथ बातें करते तों कहीं सड़क सा गलि का दर्द उन्हें आहत करता। नंगा रूक्ख, डोगरी उपन्यास में सड़क के दर्द को अभिव्यक्त करते हुए वे लिखते हैं- ‘नगर के बाहर एक बड़ी सड़क थी जो चुप सी लेटी हुई उसांसे भर रही थी। कभी- कभार गूँजती हुई कोई गाड़ी उस की छाती पर से गुजर जाती तो वह फुँकार कर करवट बदल लेती थी। बिन पैरां दे धरती नामक पंजाबी उपन्यास में भी सड़क की व्यथा को अभिव्यक्ति मिली है – ‘सड़क की हंसी में व्यंग्य का मिश्रण था। तुम भी उन में से हो जिन के पास मेरी दास्तान सुनने का समय नहीं। पर यह मैं ही हूँ जो सदियों से तुम्हें अपनी छाती पर ढो रही हूँ। तुम्हें कमरे से बस्ती में और बसती से फिर कमरे में पहुँचाती आ रही हूँ................ अब आदमी ने मेरे दो टुकड़े कर दिये हैं। पुरानी सड़क और नयी सड़क। मेरे एक हिस्से को मनुष्य पुराना कहता है और एक हिस्से को नया। मैं चिल्ला चिल्ला कर हार गई हूँ कि लोगो पुराने के गर्भ में से नये का जन्म होता है।‘
इस शैली के प्रयोग में सारथी जी का ध्येय एक ही रहता कि पाठक अपने प्रति, नगर, राष्ट्र एवं धरा के प्रति जाग जाये। वह अपने निर्माण में, समाज के योगदान को समझे तथा अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग रहे।
सर्व के प्रति सारथी जी के प्रेम एवं करूणा का परिचय उनके द्वारा बनाये रेखाचित्रों में भी मिलता है। उनके द्वारा बनाये रेखाचित्रों में गोबर लीपती महिलाओं, धान काटते किसानों, जूते गाँठते मोची, बाल काटते हजाम, वर्तन बनाते कलाकारों, किसी गुब्बारे वाले, गारड़ी, सिपाही, चौकीदार इत्यादि को भी स्थान मिलता। उनके द्वारा खींचे छाया चित्रों में जहां समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों का शुमार है वहीं, नदियों, पक्षियों, पशुओं, औषधीय पौधों तथा पत्थरों की भी उपस्थिति दर्ज है। किसी पोखर, कब्रिस्तान इत्यादि को चित्रित करते हुए भी वे उस में अजीब सा सौन्दर्य भर देते।
हर क्षण को एक पर्व एवं उत्सव की भान्ति मनाने वाले सारथी जी के लिए म्हत्वहीन, निर्रथक, अपूर्ण कुछ भी नहीं था। एक बार उनके घर के सामने कोई भगवान शिव की टूटी हुई मूर्ति छोड़ गया, जिस की सूचना उन्हे अपने एक शिष्य के द्वारा मिली .... गुरुजी बाहर कोई भगवान शिव की अखंडित मूर्ति छोड़ गया है । जो अकाल है, अखंड है वह खंडित कैसे हो गया। हमें पूर्ण करने वाला, स्वयं खंडित, सारथी जी धीमे स्वर में बोले और मूर्ति को भीतर ले आए । फिर क्या था, रचनाकार रचना प्रक्रिया में, शिल्प संरचना में व्यस्त हो गया और शिष्यगण उस रचनात्मकता का आनंद लेने लगे । प्लास्टर आफ पेरिस का पेस्ट बना कर मूर्ति पर लगा दिया गया और उन की तूलिका रंग भरने में तल्लीन हो गई। कुछ ही मिन्टों में एक अदभुत कलाकृति सब के सामने थी और फिर वह मूर्ति, वह अकाल, अखंड उन की किताबों के मध्य सुशोभित हो अपने भाग्य पर इतराने लगा।
......क्रमशः .................कपिल अनिरुद्ध