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गुरुदेव 'सारथी' जी के कथनानुसार --
( गुरुदेव का यह वक्तव्य उन की डोगरी लेखमाला 'चिंतन' से लिया गया है ।)
"लेखन शक्ति विलक्षण शक्ति ऐ। इस दा मूल माहनूं दे प्रति ते माहनूं दी संवेदना बिच्च छ्प्पे दा ऐ । इस दे बीज अतिसूक्षम होने करिए इस शक्ति गी ललित कला दी संज्ञा दिती गई दी ऐ । ललित कला अर्थात फ़नून-ए- लतीफ़ अर्थात fine arts। fine arts दा भावार्थ ऐ लतीफ़, बारीक, सूक्षम जां नाजुक कारीगिरी, इस थमां होर अग्गे अरूप गी रूप देना, सूक्षम गी स्थूल करना, अदृश्य गी दृश्य करना ऐ ।
महारिषि भर्तृहरी इस्से सन्दर्भ च अपने ज्ञान शतक बिच्च ग्लांदे न -साहित्य संगीत कला विहीना
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:
उन्दा भाव ऐ जे जेका मनुक्ख साहित्य संगीत ते कला थमां खाल्ली ऐ ओं बिना पूछल ते बिना सिंगे दे जानबर ऐ । उनें सत् प्रकार दी रचनाएँ, कृतियें गी ललित कला आखे दा ऐ । साहित्य दा तात्पर्य गद्य ते पद्य (नज़्म ते नसर) संगीत दे त्रै क्षेत्र - गायन, वादन ते नर्तन ते कला दे सन्दर्भ च उन्दा इशारा मूर्तिकल ते चित्रकला ऐ । मेरे विश्वास दे मुताबिक उन्दा भाव बड़ा विपुल, विशाल ऐ । एह ता संभव कदें नई जे समाज बिच्च रोह्न्दा हर मनुक्ख कृतिकार रचनाकार होई जा । उन्दा मतलब जीवन गी साकारात्मक ढंगे कन्ने जीने, उस गी विकास देने ते आनंद दी प्राप्ति कन्ने ऐ।
"लेखन शक्ति विलक्षण शक्ति ऐ। इस दा मूल माहनूं दे प्रति ते माहनूं दी संवेदना बिच्च छ्प्पे दा ऐ । इस दे बीज अतिसूक्षम होने करिए इस शक्ति गी ललित कला दी संज्ञा दिती गई दी ऐ । ललित कला अर्थात फ़नून-ए- लतीफ़ अर्थात fine arts। fine arts दा भावार्थ ऐ लतीफ़, बारीक, सूक्षम जां नाजुक कारीगिरी, इस थमां होर अग्गे अरूप गी रूप देना, सूक्षम गी स्थूल करना, अदृश्य गी दृश्य करना ऐ ।
महारिषि भर्तृहरी इस्से सन्दर्भ च अपने ज्ञान शतक बिच्च ग्लांदे न -साहित्य संगीत कला विहीना
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:
उन्दा भाव ऐ जे जेका मनुक्ख साहित्य संगीत ते कला थमां खाल्ली ऐ ओं बिना पूछल ते बिना सिंगे दे जानबर ऐ । उनें सत् प्रकार दी रचनाएँ, कृतियें गी ललित कला आखे दा ऐ । साहित्य दा तात्पर्य गद्य ते पद्य (नज़्म ते नसर) संगीत दे त्रै क्षेत्र - गायन, वादन ते नर्तन ते कला दे सन्दर्भ च उन्दा इशारा मूर्तिकल ते चित्रकला ऐ । मेरे विश्वास दे मुताबिक उन्दा भाव बड़ा विपुल, विशाल ऐ । एह ता संभव कदें नई जे समाज बिच्च रोह्न्दा हर मनुक्ख कृतिकार रचनाकार होई जा । उन्दा मतलब जीवन गी साकारात्मक ढंगे कन्ने जीने, उस गी विकास देने ते आनंद दी प्राप्ति कन्ने ऐ।
हिंदी रूपांतरण......
हिंदी रूपांतरण......
---- "लेखन शक्ति विलक्षण शक्ति है । इस का मूल मानव के प्रति और मानव की संवेदना में निहित है । इस के बीज अतिसूक्षम होने के कारण इस शक्ति को ललित कला की संज्ञा दी गई है । ललित कला अर्थात फ़नून-ए- लतीफ़ अर्थात fine arts । Fine arts का भावार्थ है लतीफ़, बारीक, सूक्षम जां नाजुक कारीगिरी, इस से ओर आगे अरूप को रूप देना, सूक्षम को स्थूल करना, अदृश्य को दृश्य करना है ।
महारिषि भर्तृहरी इसी सन्दर्भ में अपने ज्ञान शतक में कहते हैं -
साहित्य संगीत कला विहीना
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:
उन का भाव यह है कि यदि मनुष्य साहित्य, संगीत एवं कला से वंचित है तो वह बिना पूँछ और सींग के पशु है । उन्होंने सात प्रकार कि रचनायों एवं कृतियों को ललित कला कहा है । साहित्य का तात्पर्य गद्य एवं पद्य (नज़्म और नसर) , संगीत के तीन क्षेत्र गायन, वादन तथा नर्तन और कला के सन्दर्भ में उन का ईशारा मूर्तिकल एवं चित्रकला की ओर है। मेरे विश्वास के अनुसार उन का भाव बड़ा विपुल और विशाल है । यह तो संभव कभी नहीं हो सकता कि समाज में रहने वाला हर मनुष्य कृतिकार एवं रचनाकार हो जाए । उन का मतलब जीवन को रचनात्मक ढंग से जीने, उसे विकास देने और
आनंद की प्राप्ति से है"।
---- "लेखन शक्ति विलक्षण शक्ति है । इस का मूल मानव के प्रति और मानव की संवेदना में निहित है । इस के बीज अतिसूक्षम होने के कारण इस शक्ति को ललित कला की संज्ञा दी गई है । ललित कला अर्थात फ़नून-ए- लतीफ़ अर्थात fine arts । Fine arts का भावार्थ है लतीफ़, बारीक, सूक्षम जां नाजुक कारीगिरी, इस से ओर आगे अरूप को रूप देना, सूक्षम को स्थूल करना, अदृश्य को दृश्य करना है ।
महारिषि भर्तृहरी इसी सन्दर्भ में अपने ज्ञान शतक में कहते हैं -
साहित्य संगीत कला विहीना
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:
उन का भाव यह है कि यदि मनुष्य साहित्य, संगीत एवं कला से वंचित है तो वह बिना पूँछ और सींग के पशु है । उन्होंने सात प्रकार कि रचनायों एवं कृतियों को ललित कला कहा है । साहित्य का तात्पर्य गद्य एवं पद्य (नज़्म और नसर) , संगीत के तीन क्षेत्र गायन, वादन तथा नर्तन और कला के सन्दर्भ में उन का ईशारा मूर्तिकल एवं चित्रकला की ओर है। मेरे विश्वास के अनुसार उन का भाव बड़ा विपुल और विशाल है । यह तो संभव कभी नहीं हो सकता कि समाज में रहने वाला हर मनुष्य कृतिकार एवं रचनाकार हो जाए । उन का मतलब जीवन को रचनात्मक ढंग से जीने, उसे विकास देने और आनंद की प्राप्ति से है"।
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